अपने देश की कुल आबादी का एक चौथाई हिस्सा चौदह साल तक की उम्र के बच्चों का है। देश के लगभग चौवालीस प्रतिशत लोगों की पहली भाषा हिंदी है। जिसका साहित्य तकरीबन सौ साल से ज्यादा पुराना है। उसी हिंदी साहित्य की दुनिया में बच्चों की किताबों का जिक्र नहीं होता। ‘बाल साहित्य’ जैसा अलग खाँचा बनाकर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है। हिन्दी भाषा में कुल प्रकाशित होने वाले साहित्य के लिहाज से बाल साहित्य का प्रकाशन बहुत कम है। अमूमन तो हिन्दी का प्रतिनिधि साहित्य, बाल साहित्य में होने वाली किसी घटना की चर्चा करता। अगर कोई भलमनसाहत से इसपर बात भी करता है तो उसके द्वारा जो तर्क दिए जाते हैं उनमें बाल साहित्य की परम्परा का नहीं होना, हिन्दी के प्रतिनिधि लेखकों का बाल साहित्य नहीं लिखना, हिंदी में पाठकों का अभाव, साहित्य की गुणवत्ता एवं सूचना तकनीक का प्रभाव, वीडियो गेम्स, मोबाईल आदि की वजह से साहित्य की मांग में उत्तरोत्तर कमी आदि प्रमुख रूप से होते हैं। हिंदी में बाल साहित्य की अवधारणा भी कम समस्यामूलक नहीं है। जहाँ कुछ बाल साहित्यकार नैतिकता और संस्कृति की शिक्षा को बाल साहित्य का लक्ष्य मानते हैं , वहीं कुछ का मानना है कि बाल साहित्य को नैतिक शिक्षा से जोड़ कर देखना इसके मूल उद्देश्यों को संकीर्ण दृष्टि से देखने का द्योतक है। ऐसे गुणों की खोज इसे बाल साहित्य नहीं रहने देती। जो कि सही भी प्रतीत होता है। असल में बच्चों को कुछ सीखाने या ज्ञान देने कि नीयत से रचा गया साहित्य अपनी सीमा आप होता है। बाल साहित्य बच्चों में पढ़ने के आनंद का स्वाद विकसित करती है। यह शुरुआती आयु में किताबों से निकटता की संस्कृति विकसित करने का सावधान प्रयास है ! इन किताबों पर दोहरी ज़िम्मेदरी है , पहली बच्चों तक पहुँचने की तथा दूसरी स्वयं से उन्हें जोड़ पाने की ।
बाल साहित्य के पाठक अमूमन बच्चे होते हैं। ऐसा मान लिया जाता है। लेकिन अपने देश में बच्चों को चुनने का अधिकार विरले ही मिलता है। इसलिए उनके लिए कौन सी किताब या पत्रिका बेहतर है उसका फैसला अमूमन शिक्षक या अभिभावक ही करते आए हैं। बच्चे, अभिभावक और शिक्षकों को एक साथ जोड़कर देखा जाए तो बाल साहित्य का एक वृहत पाठक समाज दिखाई देता है। ऐसा भी नहीं कि बाल साहित्य के प्रति वे जागरूक नहीं। बावजूद इसके भारतीय भाषाओं के बड़े प्रकाशनों में भी बाल साहित्य को लेकर इतनी उदासीनता दिखाई देती है। आज के जमाने में बड़े प्रकाशन समूह, बाल साहित्य का प्रकाशन नहीं करना चाहते। या करते भी हैं तो एक तयशुदा ढर्रे पर ही। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में इस बात को प्रमुखता से रेखांकित किया गया था कि बच्चों की जरूरतों को इसलिए उपेक्षित माना जाता है क्योंकि वे मतदान नहीं कर सकते। फलतः बाल साहित्य का नुकसान तो हर रोज हो रहा है। कोरोना के दौर में नंदन जैसी पत्रिका जो तकरीबन पचपन साल से प्रकाशित हो रही थी, बंद हो गई। बालहंस और चकमक जैसी पत्रिकाओं की अपनी चुनौतियाँ हैं। जिनकी पहुँच सीमित है। वर्तमान समय में किसी भी ऐसी पत्रिका का प्रकाशन नहीं होना जो बच्चों की बड़ी आबादी, स्कूलों आदि तक पहुँच रही हो। भोपाल से प्रकाशित हो रही प्लूटो और साइकिल जैसी पत्रिकाएं अपेक्षाकृत नई हैं। जिनकी गुणवत्ता को लेकर बात तो होती है, लेकिन उनकी उपलब्धता पब्लिक डोमेन में कम ही दिखती है।
