मेरी पुस्तकालय यात्रा

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कई दिनों बाद जब मैं पुस्तकालय गई।

देख कर मुझे ,पुस्तके, मुस्कुराने लगी

उनके चेहरे पर मुस्कान ,आंखों में नमी थी।

पूछती मुझसे ,बताओ हममें क्या कमी थी।

कोने में बैठा ,साहित्य भी उदास था।

सोचता, मैं भी कभी लोगों का खास था।

घर-घर में जाता ,मिलता सबके पास था

लेकिन आज विद्यार्थियो के लिए मैं बकवास था।

अनेकों कहानियों ने बताया कि जीवन का सार है हम।

लेकिन आज विद्यार्थियों के लिए बेकार है हम।

कुछ छोटी बड़ी पुस्तके कई सालों से अंदर थी।

देखा तो पता चला वह तो ज्ञान का समंदर थी।

महापुरुषों की जीवनी का सफर भी निराला था

कभी सभी की जुबां पर चलता उनका बोलबाला था।

कोने वाली जगह भी शायद, उसने खो दी थी।

देख कर मुझे फूट-फूटकर रो दी थी

कुछ फंसी हुई पुस्तके बीच से झांक रही थी।

संदेह भरी नजरों से मुझे तांक रही थी।

बहुत दिनों के बाद कोई विद्यार्थी देखा है।

हम दोनों के बीच शायद कोई लक्ष्मण रेखा है।

कुछ कविताएं मस्ती में गुनगुना रही थी

शायद वे अपनी व्यथा सुना रही थी।

सभी किताबों ने मुझे अपनी व्यथा बताई।

कैदियों से जीवन की कथा सुनाई।

आक्रोश में कुछ अधिक की इतिहास की किताब

हमें पढ़े बिना कैसे बनोगे भविष्य के नवाब।

तुम्हारे भविष्य की इमारतें कैसे खड़ी होगी।

जब किताबे सिर्फ पुस्तकालय में पड़ी होगी।

धार्मिक पुस्तकों की हालत भी जरा खस्ता थी।

जो कभी सन्मार्ग को जानने का रास्ता थी।

आज उनके चेहरे भी बेजान से थे।

विद्यार्थी उनकी विशेषताओं से अनजान से थे।

कुछ अस्वस्थ सी किताबे कई दिनों से सोई नहीं।

उम्र के इस पड़ाव में साथ देने वाला कोई नहीं।

असहाय सी आवाज में अपना दुख जताया।

अपनी इस हालत का जिम्मेदार हमको बताया।

पुस्तकों की हालत कुछ नासाज सी थी दबी दबी सी आज उनकी आवाज भी थी

तुम हम से नहीं अपने भविष्य से दूर भागते हो।

हम भी देखते हैं आखिर तुम कब जागते हो।

हाथ जोड़ माफी मांगी मैंने ,तुम्हारे गुनेहगार है हम।

माना ,आधुनिकता के यान पर सवार है हम।

तुम्हारी अहमियत को कभी नहीं भुला पाएंगे।

बिना किताबों के “ज्ञान का दीपक” नहीं जला पाएंगे।

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