अगर कहूं प्रदीप की कविता में ईश्वर बुदबुदाता है तो ये अतिशयोक्ति जैसा लग सकता है मगर है नहीं।1988 की आती सर्दियों में एक बच्चा जन्म लेता है। जिसके जन्म के समय शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये बच्चा, जो प्रकृति से छला गया है, एक दिन बेहतर कवि बनेगा, जिस पर पर्चे पढ़े जाएंगे।
प्रदीप, सेरेब्रल पाल्सी रोग से ग्रस्त हैं लेकिन वह अदम्य जिजीविषा से घिरे शख्स हैं। इस जिजीविषा का कारण है ईश्वर पर अटूट विश्वास। ‘थकान से आगे’ किताब में वो कहते हैं कि ईश्वर को कोई माने या न माने मैं तो मानता हूं, जो अपने पूरी सृष्टि के काम धन्दे से फुर्सत निकाल कर रोज मेरे जीवन में आ कर कोई चमत्कार कर जाता है।
ये चमत्कार ही है कि विशेष परिस्थितियों, सीमाओं के बावजूद अब तक उनकी पांच पुस्तकें आ चुकी हैं,जिनमें से तीन कविता संग्रह है।
1.थकान से आगे बोधि प्रकाशन जयपुर से 2015 में
- ज़रूरी चिह्नों के बिना बोधि प्रकाशन जयपुर 2024 में
- कांप रहा है घर बोधि प्रकाशन जयपुर 2025
कविता, पद्य की वो विधा है जो आदिकाल से मनुष्य को सुकून देती आई है, शिकार से थका हारा जब वो घर आता तो समूह में गीत गा कर ही कष्टों संकटों से मुक्त हो पाता था। उस दिन से आज समय तक कविता संकटों से मुक्ति का पर्याय रही है। प्रदीप की कविता भी अंधेरों से मुक्ति का प्रयास ही है।
कवि मानता है कि कविता किसी बिजली की तरह कौंधती हैं, और देर तक हमारे ज़हन पर छाई रहती हैं।जिससे हम समाज और स्वयं को रोशन करते हैं।
‘कांप रहा है घर’ संग्रह की आत्मकथ्य में लेखक अपने और अपनी कविता के मध्य संबंध समझाते हुए कहता है कि
“कविता सभी के मन में आती बिजली की तरह है।जो इसे पकड़ पाते हैं वे खुद के साथ साथ समाज को भी रोशन करते जाते हैं। मेरा कविता लिखना किसी फ्यूज बल्ब के कभी कभी कौंधने जैसा है जो कभी देर में तो कभी जल्दी जल्दी भी जलता है। अपने अंधेरों से लड़ना ही कविता लिखना है। अपने अंधेरे से जूझते हुए लिखी गई कविता किसी अन्य के अंधेरे में थोड़ा प्रकाश बिखेर दे तो यह फ्यूज बल्ब के चमकने जैसी कामयाबी होगी।”
सभी कलाओं, सभी विषयों,विज्ञानों का अंतिम लक्ष्य मानव कल्याण ही होता है। प्रदीप की इन तमाम व्यक्तिगत ऊहापोहों, परिस्थितियों, मन के उल्लास नैराश्य भाव से निकली कविता भी लोकमंगलकारी है। जहां पाठकों के मन की पीड़ाएं कवि और कवि का दुख पाठकों से एकमेक होता रहता है, जिससे दोनों के बीच अनुभूतियों के स्तर पर पुल बनता ढहता रहता है।
कवि कर्म, अपने समय का दस्तावेजीकरण करना है। कवि अतीत को इतिहास की समझ से बुहारता है, चील की चोंच से वर्तमान को पकड़ता है और उम्मीदों भरी अपनी आंख से भविष्य की ओर ताकता है। प्रदीप भी अपने समय को पैनी निगाह से देखते हैं। ये शायद हैरान कर दे कि एक शत प्रतिशत शारीरिक सीमाओं से ग्रस्त व्यक्ति समाज को इस नज़रिए से भी देख सकता है, और उसका अनुभव संसार इतना विस्तृत हो सकता है।
