बिहार सरकार में प्रखंड कल्याण पदाधिकारी के पद पर कार्यरत युवा लेखिका प्रीति प्रकाश अपने अपने अनुभवजनित गंभीर लेखन से साहित्य की दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। उनके लेखन में जो तेवर और तीक्ष्णता है, उसकी झलक उनके साक्षात्कार में भी दिखती है। अपने आसपास के समाज से होते हुए बाहर फैली व्यापक दुनिया तक उनकी सूक्ष्म और पैनी नज़र जाती है..उनकी कहानियां दुनिया के मुहाने पर बैठे सब से मामूली आदमी की अंतर्कथा है। आइए शब्दबिरादरी में अनुराधा गुप्ता से हुई उनकी बातचीत को देखते हैं।
1/ अपने बारे में कुछ बताएं। बचपन से लेकर अब तक की यात्रा के वे कुछ हिस्से जो आप हम सबसे साझा करना चाहें।
मैं बिहार के चंपारण जिले के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से आती हूँ| चार भाई बहनों में सबसे छोटी थी| पिता की किराने की दूकान थी| हमारे पास चीजें कम थी लेकिन बचपन बहुत प्यार से गुजरा| मुझे याद है मेरी माँ जब रात में रोटियां पका रही होती तो मैं दोनों हाथों में उनकी चूड़ियाँ डाले उनके आस पास डोल रही होती| माँ के पास ढेरों कहानियां थी और वो हमारे साथ खेलती भी खूब थी| हमने आँख मिचौली, छुआ छाई और कबड्डी माँ के साथ खेला है| पिता खूब पढ़े लिखे तो न थे लेकिन स्वप्नदर्शी थें| वो हम भाई बहनों की पढाई को लेकर बहुत सतर्क थें और हमारा खूब हौसला बढ़ाते|
पिता की मृत्यु तब हुई जब मैं ग्यारहवी में थी| मुझे आज भी लगता है कि यदि हमारे यहाँ स्वास्थ्य संबंधी अच्छी सुविधाएं रहती और प्राइवेट हॉस्पिटल्स की मोनोपोली नहीं होती तो शायद हम उन्हें बचा पाते| पिता के जाने के बाद दो बाते हुई – पहली मुझे ये पता चला कि समाज विधवा और कमजोर लोगों के लिए कितना बर्बर होता है और दूसरी बात कि यह मालूम हुआ कि मेरी माँ कितनी मजबूत है| पिता की मृत्यु और उनके बाद वाले दिन मेरे जेहन में एकदम से दर्ज हो गए| रिश्तेदारों द्वारा माँ की चूड़ियाँ को जबरन तोड़ना, पिता की मौत के लिए माँ को दोषी ठहराना, मृत्यु भोज के समय ब्राह्मणों का अधिक दक्षिणा लेने के लिए अड़ जाना, रिश्तेदारों का हमसे दूरी बनाना, माँ का दूकान संभालना, हम भाई बहनों का अचानक से बड़ा हो जाना| तभी यह भी जाना कि औरत का आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है| या यूं कहूं कि फेमिनिज्म की जरूरत उन दिनों से ही महसूस होनी शुरू हुई|
जीवन में तीसरा बड़ा मोड़ तब आया जब उच्च शिक्षा के लिए तेजपुर विश्वविद्यालय असम गयी| बैंक की नौकरी छोड़ कर पढाई जारी करने के निर्णय में परिवार साथ था लेकिन आर्थिक अभाव से गुजर चुके इंसान के लिए यह मुश्किल निर्णय था| पर मैं खुश हूँ कि मैंने यह निर्णय लिया| पूर्वोत्तर का मुझ पर खूब प्रभाव रहा|
2/ अब तक के जीवन का कौन सा दौर आप को सबसे अधिक पसंद है?
