शब्द बिरादरी

सुमन शेखर की छः कविताएँ

समय का पैर घिसता जाता है

स्थिरता मिटती गई

अस्थिरता का घर,

महल बनता गया

चाहा जीवन से केवल संयम

जीवन ने अट्टहास किया—

अब इसके दिन गए 

समय के साथ इंसान अधीर होता जाता है

मन के तल पर चटकती धूप

भीतर आने से पहले ही विलीन हो जाती है

भीतर के ढहने में

एक शब्द भर की दूरी का फ़ासला है

समय का पैर घिसता जाता है

जीवन की इच्छाएं प्रबल होती जाती हैं

संतोष और धैर्य- गुब्बारे में भरी हवा है

एकांत में बैठा मन

खुद के घाव खखोरता है

याद आता है मुस्कुराना-

अतीत में बहुत खड़ा एक व्यक्ति

गाहे बगाहे चुन लेता था हँसना

अतीत का वह व्यक्ति धुंधला हो चला है

उसे याद करते हुए रोना फूट पड़ता है

हँसना इसी तरह चूक चूक जाता है

कहाँ है वह संग्रहालय –

जहां शीशे में लिपा पुता हुआ वह व्यक्ति

जिसके भावों के अनगिनत चेहरे थे

जीने में खुद का चयन

हंसने और रोने मे खुद का होश

संग्रहालय में अब केवल व्यक्तियों के कारनामे,

पोशाक, हथियार और नमूने का नहीं घर नहीं होगा

विलुप्त हुए अतीत का मुस्कुराता जीवन होगा

भावों से भरे चेहरे होंगे

उसकी उदासी, एकांत का कोहराम होगा

पुरखे कह गए-

जीवन की नैया अपने हाथ

हाथ कहाँ हैं अपने!

स्वयं का क्या!

सब मिलता है

मिलता क्या आखिर!

हर बार तुम भरपूर भर देती हो पेट

मैं हर रात तुम्हारे उपस्थिति से तैयार हुए

अलख भभूत से नहाए बदन को देखता हूं

जो गाढ़ा होता जाता है हर रात

उसके हर कण में तुम्हारे होने की यादें हैं

उसके हर कण में तुम्हारे प्यार का कौर है

दिन तमाम ऐलानो को पूरा करते खप जाता है

रात!

हर रात तुम्हें याद करता हूँ

बहुत शिद्दत से करता हूँ याद

ताकि शब्दशः ध्वनिवत तुम्हें बार-बार याद कर सकूं

हर बार तुम जैसे भरपूर भर देती हो पेट

और छूटते ही अगले क्षण

फिर से उठती है उत्कंठा अटल

तुम्हें याद करता हूँ

जिसमें तुम्हारे गुणों, वैभव, प्रेम और शब्दों के

खुलते दिखते हैं दरवाज़े

हर रात पोषित होता जाता हूँ मैं

रात में जो कोई देख ले मुझे

भांप जाएगा शब्दशः

कुपित हो जाएगा देखकर मेरे रूप पर आभा

जैसे कालि के चेहरे पर उतर आई थीं काली

प्रेम धारित भभूत के साथ

हर रात तुम चली आती हो

और देती हो नवजन्म नवपोषन।

स्वप्न अधूरी, भूली हुई स्मृति का टुकड़ा है

जीवन देकर

अल्प अवधि के पार तुम्हारा छूट जाना

देखता रहा बस…

रोक सकता था

रोककर

अल्प अवधि को थोड़ा और बढ़ाया जा सकता था

लेकिन किसके लिए!

पल भर जीवन का स्वाद चखकर

उम्र भर का बिछोह लगा बैठा

साँस गले में अटकती जाती है

रूह ज़रा सी हवा से काँप जाती है

रात के सपने में हमेशा

ख़ुद को किसी खंडहर के गर्भ गृह में

भटकता-भागता हुआ देखता हूँ

दिन के उजाले आँखों को चुभने लगे हैं

मन के ऊपर तुम्हारे जाते जाने को

बस देखते रह जाने का

वज़न

बहुत भारी है

स्वप्न अधूरी, भूली हुई स्मृति का टुकड़ा है

जीवन तुम्हारे साथ जिये लम्हों का पुलिंदा

जिन्हें उम्र भर टाँकते जाना है।

इच्छा रखना जुर्म तो नहीं!

ख़ुद को मैंने देखा ख़ुद के इतर—

जैसे उत्तरी ध्रुव को चाह हो दक्षिण को छूने की

जैसे आकाश को इच्छा हो धरती पर सर टिकाने की

जैसे मन की इच्छा हो सारे सपनों की पूर्ति

जैसे अंगुलियों की लालसा हो

हवा को अपनी ही मुट्ठी में बन्द कर जाने की

कुछ भी मुमकिन नहीं,

फिर भी इच्छा रखना जुर्म तो नहीं!