प्रदीप की रचना प्रक्रिया जुगाली आधारित है,जहां वो सूचनाओं घटनाओं विचारों को बहुत दिन तक जुगाली करते हैं, और फिर उसका सत्त कविता के रूप में कागज़ पर उतारते हैं। कविताई समूह के लिए शायर कवि सत्य पी गंगानगर को दिए इंटरव्यू में वो कहते हैं
“मैं शांत होने के बाद लिखना पसंद करता हूँ। घटनाओं के बीत जाने के बहुत बाद तक उन्हें सोचते हुए लिखता हूँ। हालांकि कविता मन में बिजली की तरह कौंधती है, कविता आती है और चली जाती है लेकिन जो कविता मन में कौंधी उसे मैं बैटरी बन स्टोर करने की कोशिश करता हूं”।
प्रदीप अपने रचना कर्म पर ख़ुद से सवाल करते हुए नज़र आते हैं। मनोज छाबड़ा द्वारा संपादित प्रदीप की डायरी ‘वरक दर वरक’ में 5 फरवरी 2016 की सर्दियों के उबाऊ दिन में वो अपने आप से सवाल करते हैं
“मैं इतना क्यों सोचता हूं,क्यों सुनता हूं,क्या मैं सिर्फ कान हूं?, क्यों लिखता हूं कविता?क्यों पढ़ता हूं? ये सब सवाल मेरे हैं, और मैं ही इनका जवाब हूं.”।
बकौल प्रदीप कहते हैं कि असल में कविता उनके लिए दुख से बाहर निकलने का ज़रिया है। और इसके अलावा शायद कुछ है ही नहीं।यह सजा के रूप में मिला जीवन और उसमें रियायत खोजता है मेरा पढ़ना लिखना।
‘थकान से आगे’ संग्रह की ‘मैं’ शीर्षक की कविता में कवि इसी भाव को लिखते हैं-
मैं
सिर्फ और सिर्फ़
मैं
सारी जिंदगी बस मैं ही मैं
मेरे लिए इस मैं से बड़ी
सज़ा
और क्या होगी
‘थकान से आगे’ संग्रह की ही भूमिका में वो कहते है कि
“मेरी कविताएं वो बातें हैं जिन्हें मैं कह नहीं पा रहा था और मन में रखना मुश्किल था।
मेरी बातें आपकी अनकही बातों से संवाद करे तो बताइएगा”
यहां भी प्रदीप अपने स्व को ,बाहर दुनिया में दूर से देखती हजारों जोड़ी आंखों से जोड़ना चाहते हैं।व्हीलचेयर पर बैठे एक शख्स के लिए कविता ही वो माध्यम है जिससे वो अपनी बात कह सके।
कविता करना अपने आप में दुष्कर कार्य है।एक विचार को चंद पंक्तियों में समा देना हुनरबाज़ी का कमाल है।कविता करना हुनर है।दुख की अगन को इस तरह सजाकर परोस देना,कि जिसे देख सर्दी से कांपते हाथ गर्माहट से भर जाएं।प्रदीप की कविता सर्द मौसम में गांव गुवाड़ में चौराहों पर जलती बुझती वो धूणी है, जहां पर लोग अपने होने की सूचना पाते हैं। बकौल शायर जाँ निसार अख़्तर –
हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए
इसी आग को छुपाने की कला प्रदीप ने अपने भीतर विकसित की है।बकौल रतन कानावत “प्रदीप एक हौसले से भरा शख़्स है।कविताएं पढ़ते हुए लगता है कि ये बाय बर्थ कवि है, सायास नहीं।”और फिर आग छुपा देनी जैसी कला सीखी भी नहीं जा सकती ,हां पॉलिश की जा सकती है।यूं भी कवि नहीं,कविता,कवि को चुनती है।मगर प्रदीप जिस स्थिति में रहे उस समय एक इंसान का मिलना ,जो उसे एक बेहतर तरीके से समझ सके,एक चमत्कार की तरह है। 2003 में ये जादू हुआ जब कवि चित्रकार मनोज छाबड़ा प्रदीप की ज़िंदगी में आए। और फिर प्रदीप सिंह,कवि प्रदीप सिंह हो गया।पॉलिश का काम मनोज छाबड़ा जी ने किया,जिस से फिल्मी धुनों पर शब्द आगे पीछे करता शख्स,एक कवि के रूप में हम सबके सामने आया।
प्रदीप की कविता दिनचर्या से निकली ऊब नहीं है।बोरियत से कविता तो शायद नहीं ही उपजती है।ऊपर जहां लेखिका ने कवि के कविता कर्म को जुगाली करने की संज्ञा दी हैं,वहीं कवि स्वयं इस प्रक्रिया को च्यूइंगम को चबा कर फेंकने से जोड़ते हैं। और कविता को लोक से जोड़ते हैं,एक उम्मीद की तरह देखते हैं।जहां वो हर अच्छे इंसान की तरह दुनिया को बेहतर करना चाहते हैं।
थकान से आगे संग्रह की कविता शीर्षक की कविता में वो कहते हैं
रोज़ की
बंधी बंधाई दिनचर्या से
निकली
ऊब नहीं है कविता।
दिनचर्या एक बेस्वाद च्यूइंगम है
जिसे बेतरह चबाए जा रहे हैं हम
कविता
च्यूइंगम को बाहर निकाल फेंकने की
कोशिश है बस
और प्रयास भी
मेरे लिए कविता
वक्त बिताने का नहीं
वक्त बदलने का ज़रिया है”।
प्रदीप की अनुभूतियों का संसार विस्तृत हैं।जैसे कवि हर चीज़ को छूता है तो वही हो जाता है,या उस पर रंग आ जाता है।जिसे देखता है वो दृश्य आंखों के रास्ते हृदय तक पहुंच जाता है। और वो उस अनुभव को शब्दों में ढाल कर कविता बना लेता है।व्हीलचेयर पर बैठा एक लड़का अपने शुरुआती दिनों से दुनिया जो उससे दूर है,को इतने करीब महसूस करता है।
प्रदीप की कविता में वर्तमान पूरे होश ओ हवास से झांकता नज़र आता है।प्रदीप ने अपने चारों ओर होने वाली घटनाओं,स्थितियों,एहसासों को अपनी कविता का कथ्य बनाया है।जिससे उनकी कविता किसी एक ही ढर्रे पर नहीं चलती नज़र आती अपितु उनके विषयों में विविधता नज़र आती है।इसके बावजूद उनकी कविता कहीं भी अपनी गुणवत्ता से समझौता नहीं करती,मयार से नीचे नहीं उतरती है।ये कवि की खूबी ही है कि उसकी कलम व्यक्तिगत दुखों से लेकर देश विदेश की घटनाओं को अहसास बना कर बराबर चलती रहती है।
प्रदीप के तीनों काव्य संग्रहों में लगभग 170 कविताएं संकलित हैं।जिसमें कवि स्वयं का दुख,परिवारजनों के मन की स्थिति ,अपना शहर,प्रेम,सियासत ,चुनाव,लोकतंत्र और अपने समय की नब्ज पकड़ता है। ये कविताएं संवेदना और शिल्प के स्तर पर बेजोड़ हैं।
कविता पर बात करते हुए आलोचक डॉ साधना अग्रवाल कहतीं है कि-
“जिस संवेदनात्मक तनाव से कविता बनती है उसे ज्यादातर कवि ठीक से झेल नहीं पाते ।इसका दुष्परिणाम यह होता है कि कविता भले मुक्तक या हाइकु बन जाए पर कविता तो नहीं ही बनती।कवि की चिंता अपने समय समाज के प्रति गहरी और ईमानदार नहीं हुई तो कविता में उथलापन आ जाता है”.