यूनिवर्सिटी में बिताए गए पीएचडी वाले दिन| उसके पहले मैंने आर्थिक कारणों से कॉलेज का मूंह नहीं देखा था, पढाई इग्नू से की थी| पीएचडी वाले दिन मेरे लिए जैसे नींद से जागने के दिन थे| पहली बार पता चला कि इतवार को खुद की पैम्परिग की जाती है, लड़कियां भी यूं ही बाहर निकल जाती हैं| साडी पहन कर बेफिजूल फोटो सेशन होते हैं और चाय पर चर्चा करना सिर्फ नेताओं का काम नहीं होता| अपने छोटे से शहर से कभी बाहर नहीं निकली मैं हर एक चीज, हर एक व्यक्ति और हर एक घटना को बड़े कौतुक से देखती| हमारे घर टीवी नहीं था और मैं बड़ी कम उम्र से ही नौकरी कर रही थी सो दुनियां जहान में क्या चल रहा है इसका मुझे पता न था|
एक घटना याद आती है कि पोबितारा मैडम क्यूरी हॉस्टल में हर गलियारे का नाम फूलों या पक्षियों पर था जैसे- बालिमहीं ( एक असमिया फूल)| मुझे यह बड़ा मजेदार लगता था | फिर एक दिन मेरे एक प्रोफेसर ने मुझसे पूछा कि मैं लेफ्ट विंग को सपोर्ट करती हूँ या राईट विंग को| ‘बलिमाही सी विंग को क्योंकि मैं वहीँ रहती हूँ’| मैंने भोलेपन से जवाब दिया था| प्रोफ़ेसर कुछ देर तक कंफ्यूज रहे थोड़ी देर बाद जब उन्हें समझ आया कि वो देश की बात कर रहे थे और मैं हॉस्टल की तो वो बड़ी देर तक हँसते रहे|
यूनिवर्सिटी मेंरे लिए आज भी मेरा इबादतखाना है| अपनी फुआ मौसियों को चाँद को पूजते देखा था यूनिवर्सिटी में लड़कियों को एस्ट्रो फिजिक्स में पीएचडी करते देखा| मैंने इतनी आजाद ख्याल, स्मार्ट और जहीन लड़कियां पहले कहीं नहीं देखी थी| लड़कों से दोस्ती करना वहीँ सीखा, पहली बार प्यार में वही पड़ी, दिल वहीँ टूटा, फिर चीजों को झटककर आगे बढना वही सीखा| लिखना वहीँ शुरू किया और वहीँ जाना कि टेक्नोलॉजी जेंडर नहीं देखती है| अंग्रेजी अखबार पढने से लेकर ऑनलाइन पेमेंट करना और ऑनलाइन शोपिंग करना वही सीखा| मुझे लगता है कि मेरी तरह छोटी जगहों से आ रही लड़कियों के लिए मेकओवर की तरह होती हैं हॉस्टल लाइफ| सहेलियां हमे सही ब्रा चुनने से लेकर सही करियर चुनने तक की सलाह देती हैं| कुल मिलाकर आज जो कुछ हूँ उसमे मेरे विश्वविद्यालय के दिनों का खूब योगदान है और मेरा यह विश्वास है कि हर लड़की को बाहर पढाई करने जाना चाहिए और कुछ दिन परिवार से दूर भी गुजारना चाहिए| तभी यह पता चलता है कि हमने कितनी गलत चीजों को नोर्मलाईज कर रखा है|
3/ आप की पहली कौन सी रचना थी जो पब्लिक फोरम में आई?
कहीं भी प्रकाशित होने वाली पहली रचना थी ‘स्त्री काल’ के ऑनलाइन पेज पर आयी कविताएँ और कहानी ‘रानी बेटी’| पर ज्यादा प्रसिद्धि मिली मेरी दूसरी कहानी ‘राम को जन्मभूमि मिलनी चाहिए’ कहानी से| यह कहानी हंस में प्रकाशित हुई थी और इसे 2020 का राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान मिला था|
4. आप को क्या कभी ये लगा कि आप अपने साथ की बाकी लड़कियों से कुछ अलग सोचती हैं?
हम क्या सोचते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे आस पास कैसा माहौल है| मैंने खुद के जीवन में कई ऐसे पड़ाव देखे हैं जब मैं टिपिकल सोच रख रही थी और बाद में जब थोड़ी परिपक्वता आयी तब पता चला कि मैं गलत थी| एक बात याद आती है कि तब बाहर पढने नहीं आयी थी – मैं अपनी माँ के सुर में सुर मिलाकर अपनी भाभी को समझा रही थी कि नयी नयी ब्याहता को हाथ भर चूड़ियाँ पहननी चाहिए साड़ी पहनकर तैयार रहना चाहिए| आज सोचती हूँ तो खुद पर यकीन नहीं आता कि मैं ऐसी थी|
तो मेरी एक यात्रा रही है| मैंने खुद को बेहतर करने की लगातार कोशिश की है| पर मेरा मानना है कि मैं कोई विशेष नहीं हूँ| मेरे आस पास कई ऐसी लड़कियां और औरतें हैं जो बहुत बोल्ड और मजबूत है| जिनसे मैं आज भी सीखती हूँ| हाँ कुछ लोगों की सोच अभी भी वर्षो पुरानी और रूढ़ीवादी हैं लेकिन इसमें उनका दोष नहीं बल्कि उनके माहौल का है|
5/ आज के समय में जब आप एक आधुनिक और प्रगतिशील परिवेश और समय से जुड़ी हुईं हैं तब आपको अपने आस पास क्या चीज़ सबसे अधिक तनाव देती है?