बाल साहित्य से जुड़े सवाल वाजिब जान पड़ते हैं। लेकिन पूर्णतः नहीं। जैसे बाल साहित्य की परंपरा का नहीं होना और मुख्य धारा के लेखकों का बाल साहित्य नहीं लिखना आदि सवाल इस वजह से उठते हैं क्योंकि बाल साहित्य से जुड़े आग्रह नहीं हैं। इन सारी तमाम चुनौतियों के बावजूद हिंदी भाषा के 100 सालों के इतिहास में पाँच पत्रिकाएँ ऐसी दिखाई हैं जिनका प्रकाशन लम्बे समय तक होता रहा – बाल सखा (५० वर्ष), बालक (४५ वर्ष), चंदामामा (६४ वर्ष) और नंदन (५५ वर्ष) और चम्पक (५४वर्ष)। इन पत्रिकाओं की यह लंबी पारी देखना सुखद आश्चर्य है । हिंदी भाषा प्रतिनिधि साहित्य की विरले ही पत्रिकाएं रही हैं जिनका नियमित प्रकाशन इतनी लम्बी अवधि तक हुआ हो। हिंदी बाल साहित्य में भी उपलब्धता बनाम गुणवत्ता की बहसें आम हैं। हो सकता है कि जिन लम्बे समय तक प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के नाम मैंने गिनाए हैं उनकी गुणवत्ता पर सवाल उठने लगें हों, किन्तु यह सच्चाई है कि लम्बे समय तक इन पत्रिकाओं ने बाल साहित्य में मुसलसल पसर रहे वीराने को तोड़ा तो है ही।
हिन्दी साहित्य के बड़े और प्रसिद्ध रचनाकार आमतौर पर बच्चों के लिए क्यों नहीं लिखते? यह सवाल बार-बार दुहराया जाता है। इसके पक्ष और विपक्ष दोनों की ही बातें कही जा सकती हैं। पहला तो यह कि हिन्दी बाल साहित्य आमतौर पर बाल साहित्य और शिक्षा विशेषज्ञों के लिए आरक्षित सा लगता है। जो बाल मनोविज्ञान, समाजशास्त्रीय आदि पहलुओं को ध्यान में रखते हुए शिशु और बाल साहित्य लिखते हैं। साहित्य को एक खास नजरिए से देखने की वजह से व्यापकता का स्कोप सीमित हो जाता है। हिन्दी साहित्य के बड़े साहित्यकार समय-समय पर बाल साहित्य लिखते रहे हैं। यह सिलसिला प्रेमचंद से लेकर आज के सक्रिय रचनाकारों तक चला आता है। लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि प्रतिनिधि साहित्य के कुछ हल्कों में ‘बाल साहित्य का लेखक’ होना एक लेबल की तरह माना जाता है। साफ शब्दों में इसे कमतर होना कह सकते हैं।
बहरहाल पिछ्ले महीने नंदन पत्रिका का एक पुराना अंक देखने को मिला था। वह अंक पत्रिका के चालीस साल पूरे होने पर प्रकाशित हुई थी। उस अंक में पुराने अंकों से चयनित रचनाएँ प्रकाशित हुई थी। रचनाकारों की सूची समृद्ध थी । प्रेमचंद, मोहन राकेश, जाकिर हुसैन, आचार्य चतुरसेन, शिवानी, अमृता प्रीतम, विमल मित्र, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, भीष्म साहनी, हरिशंकर परसाई, उपेंद्र नाथ अश्क, कृष्ण चंदर, निरंकार देव सेवक, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,रघुवीर सहाय, हरिवंश राय बच्चन, प्रयाग शुक्ल आदि लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित थीं। हिंदी साहित्य तीन से चार पीढ़ियों के प्रतिनिधि रचनाकारों ने बच्चों के लिए लिखा था। आज के समय में भी प्रियम्वद, विनोद कुमार शुक्ल, अरुण कमल, असगर वजाहत, राजेश जोशी, नरेश सक्सेना, प्रभात आदि जैसे लेखक बराबर की सक्रियता से बच्चों के लिए लेखन कर रहे हैं। इसलिए बार-बार जो बहस उठती है कि हिंदी की प्रतिनिधि लेखक बच्चों के लिए नहीं लिखते, जायज नहीं लगती। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि एक समय हर भाषा के शीर्ष लेखकों ने बच्चों के लिए लेखन किया था। चाहे वह मराठी हो, मलयालम, बंगाली या हिंदी। वो बाल साहित्य के लिए महत्वपूर्ण काम है। लेकिन यह भी स्वीकारना चाहिए कि जीवन मूल्यों के बदलाव, सामाजिकीकरण आदि की वजह से वे रचनाएँ थोड़ी पुरानी प्रतीत होने लगी हैं। इसलिए समय के साथ तालमेल और गुणवता दोनों महत्वपूर्ण हैं और चुनौती दोहरी है। वर्तमान समय में बाल सहित्य में जो लिखा जा चुका है और उपलब्ध है, उसकी पहुँच पाठकों तक सुनिश्चित करना और उनमें दिलचस्पी बनाए रखना ज्यादा जटिल लगता है।
बाल साहित्य को खांचे में रखकर उसे कमतर या किनारे करने की बात पर भी चर्चा होती रही है। इस बहाने बड़ों और बच्चों के साहित्य में अंतर की बात कर ही लेते हैं। जो है भी या हमने केवल सुविधाजनक विभाजक रेखा खींच रखी है। यहाँ कुछेक प्रश्न हैं जिसपर विचार किया जाना जरूरी लगता है। बाल साहित्य अगर साहित्य है तो फिर इसे अलग से रेखांकित करने की जरूरत क्यों है? क्या हमारा साहित्य बच्चे को सम्बोधित करता है? बच्चे की हमारे समाज में स्थिति क्या है? जिस बच्चे की छवि हमारे मन में है, उसके लिए साहित्य की जरूरत क्या है? उम्र के वे वर्ष जिन्हें बचपन का समय कहा जाता है, उन वर्षों में बच्चे की क्या मानसिक और भावनात्मक जरूरतें होती हैं? क्या उनके लिए उपलब्ध साहित्य इस बात या अनुभव को सम्बोधित होता है जिससे बच्चा उस आयु वर्षों में गुजरना चाहता है। क्या उसके लिए यह साहित्य जीवन के तमाम आयामों को उपलब्ध करा सकने में सक्षम है जिसे वह अपने स्तर पर छूने की कोशिश करता है। बाल साहित्य से इतनी तो उम्मीद की जा सकती है कि वह बचपन के समय को बच्चे के उगने, फलने-फूलने और फैलने के समय के रूप में रेखांकित करे।
वर्तमान समय भारत जैसे देश में बचपन और बच्चे की समझ अभी शुरुआती स्तर पर ही है। बच्चों को उनकी कल्पना की दुनिया में रहने के अवसर दिए जाने की समझ अभी पैदा हो रही है। जिसे हम बच्चा कहते हैं, भारत जैसे देश की समृद्ध परम्परा में अभी उसका सामाजिक जन्म पूरी तरह से होना शेष है। शैशव, बचपन, किशोरावस्था ये शब्द केवल ध्वनित होते हैं। जबकि हक़ीक़त यह है कि हमारे समाज में तीन-चार साल के बच्चे से की जाने वाली उम्मीदें दरसल उसे वयस्क बनाने की तयारी होती है। हम बचपन को स्वीकृति नहीं देना चाहते कि वह अपने आयामों का विस्तार कर सके। अपने देश में बाल साहित्य की अवधारणाओं को अभी विकसित होने की जरूरत है जो इन कमियों, जरूरतों और हमारी तैयारियों को रेखांकित कर सके।
अमूमन यह माना जाता है बचपन बहुत मासूम, मस्ती और खुशियों से भरा होता है, एक हद तक जो कि सही है। लेकिन पूर्णतः नहीं। अगर हम अपने बचपन को याद करें तो हम पाएँगे कि बचपन में अनुभव थीं। यह एक आम मध्यमवर्गीय बचपन की बात हो रही है। इनमें हम हाशिए के बचपन को जोड़ लें तो बाल साहित्य और बाल अनुभव का कैनवास बहुत बड़ा हो जाता है। बाल साहित्य के लिए गुणवत्तापूर्ण सामग्री क्या है? एक अच्छी कहानी क्या है? इसे क्या करना चाहिए? रुचि, आयु स्तर, पढ़ने का स्तर कौन सा है? आदि बाल साहित्य के क्षेत्र में काम करने वाले कई लोगों की राय अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, ऐसे किसी विभाजन की आवश्यकता नहीं है या कोई विभाजन नहीं होना चाहिए। बाल साहित्य जैसी कोई चीज नहीं होती, वह स्वयं साहित्य होती है, बात केवल प्रस्तुतीकरण आदि की होती है।