यहां डॉ. अग्रवाल जिस उथलेपन की बात करती हैं वो अपने समय को ठीक से न समझ पाने के कारण है।किसी कवि की कविता की असली जमीन कहां हैं और कविता का असली घर कहां है?पता ही नहीं चल पाता है।
प्रदीप की कविता का असली घर जहां से निसरती है वो व्हीलचेयर पर बैठी दो आँखें हैं जो दुनिया को एकटक निरंतर बदलते हुए देखती हैं। जिनमें संवेदनशीलता भरी हुई है।मार्मिकता है।जो अपने दुख की गहराई में दुनिया की पीड़ भी उसी के बराबर उतार लेते हैं।
प्रदीप दिव्यांग नहीं ‘ कविता में विकलांगता को अपना विषय बनाते हैं।जहां प्रतीकों यथा बैसाखियों, उसैन बोल्ट,काला चश्मा ,बुल्स आई,टायसन के ग्लव्स आदि का प्रयोग कर विशेष सीमाओं से बंधे लोगों के मनोस्थिति बताते हैं।यह कविता उम्मीद से भरा हुआ जादुई सपना है।जहां सब कुछ ठीक है।जहां कवि अंतिम पंक्ति में कहता भी है
“हमारे अंग तो नहीं
हां
ख्वाब ज़रूर दिव्य हैं “।
इसी प्रकार दिव्य शीर्षक की कविता में वो उन तमाम विशेष सीमाओं से घिरे लोगों की आवाज़ बनते हैं।जहां वो शिकायत करते हुए कहते हैं
हमारे अंगों को बताकर दिव्य
क्षणिक खुशी नहीं
सबकी नजरों में सम्मान चाहिए
इसी विषय पर अन्य एलर्जिक रंग,अकेलापन, इंस्पिरेशन,विकलांग बेटा,विकलांगता ,नहीं जंचती , व्हीलचेयर , शह मात ,पहचान,आदि कविताएं हैं।
प्रदीप ने खुलकर अपने होने को लिखा है।अपने प्रियजनों के दुख को मार्मिकता से अपनी कविताओं में उकेरा है।
बंधन कविता में कवि अपने प्रियजनों के प्रति ,स्वयं को लेकर ,संवेदना प्रकट करते हैं।वो स्वयं को उनके लिए एक रुकावट की तरह देखते हैं।सोचने का ये स्तर भी है,कि जहां खुद के दुख से ज़्यादा चिंता अपने आसपास के लोगों के लिए हैं।इस कविता की अंतिम पंक्तियां है
मैं महसूस करता हूं कि
अपनों के पैरों में बंधी
कंटीली बेड़ी हूं मैं।
कवि अपनी उपस्थिति से जो विसंगतियां महसूस करता है उसे लिखते हुए कवि स्वयं के लिए निराश नहीं है,अपितु अपने आसपास घूमते फिरते चेहरों का दुख पकड़ना चाहता है।यह कवि हृदय की कोमल भावना का ताप ही है। “मजबूर” शीर्षक की कविता में स्वयं को नहीं अपितु अपने स्वजनों को मजबूर बताता है।दादी कैसे घुटनों का दर्द भूलती है।पिता जिनका वो सहारा नहीं बन सकता है,मां रिश्तेदार की शादी से बीच में आ गई है , और यहां तक कविता के अंतिम हिस्से में कवि ईश्वर को भी मजबूर कह देते हैं।
मैं पूछता हूं कि आखिर कौन है मजबूर
मैं या ईश्वर?
जो करोड़ों दुआओं के बाद भी बुत बना ही खड़ा है।
इसी तर्ज़ पर पिता सीरीज की कविताओं में भी उनकी यही चिंता दिखती है।जहां वो पिता के जीवन के प्रति सुहानुभूति दर्शाते हैं।और खुद को कैक्टस की तरह देखते हैं।एक अन्य कविता में पिता की महानता को रेखांकित करते हुए कहते हैं -पिता पतझड़ में पौधों के साथ अतिरिक्त बने रहे।
सीरीज की अंतिम कविता में वो पिता के लिए विराम चिह्न का प्रतीक प्रयोग करते हैं।जहां वो ये दिखाते हैं कि विराम चिह्न कितने महत्वपूर्ण है।वो एक पंक्ति में कहते हैं .
.ज़रूरी चिह्नों के बिना
अर्थ खो देते हैं वाक्य
जैसे पिता के बिना
अर्थहीन हो जाती है
ज़िंदगी
आस्मां शीर्षक की कविता में कवि स्वयं की स्थिति को बेहद संवेदनशील तरीके से कागज़ पर उतारता है।निरंतर कमजोर होते जाने को कवि ने आसमान को संबोधन के माध्यम से बेहद प्रभावी तरीके से लिखा है।
यथा
बहुत पहले तुम अनंत थे
फिर कुछ छोटे हुए मोहल्ले जितने
फिर और छोटे ….