मैं अभी जहाँ कार्यरत हूँ वह जगह न तो आधुनिक है और न ही प्रगतिशील| बिहार का सबसे पिछड़ा जिला है शिवहर| आज भी यहाँ पूरी प्रशासनिक सतर्कता के बावजूद धडल्ले से बाल विवाह हो रहा है, एक भी ढंग का कॉलेज नहीं है, महिला डॉक्टर तलाश करने पर भी नहीं मिलती हैं| यहाँ मुझे इंडिया और भारत का फर्क साफ़ साफ़ दिखता है| मुझे कोफ़्त होती है कि आज भी यहाँ घरों में शौचालय नहीं है लेकिन स्मार्ट फोन है| बच्चियां स्कूल से नदारद होकर कलश यात्रा में शामिल होती हैं, धार्मिक यात्राओं में हथियारों के साथ परेड हो रही हैं और कचरे, धुंए और शोर से शहर भरता जा रहा है|
6/ आप के लिए स्त्री – पुरुष का सम्बन्ध किस रूप में और क्या मायने रखता है? ऐसे में विवाह संस्था को आप कैसे देखती हैं?
कई तरह के होते हैं-
आदर्श स्थिति में यह बराबरी का होता है फिर चाहे वो दोस्त हो, भाई बहन या फिर पति पत्नी| स्त्री पुरुष एक दुसरे को परिपूर्ण करते हैं, सामजिक, आर्थिक, भावनात्मक सहयोग देते हैं| कई जगहों पर यह सम्बन्ध कायम भी हैं| लेकिन अधिकाँश रिश्तों में पुरुष और स्त्रियाँ दोनों, पुरुषों को सुपीरियर समझते हैं| ‘मेरा पति मेरा देवता है’ सोचने वाली महिलाएं अभी भी दुनियां में बड़ी संख्या है|
मेरी सीमित समझ में विवाह संस्था जरूरी है पर अनिवार्य नहीं है| जरूरी इसलिए क्योंकि यह थोडा तो दबाव डालती है कि लोग अपने रिश्ते पर थोड़ी मेहनत करें| इस तरह रिश्तों की उम्र बढ़ती है| लेकिन फिर इसके लिए जरूरी है कि रिश्ते बराबरी के हो| विवाह संस्था को भी बदलते समय के साथ अपने स्वरुप में बदलाव लाना होगा|
8.एक स्त्री होने के नाते आपको क्या लगता है कि स्त्रियों को किसने ठगा है?
समाज और धर्म ने| हर उस चीज ने जिसने उसे ज्ञान तक पहुँचने से रोका| एक बार जब स्त्री को यह बोध हो जाता है कि जो हो रहा है वो गलत है तो फिर वो विरोध की जुगत भिड़ाने लगती है| धर्म मैंने इसलिए कहाँ क्योंकि आस पास की कई स्त्रियों को सुबह से शाम तक धार्मिक आडम्बर और कर्म काण्ड में फंसा देखती हूँ| जीते जी वो एक तरह से अपनी सत्ता अपने पावर से विमुख हो कहीं घंटी बजा रही होती हैं|
9.प्रेम और विवाहेतर संबंधों को आप कैसा मानती है?
प्रेम तो जीवन की सबसे बड़ी खूबसूरत घटना है| यह इंसान को और बेहतर इंसान बनाती है| अगर आपका वैवाहिक जीवन ठीक है तो विवाहेतर सम्बन्ध ठीक बात नहीं| मुझे रिश्ते में विश्वास और भरोसा जरूरी लगता है| अगर रिश्तों में यह नहीं फिर तो सम्बन्ध विच्छेद ही ठीक है|
11/ क्या मातृत्व स्त्री के कैरियर के विकास का अवरोधक है?