बच्चों की पढ़ने में बहुत रुचि होती है। अगर उन्हें मनचाहा किताब मिल जाती है तो वे उससे घंटों जुड़े रहते हैं। वर्तमान परिदृश्य में एक बच्चा जो जीवन जी रहा है, उसमें उसके लिए स्वयं से इतर बच्चों को देखने और उनसे व उनके अनुभवों से भावनात्मक रूप से जुड़ने का स्पेस बहुत कम रह गया है। कुछ मौके तकनीक ने अवश्य उपलब्ध कराए हैं लेकिन उसमें उस स्तर की संवेदनशीलता और ‘क्युरेटेड सामग्री’ का अभाव ही दीखता है। खासकर जब बात अलग बचपन की हो। अलग बचपन का अर्थ वंचित बचपन से हैं। इसमें आर्थिक, सामाजिक, मानसिक, शारीरिक आदि आयाम शामिल हैं।
बाल साहित्य एक ही जीवन में कई जिंदगियों को जीने का मौका देता है। ये किताबें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक जुड़ाव, संवेदनशीलता एवं सामाजिक सामंजस्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ये किताबें दैनिक जीवन के उन कोने-अंतड़ो की ओर भी उनका ध्यान ले जाती हैं जो उनके जीवन की संभावित चुनौतियाँ भी हैं। जिनपर हम अमूमन बात नहीं करते। हम इस बात को बहुत गहरे महसूस करते होंगे कि हमे अच्छी किताबों तक पहुँचने में बहुत देर हुई। जब तक हम किताबों तक पहुँचे तब तक सामाजिक टैबू हमारे भीतर जड़ें जमा चुकी थीं। जिनसे मुक्त होने में हमें लम्बा अर्सा लगा और अतिरिक्त उर्जा भी लगी। कितना सुन्दर हो जब बच्चा इन विसंगतियों को समझते हुए बड़ा हो। तब वह अपनी उर्जा के बडे हिस्से को समाज में रचनात्मक रूप से खर्च कर सकता है। किताबें हमें इन मायनों में समृद्ध करती हैं कि हम अपने अनुभवों को जिस पारम्परिक दृष्टि से दखते आये हैं उसे भिन्न-भिन्न दृष्टि से देख सकें। किताबें बेशक अचानक से कुछ भी न बदलती हों, लेकिन हाँ वे एक खिड़की तो खोल ही देती हैं।
भारत जैसे देश में बाल साहित्य के समक्ष कई अन्य चुनौतियाँ हैं। जिसमें प्रमुख हैं अच्छी किताबों के प्रकाशन का अभाव, सुगम और सस्ती किताबें, सीमित वितरण चैनल जिसके माध्यम से बच्चों द्वारा उपलब्ध पुस्तकों तक पहुँचा जा सके, सजग अभिभावक और शिक्षक, स्वत्रंत पाठक एवं समीक्षक जो अच्छा क्या है उसे पहचान कर उनकी उपलब्धता की वकालत कर सकें। वैश्विककरण के बाद, शिक्षा में बढ़ी जागरूकता और ई कॉमर्स की प्रगति ने कुछ हद तक बाल साहित्य की पहुँच एवं प्रसार को बढ़ाया है। शहरी क्षेत्र के पब्लिक स्कूलों में बाल साहित्य के उपयोग को लेकर थोड़ी किन्तु सीमित सजगता दिखाई देती है। पिछले डेढ़-दो दशकों में विशेषकर हिंदी भाषा में ठीक-ठाक मात्र में साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण किया गया है। सरकारी योजनाओं द्वारा विद्यालयों में बालपुस्तकालय की स्थापना या सार्वजानिक पुस्तकालय में चिल्ड्रेन्स कॉर्नर जैसे कार्यक्रमों से किताबें तो स्कूलों या पुस्तकालयों तक पहुँच रही हैं। अपने देश में बाजार के लिहाज बाल साहित्य के दो प्रकार हैं। पहला परीक्षापयोगी या ज्ञान निर्माण वाला साहित्य और दूसरा आनंद के लिए पढ़ने को प्रोत्साहित करने वाला साहित्य। विडंबना है कि दोनों ही श्रेणियों में अभिभावक और शिक्षक ही बाल साहित्य के चयनकर्ता होते हैं। बाल साहित्य के जिनके खुद के अनुभव सीमित हैं। लेकिन उस साहित्य से मूल पाठकों का जुड़ाव कैसे बने इसको लेकर को विशेष प्रयास दिखाई नहीं देते। किताबें कैसे पढ़ी जाएँ? उसकी तैयारी भी नहीं