और अंतिम पंक्ति है
और अब सिमट गए हो तुम
मेरे कमरे की खिड़की में ही
मेरा आसमान छोटा हो रहा है
व्हीलचेयर कविता में प्रदीप लिखते हैं कि उनकी व्हीलचेयर को भी उनसे इश्क़ हो गया है।जो उन्हें शुरू में मजबूरी और फिर आदत की तरह लगी थी।यहां कवि यथास्थितिवादी हो गया।
कवि के लिए कविता एक हथियार है।जो उसे पागलपन से बचाती है।कविता का हाथ पकड़कर कवि नैराश्य भाव से बाहर आ जाता है।कविता ही वो उम्मीद का टुकड़ा है जिसके सहारे कवि यात्रा कर पाता है कई आकाशगंगाओं की।प्रदीप ने कई कविताएं,कविता को कथ्य बना कर लिखी हैं।यथा ओ कविता, वृद्ध कविता,कविता,मौसमी नदी,तिलिस्म,स्याही,बचाने खुद को,अरसे बाद,तुम्हें क्या मतलब, इस्त्री,मौसम कविता का आदि शीर्षक की कविताएं हैं।जहां कवि अपने से बात करता नज़र आता है। इन्हें पढ़ते हुए हम समझ पाते हैं कि कविता प्रदीप के लिए कितनी ज़रूरी चीज़ है।जिसमें वो एक बेहतर दुनिया की तस्वीर रचने का प्रयास करते हैं।
तिलिस्म कविता की अंतिम पंक्ति है –
सच
कलम के
किरकिराहट से निकला
कविता कोई तिलिस्म है
‘ स्याही ‘ कविता में कवि अपने कथ्य चुनने का ज़िक्र करता है।किस तरह प्रकृति,शहरों में आने वाले आगंतुक,मौसमों और सूचनाओं पत्रों से मिले भाव जादुई स्याही की तरह मन पर कविता लिख देते हैं।कवि साफ कहता है काली स्याही से कविताएं नहीं लिखी जाती हैं।वह बस हाथ काले करती है।
और वहीं कवि इस्त्री कविता में कविता लिखने को एक बेहद नए बिंब से दर्शाते हैं।जिसे पढ़ कर नया अहसास होता है,कि ऐसे भी कहा जा सकता है।कविता बहुत साधारण शब्दों में की गई असाधारण बात ही तो है।कविता की अंतिम पंक्ति है –
कविता लिखना
हैंगरों पर टंगे
कपड़ों की इस्त्री का बिगड़ जाना है।
प्रदीप की अनुभूतियों का आकाश विस्तृत है।कवि जीवन के अन्य पहलुओं के साथ ही, सबसे अधिक प्रभावी टूल राजनीति को भी बेहद करीब से देखता है।लोकतंत्र ,विकास के नारे, मॉब लींचिंग, वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन ,बाबू कल्चर,मतदान ,इत्यादि राजनीतिक विसंगतियों पर भी प्रदीप की तीखी कलम चुभती हुई चलती है।
कुछ शब्द ,मुहावरों , प्रतीकों से प्रदीप की राजनीतिक चेतना को समझा जा सकता है यथा जुमले,अंधे के पैर तले आया बटेर ,पांच साल बाद,काली स्याही,नफरत की दुकान,भेड़चाल,नए डंडे पर विकास लिखा है,तानाशाह, बलूचिस्तान,मुल्क की खिलाफत,आचार संहिता,इत्यादि।
राजनीति ,लोकतंत्र पर प्रदीप की दो कविताएं उल्लेखनीय है
यथा
मेरी उंगली पर लगा
काली स्याही का निशान प्रमाण है
कि
मैंने हथियार थमा दिए हैं
फिर उसे
जो करेगा इस्तेमाल उन्हें
मेरे ही ख़िलाफ़
‘सच’ शीर्षक कविता की अंतिम पंक्तियां —
क्या तुम सच सुन सकोगे?