हाँ, मौजूदा ढाँचे में अवरोधक है| आपने भी यह सवाल नहीं पूछा कि क्या पितृत्व पुरुष के कैरियर में अवरोधक है| क्योंकि हमारा सामजिक ढांचा ऐसा है कि सारी जिम्मेदारी औरत की मान ली जाती है| मेरी बहन जो नौकरीपेशा है वो हमेशा कहती है कि एक बार बच्चा हो गया फिर तुम मायके ससुराल कहीं जाओ वो तुम्हारे साथ ही रहता है| ऐसा नहीं है कि बाप अपनी औलाद को प्यार नहीं करता पर वह जिम्मेदारियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता| छः माह के बच्चे का बाप उसे घर छोड़ दोस्तों के साथ फिल्म चला जाता है, महीने भर की बिजनेस ट्रिप पर चला जाता है| माँ के लिए यह मुश्किल है| अगर वो जाती भी है तो उसे मिनट मिनट यह फ़िक्र रहती है कि बच्चे ने खाना खाया या नहीं, गीले कपड़ों में तो नहीं है, ढंग से सोया तो है| पर अब कुछ परिवारों में स्थिति बदली है| मेरी सहकर्मी जब एक माह की ट्रेनिंग पर मेरे साथ थी तब नौ माह के उसके बच्चे को उसकी सास और पति ने संभाला| यदि औरतों को अपने साथी और परिवार का ऐसा सहयोग मिले तो मातृत्व उनके करियर के विकास का अवरोधक न बने| एक और सहकर्मी जो पहले प्राइवेट सेक्टर में काम करती थी उसे जब पता चला कि वो माँ बनने वाली है तब अपने बच्चे को बेहतर भविष्य देने के लिए उसने खूब पढाई की और अफसर बनी| मातृत्व ऐसा ही तो होना चाहिए| जब माँ बच्चे के भविष्य के सपने देखे न कि बच्चा उसे बोझ लगने लगे|
12/ पुरुष की स्त्री के जीवन में कितनी और क्या भागीदारी दिखती है?
कायदे से तो यह उतनी ही होनी चाहिए जितनी एक पुरुष के जीवन में स्त्री की भागीदारी होती है| पर पुरुष ज्यादातर कामचोरी कर जाते हैं| खुद तो बड़े बड़े ओहदों पर पहुँच जाते हैं लेकिन साथ चल रही स्त्री को पीछे छोड़ देते हैं| हालाँकि अपवाद सभी जगह हैं|
इस मामले में मुझे पढ़े लिखे घाघ ज्यादा शातिर लगते हैं| उनकी तुलना में तो मुझे वो अनपढ़ बाप ज्यादा सम्मानीय लगता है जो अपनी बेटी को साइकिल की करियर पर बिठा कर स्कूल में ले जाता है|
१३/ स्त्रियों की दृष्टि क्या संकुचित और एकांगी है? यदि नहीं तो उनकी भागीदारी, रुचि और हस्तक्षेप पुरुषों की अपेक्षा राजनीति, समाज , देश दुनिया आर्थिक मामलों आदि में क्यों न के बराबर है?
बिलकुल ऐसा नहीं है| हमारे घर शुरू से अखबार आता था| पहले दादा बाहर सोफे पर बैठे पढ़ते थे, फिर पिता| इस बीच माँ रसोई में चाय नाश्ता बनाती| फिर पापा अखबार लिए दूकान चले जाते| न तो अख़बार किचन तक पहुँच पाता न माँ बाहर के सोफे तक|
अधिकाँश स्त्रियों की दुनियां एकांगी हैं क्योकि उन्हें जीवन के क्षेत्रों से अलग कर रखा गया| बल्कि समाज एकांगी और संकुचित है और उसने स्त्रियों को बहुत कम मौके दिए हैं| जिन स्त्रियों को मौके मिले उन्होंने हर फिल्ड में झंडे गाड़े| फिर चाहे वो मार्गेट थेचर, इंदिरा गांधी, सुनीता विलियम्स, गीता गोपीनाथन, अरुंधती राय जैसी महिलाएं इसका उदाहरण हैं
१४/ सोशल मीडिया ने स्त्रियों को कितना प्रभावित किया है?