दिखती। कुल मिलकर विभिन्न प्रयासों से बाल साहित्य के प्रकाशन और उनकी पहुँच को लेकर सरगर्मी तो दिखाई देती है लेकिन ठोस कुछ होता नहीं दीखता । कुछ लोगों का यह भी कहना है, कि शिक्षा में साक्षरता के लिए बाल साहित्य का प्रकाशन एवं उपयोग उसके अर्थ को सीमित कर रहा है। जरूरत इस बात की है कि एक बड़ा वर्ग तैयार हो जो अच्छी किताबों से जुड़े। उन्हें पढ़े, उनपर चर्चा करे। ताकि बाल साहित्य का बाजार स्वावलंबी बन सके। वर्त्तमान समय में भारतीय भाषाओँ जैसे हिंदी, कन्नड़, मराठी, बांग्ला, मलयालम आदि में कई छोटे प्रकाशक बाल साहित्य का प्रकाशन कर रहे हैं। लेकिन गुणवत्ता के पैमाने जिसमें कंटेंट, इलस्ट्रेशन, डिजाइन ले-आउट, विपणन और उनकी उपलब्धता की सीमित समझ बाल साहित्य के नए पाठक वर्ग तैयार करने में कोई विशेष योगदान नहीं कर पा रहा। भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के बड़े प्रकाशन समूहों का इसके प्रति उदासीन होना भी समझ से परे है।
विगत दो दशक में हिन्दी भाषा के बाल साहित्य का स्वरुप बदला है। सुन्दर इलस्ट्रेशन, वर्तमान समय के अनुसार रचा गया साहित्य, नया कलेवर, डिजाईन, प्रस्तुतिकरण आदि ने किताबों की गुणवत्ता को बेहतर ही किया है। नेशनल बुक ट्रस्ट, तूलिका प्रकाशन, एकलव्य-भोपाल, रूम टू रीड इंडिया, पराग-टाटा ट्रस्ट, प्रथम बुक्स, ए एण्ड ए, इकतारा ट्रस्ट आदि प्रकाशन जैसे संस्थानों ने अच्छी और विवधता पूर्ण सामग्री उपलब्ध कराई है। हिन्दी बाल साहित्य की क्लासिक किताबों जैसे ईदगाह (नेशनल बुक ट्रस्ट, एकलव्य), अबू खां की बकरी, हींगवाला (एकलव्य), निरंकार देव सेवक, श्रीप्रसाद, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, नवीन सागर के चुनिंदा कविताओं का संग्रह (इकतारा ट्रस्ट) आदि का पुनर्प्रकाशन कर नए कलेवर और इलस्ट्रेशन के साथ उपलब्ध कराया गया है। एक तरफ बाल उपन्यासों में नाचघर, एक चुप्पी जगह, एक चोर की चौदह रातें (इकतारा), डेस्क पर लिखे नाम (नेशनल बुक ट्रस्ट), लिनेट का सफर, अंडमान का लड़का (एकलव्य) आदि हैं तो कहानी संग्रहों में गोदाम, घोड़ा और अन्य कहानियाँ, इश्क का माता (इकतारा), चुड़ैल का नाश्ता, अनोखा पेड़ (एकलव्य) जैसी बेहतरीन किताबें हैं। विविधता एवं समावेशिता थीम पर चुनिंदा किताबें जिनमें काली और धामिन सांप (तूलिका), भीमायन, नंगू-नंगू नाच (एकलव्य) घर, अमू और गौरैया, हम भारत के बच्चे (प्रथम बुक्स), दिल पतंग, मेरी आँखें (रूम टू रीड इंडिया) आदि प्रमुख हैं। बाल साहित्य में अलग-अलग फॉर्मेट की किताबें भी विभिन्न प्रकाशनों ने उपलब्ध कराई हैं, जिससे नव पाठकों की पढ़ने में दिलचस्पी बढ़े और वे उनसे खुद को जोड़ सकें। बिग बुक फॉर्मेट में लाइटनिंग (इकतारा), अगला कौन, सो जा उल्लू (एकलव्य), आक्छू, नानी चली टहलने (प्रथम बुक्स) लोकप्रिय किताबें हैं।
कुल मिलकर हिन्दी का वर्तमान हिन्दी बाल साहित्य विविधरंगी, समावेशी और प्रगतिशील दिखाई देता है। विभिन्न संस्थानों के सकारात्मक प्रयासों से पारंपरिक तस्वीर थोड़ी बदलती नजर आ रही है। यद्यपि ये हिन्दी भाषा के विस्तार क्षेत्र को देखते हुए ये प्रयास कम ही जान पड़ते हैं। इसलिए इस दिशा में अन्य नियमित प्रयासों की आवश्यकता है। जरूरत इस बात की है कि हिन्दी का प्रतिनिधि साहित्य अपेक्षित सहयोग करे एवं इसे समृद्ध बनाने में अपनी महती भूमिका निभाए।