शब्द बिरादरी

निवेदिता की तीन कवितायेँ


बचे रहो प्रेम



सहसा एक फूल गिरा
फिर कई रंग गिरे डाल से
नए रंग उगे
आसमान
सफेद बादलों से घिरा
नन्हीं चिड़िया फूलों का रस ले उड़ी
अगर तुम खोलोगे इस खिड़की को तो देख पाओगे
बाहर जो घटित हो रहा है
जैसे जीवन हर पल कुछ कहता है
मैं प्रकृति को सुनती हूं
अक्सर मेरी उदास शाम को वो भर
देती है अपने रंगों से
रात की कालिख में उग आते हैं सफेद गुलाब
झरते हैं अमलताश के फूल
हम बांसुरी की तरह हैं
 हमारे भीतर का संगीत
बजता रहता है
हम पर्वत की तरह हैं
 हमारी प्रतिध्वनि
हमसे ही टकराकर लौट आती है
मैं सुनती हूं रात के इस अंधेरे में पृथ्वी के गीत
ये गीत बचे रहे
रंग बचे रहें
तुम बचे रहो प्रेम

सुबह


कितनी शांत है सुबह
 कितनी शांत है सुबह
बूंदों से भरी
आकाश बादलों से भरा है
रूई के फाहों की तरह झर रहा है
झर रही हैं नींद
नींद में  ही हमने तुम्हें पुकारा 
तुम आए
देह के फूल खिल गए
असंख्य रंगों की धारिया टहकने लगी
लाल अड़हुल
खिल गए
मोगरे के फूल तुमने मेरे बालों में गूथ दिया
दुनिया में प्रेम कम नहीं है
पर घिरा है अंधेरों से
आशंकाओं से
यातनाओं से
फिर भी
प्रेम ही है जो खिल उठेगा
हरे – हरे गाछ पर

देह


इस उम्र में देह के बाहर बहता है प्रेम
चमड़ी से मुक्त देह की असंख्य खिड़कियां खुल जाती है
खिलते हैं मोगरे के
फूल
उगते हैं
हरे – हरे  गाछ पर
पर उसका उगना कोई नहीं देखता
सूरज मुखी के फूलों के बीज
समय के ताल पर तैरते हुए
मन के भीतर खिलते हैं
पहाड़ों के ऊपर से बहता है झरना
जैसे मेरा हृदय बह रहा हो
समय के दूसरी तरफ़
छूती हूँ, एक बार फिर
अपने तन को
जगाती हूं प्रेम को
देह जगता हैं प्रेम के स्पर्श से
डाकिया की तरह छोड़ता है संदेश
थोड़ा आकाश
कुछ सितारे
और थोड़ा सा प्रेम मेरी हथेली पर
मैं देखती हूं खुद को
और सामने उस सूखी नदी को
जो बहती नहीं अब
फिर भी मुझे अक्सर सुनाई पड़ती है उसकी आवाज
 कमरे के बाहर
खिड़की के पीछे

निवेदिता

लेखक, कवि , पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता

अब तक कई पत्र – पत्रिकाओं में लेखन

बेस्ट हिन्दी जर्नलिस्ट ऑफ द ईयर के लिए उन्हें लाडली मीडिया अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।

niveditashakeel@gmail.com

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