मन और इच्छाओं का बैर बहुत पुराना है

इतनी चीज़ें खो गईं

धूल पड़ गईं

पाना और पा पाना

दोनों के बीच की दूरी विस्तृत रही

इतना भयंकर सूखा पड़ा आँखों में

रोने पर आंसूं नहीं, ग्लानि निकली।

नींद

जागते हुए सिरहाने में

बहुत गहरी नींद पसर रही है

चाहता हूं नींद में

बहुत शांत, नींद की एक-एक फेहरिस्त चुकता करूँ

ऐसे जाऊं नींद में

कि आँखों को भी आहट न लगे

और कितने ही जागे हुए नींद को

धीरे-धीरे नींद में सुलाता रहूं

पर डर लगता है

डर लगता है

कि अगर ज़रा सी भी नींद लुढ़की

नींद में ही ख़त्म न कर दे कोई

जितने दंगे, हत्याओं का बोलबाला है

न्यायाधीशों के फैसले ग़ायब हो जाते हैं

उपराष्ट्रपति और आयोग ग़ायब हो जाते हैं

कागजों पर ज़िंदा लोग ग़ायब हो जाते हैं

सड़क चलते मंत्री पर पत्थर बाजी हो जाती है

भीड़ में मुख्यमंत्री पर तमाचा रसीद दिया जाता है

जहाँ बड़े बड़े मठाधीश नहीं हैं सुरक्षित

नागरिक के डर का अंदाज़ा कौन लगाये!

मुझे सतर्क न पाकर

कोई मेरी पूरी ज़िंदगी को बीच में ही पूरा न कर दे

डर लगता है

क्योंकि पूरे का पूरा कभी मिला नहीं

मेरी नींद भी आधी सी आई मेरे हिस्से

मेरे सपने भी आधे से आये

मेरा साथ भी मुझे आधा सा मिला

हँसता हूँ, तो आधे होंठ हँसते हैं

रोने पर एक आँख से

आधी छोटी बूँद टपकती है

अब डर लगना लाज़िमी भी है

सोचता हूँ नींद में चौकन्ना रहकर

पूरी नींद आधे-आधे समय मे पूरा करता जाऊँ

नींद लेनी है

मगर डरते हुए नहीं

पर जिस समय नींद आ रही है

डर साथ गहराती जा रही है।

थकान

काफ़ी थकने के बाद पहाड़

जड़ हो गए हज़ारों साल में

शांत…

हल्की नमी में

उनके ऊपर सबसे पहले

काई ने हिम्मत की होगी पैर टिकाने की

उसे जब पलने बढ़ने में कोई रुकावट नहीं दिखा होगा

तो मोहल्ला बस गया होगा काई का

तब किसी चिड़ियां ने उड़कर जाते हुए

ग़लती से गिरा दिया होगा पौधे का एक बीज

बीज भी डरते-सहमते अंकुरित हुआ होगा

और मुस्तैदी से खड़ा हो गया होगा पहाड़ की छाती चीरकर

तब भी पहाड़ ने कुछ न कहा होगा

रहा होगा शांत

पौधा पहली बार ख़ुशी से झूमा होगा

पूरे पहाड़ पर उसका घूमने का मन हुआ होगा

अकेलेपन का सबसे पहला स्वाद चखा होगा उसी पेड़ ने

जब हंसने-बोलने वाला कोई नहीं रहा होगा

घूमने-टहलने की पाबंदी लग गयी होगी

पैर बंध गए होंगे जब पहाड़ के पसलियों में

गिरा होगा दूसरा बीज

पहाड़ की छाती पर

और अकेला लाचार पेड़

तब पहली बार झूमा होगा अपनी जगह

झूमी होगी उसकी डाली

पहाड़ जहां होते हैं

रात-दिन सोये रहते हैं

कहीं आते जाते नहीं

अपने ऊपर चिड़ियों,तितलियों का उड़ना

नींद में देखते हैं और नींद में ही मुस्कुराते देते हैं

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परिचय

सुमन शेखर

मास कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर

फ़िल्मों के लिए पटकथा लेखन, निर्देशन के साथ ही अभिनय मेंनिरत। दशक भर से रंगमंच में सक्रिय।

प्रकाशन- आलोचना, वागर्थ, कथादेश, कथाक्रम, सरस्वती पत्रिका, मधुमती, राजस्थान पत्रिका, कृति बहुमत, उद्भावना सहित दर्ज़नों पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानी प्रकाशित।

वर्तमान पता-अंधेरी वेस्ट, मुम्बई में ठिकाना।

स्थाई पता-माँ,कृष्णा नगर, खगड़िया-851204

मोबाइल-8877225078

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