शब्द बिरादरी

प्रियंका यादव की पाँच कवितायेँ

1. ‘इस धारा में’

तुम पर्वत की तरह कोमल थे

नदी तुम्हारे भीतर से बह गई

मैं रेत की तरह कठोर था

मैंने उसे बाहर आने नहीं दिया

इस धारा में

एक ने जीवन देखा दूसरे ने मृत्यु ।

2. ‘मरघट’

मैं जब भी शवों को देखता हूं

अपने जीवन से कुछ और प्रेम करने लगता हूं

मरघट की आग मुझे

मंदिर की लौ से ज्यादा

प्रेरणा देती है।

3. ‘काश..’

स्त्री आरंभ से ही

मां और पिता दोनों होती है

काश पुरुष भी केवल पिता न होता

मां की तरह वह भी थोड़ा मां होता

तो बारहों मास इंद्रधनुष होता

पेड़ की जड़

जड़ के भीतर की नमी और बाहर हरापन होता

भूख की जगह भोजन और

युद्ध की जगह अमन होता।

4. दरख़्त में कैद बीज’

कविता की आखिरी किताब

उस दरख़्त में कैद है

जिसका बीज अभी तक

जमीन पर गिरा नहीं

जिस दिन वह बीज गिरेगा

एक जोरदार भूकंप आएगा और

दुनिया समुंदर के भीतर होगी।

5‘कविता की स्त्री’

मैंने देखा है कवियों को

स्त्री की कोमलता पर

कविता लिखते हुए पर

वास्तविक स्त्री की देह से उन्हें बास आती है

लहसुन प्याज की

थूलथूले देह के भारीपन में दम घुटता है उनका

बातों से उबासी आती है

इन सब के बावजूद वास्तविक स्त्री कविता की स्त्री को पढ़ती है

और तीखी हंसी हंसती है कवि पर

उसे दुःख है कि ये करुणा सिर्फ कविता की स्त्री के लिए है।

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प्रियंका यादव

भिलाई, छत्तीसगढ़ 490026

एम. ए हिंदी

अकार तथा अन्य पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित

7389671089

py2919578@gmail.com

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