सोशल मीडिया ने अचानक से स्त्रियों को आभासी ही सही लेकिन एक सोसाइटी से जोड़ दिया| जो स्त्रियाँ गली के नुक्कड़ पर खड़े अपने पुरुष मित्र से बाते नहीं कर सकती थी वो सोशल मीडिया पर दोस्त बना सकती हैं, अपने विचारों को व्यक्त कर सकती हैं| शुरुआती दिनों में लड़कियों ने प्रोफाइल पिक की जगह टेडी बियर या फूलों की तस्वीर लगाई| फिर अपनी लगाने लगी| अब तो वो काफी एक्टिव हैं वहां पर|
एक प्रभाव यह भी हुआ कि लड़कियों/स्त्रियों के लिए दुनियां थोड़ी बड़ी हुई| मेरे फेसबुक इनबॉक्स में लड़कियां कभी कॉलेज या परीक्षाओं के बारे में पूछती हैं तो कई बार पूछती हैं कि लेखक कैसे बनते हैं| एक और चीज मैंने देखी, मैं जहाँ से आती हूँ वहां शादियों में आर्केस्टा का बड़ा प्रचलन था| आर्केस्टा में जब लड़कियों नाचती तो लड़के बड़ी ओछी टिप्पणियां या हरकतें करते| परिवार की लड़कियां शादियों में नाचना तो दूर, बरात में जाती भी नहीं थी| इधर मैंने देखा गाँवों में भी शादियों में घर परिवार की लड़कियां जा रही हैं, झूम रही हैं, डांस कर रही हैं| यह प्रभाव भी सोशल मीडिया पे आ रहे विडियोस का ही लगता है| कमोबेश बदलती दुनियां के साथ थोडा तालमेल बिठा पा रही हैं स्त्रियाँ| हाँ, थोड़ी बहुत मुश्किलें भी बढ़ी हैं, सोशल मीडिया पर स्टॉकिंग, थ्रेटेनिंग जैसी बाते भी हो रही हैं लेकिन वहां ब्लॉक करने का एक विकल्प भी होता है जो असल जिन्दगी में नहीं होता|
15. पसंदीदा पुस्तक और फिल्म
वर्जिनिया वूल्फ की किताब ‘अ रूम ऑफ़ वंस ओन’ का बहुत गहरा प्रभाव मेरे ऊपर रहा| मुझे लगता है कि हमे खुद के साथ वक्त गुजारना सीखना चाहिए| फिल्मों की शौक़ीन हूँ- कान्तार, तुम्बाड, कांजीवरम, आई एम, द टेस्ट केस, द ग्रेट इन्डियन किचेन, डिस्नी की मोआना, ब्रेवो जैसी फिल्मे हाल फिलहाल के वर्षों में पसंद आयी हैं|
१८/ परिवार से अलग एक व्यक्ति और एक स्त्री के तौर पर आप अपने को कितना समय दे पाती हैं?
इस मामले में मैं सेल्फिश हूँ या यू कहूं कि खुद को सबसे ज्यादा महत्त्व देती हूँ| मेरा मानना है कि प्रकृति ने मुझे मेरा जीवन अकेले दिया है तो यह सिर्फ मेरी जिम्मेदारी है कि मैं खुद का भरपूर ख्याल रखूँ| मेरे लिए मेरे परिवार से पहले मैं आती हूँ| मुझे ऐसा लगता है कि हम लड़कियां/औरतें एक मिथ में जीती हैं कि अगर हम न रहे तो परिवार कैसे चलेगा और कि हम ही परिवार की धुरी हैं| वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है| यदि कल को परिवार की महिला की मौत हो जाए तो परिवार वाले उसका विकल्प तुरंत तलाशेंगे| बेटे की दूसरी शादी करा लेंगे, मेड लगा लेंगे या फिर परिवार वाले ही थोड़े और जिम्मेदार हो जायेंगे| तो फिर हमारे जीते जी ऐसा कर पाना क्या इतना मुश्किल है|
१७/ आपके लिए मित्र ।
बहुत सारे हैं| पर साफ़ मन के आदमी/ औरत/ अन्य से चाहे उसकी विचारधारा जो भी रहे बात करने में आसानी होती है|
२०/ यौनिक शुचिता को लेकर लंबे समय से बहसें चली आ रही हैं..आप उसे कैसे देखती हैं?
पहले तो यह शब्द बड़ा भारी भरकम है| अरे औरत जब इतनी छोटी सी चीज आपकी नजर में तब उसकी यौनिक सुचिता को लेकर इतनी घनघोर चिंता क्यों| उसका जीवन है, उसका फैसला होगा| उसका शरीर है उसका अधिकार होगा| मैं या दुसरे लोगों को क्या अधिकार है भला किसी और के यौन जीवन से संबंधी निर्णयों पर बोलने का| फिर शुचिता शब्द एक आडम्बर से अधिक कुछ नहीं|
२२/ आपकी सबसे बड़ी ख्वाहिश?