जबकि
तुम्हें मेरे बोलने भर से परेशानी है।
‘केवल कल्पना नहीं’ शीर्षक कविता में कवि ग्लोब पर शांति करना चाहता है,विश्व के मानचित्र पर सीमाएं मिटाते हुए दुनिया के तानाशाहों से सवाल करता है।वह चिढ़ता है उनसे जो विजातिय मित्र बनाने से उसे रोकते हैं।कवि पूरी ग्लोब हमारी पृथ्वी लिखे होने के दिन का ख्वाब देखता है।जहां अरदास का वाक्य अपने हृदय में बसा कर अब एक दूसरे का सुख मांगे . और कह उठे नानक नाम चढ़दी कला,
तेरे भाणे सरबत दा भला।
‘नतीजे’ शीर्षक की कविता भी मारक असर करती है जहां कवि चार पंक्तियों में एक सच सामने रख देते हैं। कविता को केवल शिल्पगत मानने वालों को ये कविता पढ़नी चाहिए, और साधारण शब्दों में बात कितने प्रभावी तरीके से हो सकती है ,इसका उदाहरण ये कविता है —
नतीजे
शिकारी बदलेगा
शिकार नहीं
कल चुनाव के नतीजे आएंगे
एक सच को इस तरह बेहद साधारण शब्दों में बिना किसी आडंबरपूर्ण तरीके से कह देने,जैसा हुनर ही प्रदीप को एक अच्छे कवि के रूप में स्थापित करता है।प्रदीप की छोटी कविताएं बेहद मारक हैं।जहां वो शब्दों में उलझते नहीं है,बल्कि सीधे पाठक के मन पर असर करते हैं।कविता सिर्फ चौंकाने का काम नहीं हैं।अंतिम पंक्ति में जादुई तरीके से एक अलग सी पंक्ति लिख देना आज कल कवियों का शगल है,हां ये कभी सही भी हो सकता है,लेकिन कविता के सभी शब्द ही कविता होते हैं,तभी कविता कही जा सकती है।प्रदीप की कविताएं पहले शब्द से अंतिम शब्द तक आपके सीने पर हौले हौले हाथ रखती है।उदाहरण के लिए
सूरज शीर्षक की कविता
सूरज
जा छुपता होगा
वो किसी बिल में
मेरे शहर में
उसके डूबने को
कोई समंदर दरिया झील नहीं है।
इसी तरह बांध शीर्षक की कविता भी बेजोड़ है।जहां कवि ने हादसों के दुख को ,लाशों को राजनीति कैसे तौलती है ,दर्शाया है।
बांध
जितना बड़ा होगा
हादसा
उतनी बड़ी होगी कीमत
आंसुओं के सैलाब पर
राजा
नोटों से बांध बांधेगा।
प्रदीप का कवि मन संवेदनाओं से परिपूर्ण है।ओशो कहते हैं कि अगर किसी का एक हाथ न काम करे तो उसकी ऊर्जा दूसरे किसी अंग में स्थानांतरित हो जाती है,प्रदीप को देखते हुए लगता है कि सारी ऊर्जा उनके मन में समा गई हैं,जहां से कविता रूपी झरना निरंतर बहता रहता है।यही झरना प्रदीप समेत हम सबको इस तेजी से बदलते समय में एक उम्मीद देता है कि अंततः सब अच्छा होता है।बकौल मनोज छाबड़ा.. “आत्ममंथन से जो चीज़ उबरकर आती है ,वह है प्रदीप की अदम्य जिजीविषा.”।
और यही जिजीविषा प्रदीप की कविताओं से झांकती है।इन कविताओं के माध्यम से हम आप जो अपने पैरों से चल सकते हैं, दौड़ सकते हैं,मुंह से बोल सकते हैं समझ पाएंगे की अगर देखने वाली आंख हो तो क्या कुछ नहीं देखा जा सकता।कितने ही भीतर तक नज़र उतारी जा सकती है। और प्रदीप की ये कविताएं हमें थोड़ा और संवेदनशील बनाते हुए ये समझने में भी मदद करती है कि एक विकलांग में और सामान्य मनुष्य में केवल शारीरिक संरचना का ही भेद है।
व्हीलचेयर पर बैठा इंसान भी आसमान को अपने कमरे की खिड़की पर बुला सकता है, चांद सूरज से बातें कर सकता है, और वो बातें हम आप पाठकों तक उसी रूप में पहुंचा भी सकता है।
जब प्रदीप की कविताओं पर बात करने की जिम्मेदारी मुझे मिली तो मेरे दिमाग में जो पहला विचार, शीर्षक इस पाठ का आया, वो था कविता का स्टीफन हॉकिंग्स :प्रदीप सिंह। पर प्रदीप सिंह कविता का प्रदीप सिंह है।उसे किसी अन्य उपमान की आवश्यकता नहीं है।
प्रियंका भारद्वाज
युवा कवयित्री
मधुमती, समर्था, कादम्बनी, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, राजस्थली , साहित्य बीकानेर, कथेसर, हथाई, राजस्थान डायरी, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविता, कहानी प्रकाशित !
bpriyanka.munda95@gmail.com
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