अपने कमाए पैसों से अपने लिए एक घर बनाना, एक बार पूरी दुनियां घूमना और खूब पढ़ना|
२३/ क्या कभी ये ख्याल आता है कि काश ऐसा न होता तो कुछ यूं होता?
पहले लगता था कि अगर पिता की असमय मृत्यु नहीं हुई होती तो ज्यादा अच्छा होता| अभी ऐसा नहीं लगता| कुछ चीज़े हुई, उन्हें रोका नहीं जा सकता था|
२४/ स्त्रियों को कमज़ोर क्यों कहा जाता है?
कुछ लोगों को बकवास करने की आदत होती है| इसलिए वो ऐसा कहते हैं| कुछ के मेल इगो को ऐसा कहकर संतुष्टि मिलती है इसलिए ऐसा कहते हैं| कुछ कूड़ेदान की तरह के होते हैं| वो दुसरे की कही अनाप शनाप बात को दोहराते हैं| कुछ स्त्रियों का खुद पर भरोसा ही नहीं बन पाया होता है तो वो खुद को कमजोर मानती है| लब्बोलुआब यह कि अज्ञानता वश कुछलोग ऐसा कहते हैं|
हालाँकि कुछ जगहों पर वाकई ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्रियाँ कमजोर हैं लेकिन अगर बहुत बारीकी से देखा जाए तो उन जगहों पर सिस्टम ही ऐसा होता है कि स्त्रियाँ कमजोर हो जाए| अब रात को स्त्री बाहर नहीं निकल पा रही तो इस वजह से नहीं कि उन्हें निकलना नहीं आ रहा बल्कि इस वजह से कि रात में अपराध दर बढ़ जाती है|
२५/ आज स्त्री शोषण के तरीके बदले हैं..शोषण आज भी है..आपको क्या लगता है एक आत्मनिर्भर शिक्षित युवती के शोषण की सबसे बड़ी वज़ह क्या होगी?
एक समय तक हमारे घर के पुरुष स्त्रियों को घर से बाहर निकलने नहीं देना चाहते थे कि उन्हें लगता था कि कोई उनका फायदा उठा लेगा, या उन्हें परेशान करेगा| उन्हें ऑफिस पॉलिटिक्स या सेक्सिस्ट टिप्पणियां झेलनी पड़ेगी| आज जब स्त्रियाँ बाहर निकल रही हैं उन्हें वो सब झेलना पड़ रहा है लेकिन बदलाव भी आ रहे हैं|
हम बहेलियों के डर से पक्षियों को पिंजरों में तो कैद नहीं करते न|
कामकाजी स्त्रियों की अलग तरह की समस्याएं हैं| कुछ घर की कुछ उनके कार्यक्षेत्र की| घर की समस्या कि उन्हें दोहरा काम करना पड़ता है| घर के पुरुष ने उन्हें ‘काम करने की अनुमति’ इस शर्त पर दे रखी है कि उनके जॉब का असर घर पर नहीं पड़ेगा| दूसरी समस्या कि खुद के कमाए पैसे पर उनका खुद का नियंत्रण नहीं है| हालांकि दोनों चीजे अब बदल रही हैं|
वर्कप्लेस के साथ मशला ये हैं कि चीजे औरतों की जरूरत के हिसाब से नहीं हैं| कई दफ्तरों में अब तक टॉयलेट्स नहीं हैं| कई पुरुषों को औरतों के साथ काम करने का सलीका नहीं हैं| बात करने के नाम पर वो बस इतना कह सकते हैं कि मैडम कुछ बना कर खिलाईए न अपने हाथ से| फिर करैक्टर एसैसिनेशसन करने का भी बड़ा शौक होता है कुछ लोगों को| लेकिन फिर से वही बात दोहराउंगी कि चीजे बदल रहीं हैं|
कुछ घर और वर्कप्लेस के बीच के भी मसले हैं|
Nice, Interview
Bahut accha boli ho chhoti..mere liye bahut khushi ki baat hai ki hamari chhoti itni badi ban gayi hai … bahut bahut badhaiya..or dher sara pyar.
Bahut badhiya boli hain chhoti ji👍👏👏
Bahut acha boli hain chhoti ji 👍👏👏
बेहद ज़रूरी बातचीत। सहज और सटीक उत्तर।