प्रकृति करगेती से अनुराधा गुप्ता की बातचीत
2015 में कहानी ‘ ठहरे हुए से लोग’ के लिए राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान प्राप्त कर हिंदी साहित्य की दुनिया में एक मजबूत जगह बनाने वाली प्रकृति करगेती बेहद ऊर्जावान व डायनेमिक लेखिका हैं। उनका लेखन साहित्य, पत्रकारिता से होते हुए अब सिनेमा के नए क्षितिज तलाश कर रहा है।
उनसे हुआ एक बेहद आत्मीय व गंभीर संवाद शब्दबिरादरी में स्त्री लेखिकाओं से साक्षात्कार श्रृंखला के लिए प्रस्तुत है।
1.अपने बारे में कुछ बताएं। बचपन से लेकर अब तक की यात्रा के वे कुछ हिस्से जो आप हम सबसे साझा करना चाहें।
मेरा जन्म उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव बासोट में हुआ। मैं भाई-बहनों में सबसे छोटी हूँ। मम्मी की शादी बहुत जल्दी हो गई थी। लेकिन शादी के बाद भी उन्होंने पढ़ना नहीं छोड़ा। बच्चे होने के बाद भी ऍम.ए किया। घर में ढेर सारी किताबें थीं। आते जाते मैंने भी पढ़ लीं। लेकिन एक दिन अजीत कौर की खानाबदोश पढ़ी तो उसी के साथ कितने दिन निकल गए। मुझे अब भी याद है कि मैं अपने घर के बीच के कमरे में बैठी थी। उस कमरे को हम चक कहते हैं। तो चक में किताबों की दराज के ठीक नीचे बैठकर मैंने जाना कि ज़िन्दगी कहाँ कहाँ ले जा सकती है और किताबें घर बैठे हुए उन जगहों की, उन अनुभवों की एक छोटी सी यात्रा करा सकती हैं। मैंने इस याद को तबसे संभालकर रखा है।
- अब तक के जीवन का कौन सा दौर आप को सबसे अधिक पसंद है?
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए कॉलेज का दौर बहुत याद आता है। एक अलग तरह की चेतना थी। ऊर्जा थी। प्यार भी इसी शहर में हुआ। उस समय दिल्ली की हवा ज़्यादा साफ़ लगती थी। गर्मियों में अमलतास के झरनों को देखना। सर्दियों में कुड़कुड़ाना। फरवरी में सेमल के लाल फूल। बाज़ारों की रंगत। सब कुछ बहुत ख़ूबसूरत था।
- आप की पहली कौन सी रचना थी जो पब्लिक फोरम में आई?
हंस में ‘उग्रवाद’ कविता छपी थीं। फिर कुछ समय बाद ‘ठहरे हुए से लोग’ छपी जिसे ‘राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान’ मिला।
- आप को क्या कभी ये लगा कि आप अपने साथ की बाकी लड़कियों से कुछ अलग सोचती हैं?
कई बार लगा। मैंने ये भी सुना कि ‘तू बाक़ी लड़कियों जैसी नहीं है।’ उस वक़्त शायद मैंने इसे सराहना कि तरह देखा हो। लेकिन अब मैं इसे सराहना की तरह नहीं देखती। ‘तुम ऐसी-वैसी लड़की नहीं लगती।’ ‘ तुम अलग हो।’ ये सारी बातें छल हैं। ऐसा लगता है कि कोई बन्दर है जो बिल्लियों की लड़ाई करवाना चाहता है ताकि रोटी उसके हाथ लग जाये। पर मुझे अपनी बिरादरी की सभी बिल्लियाँ पसंद हैं। हम सब अलग हैं, लेकिन जुड़े हुए हैं।
- आज के समय में जब आप एक आधुनिक और प्रगतिशील परिवेश और समय से जुड़ी हुईं हैं तब आपको अपने आस पास क्या चीज़ सबसे अधिक तनाव देती है?
कचरा। ढेर सारा कचरा जिसके पहाड़ बन जाने पर मैं जानती हूँ इस पहाड़ की रचना में मेरा भी उतना ही हाथ है। मैं भी उपभोगी हूँ।
- आप के लिए स्त्री – पुरुष का सम्बन्ध किस रूप में और क्या मायने रखता है? ऐसे में विवाह संस्था को आप कैसे देखती हैं?
विवाह हो या कोई भी संस्था, उसका एक मकसद होता है। समाज में ऑर्डर लाना। लेकिन दुनिया भर में आप देख लीजिये हर संस्था के पीछे जो संस्थापक होते हैं वो सत्ता के भूखे हो जाते हैं। विवाह संस्था पर पितृसत्ता हावी है। स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध या समलैंगिक संबंधों की बुनियाद अगर प्यार पर टिकी रहे तो सृजन होता रहेगा। लेकिन हमारा समाज जिस पेचीदा बुनावट के साथ आगे बढ़ रहा है, प्यार की हमारी समझ भी उतनी ही पेचीदा होती जा रही है। हमारे सारे रिश्ते बाज़ार से प्रभावित हैं।
- क्या आपको लगता है कि आज के समय का स्त्री विमर्श भटक गया है.या ये स्थिति शुरू से ऐसे ही रही है?
मैंने अकादमिक लिहाज़ से स्त्री विमर्श नहीं पढ़ा है। मेरी समझ आसपास के परिवेश से यह बनी है कि कभी कभार सशक्तिकरण के नाम पर कुछ खोटी चीज़ें परोस दी जाती हैं। मर्दानी कह देने से मैं सशक्त नहीं बन सकती। क्योंकि इस शब्दावली से यही झलकता है कि श्रेष्ठता का पैमाना मर्द ही है। अब एक तरफ़ जहाँ ऐसा होता है, वहीं दूसरी तरफ़ अल्जीरिया की बॉक्सर ईमान ख़लीफ़ की लैंगिकता पर सवाल इसलिए उठाया जाता है क्योंकि सामने लड़ रही औरत को उनका पंच मरदाना लगता है। इस ‘मरदानेपन’ पर कितने लोगों ने सवाल उठाये और उनका मैडल भी वापस माँगना चाहा। ये दुहराव मुझे भटकाव ही लगते हैं। जब तक औरत की हर अभियक्ति को अपनाया नहीं जायेगा तब तक ये भटकाव आते ही रहेंगे।
- एक स्त्री होने के नाते आपको क्या लगता है कि स्त्री को सबसे अधिक किसने ठगा है?
हर उस इंसान ने जिसने उसे बार बार याद दिलाया कि वो एक औरत है और उसे नियमों की लम्बी चौड़ी फेहरिस्त थमा दी।
- प्रेम और स्त्री के विवाहेतर प्रेम संबंधों को आप कैसे देखती हैं?
विवाहेतर सम्बन्ध में नुकसान सबसे ज़्यादा उस साथी का होता है जो साथी अब भी दूसरे साथी से प्यार करता है। एक साथी अपनी नई दुनिया बना चुका है। लेकिन दूसरे साथी को पता ही नहीं। वो इस धोखे से टूट जाता है। लेकिन समझदारी इसी में है कि हम अपने आत्म सम्मान को प्रमुखता देते हुए ज़िन्दगी में आगे बढ़ें।
- एक स्त्री की सबसे बड़ी ताकत और कमजोरी क्या लगती है?
उसका शरीर उसकी कमज़ोरी और ताक़त दोनों ही हैं। स्त्री बहुत सारा दर्द झेल सकती है। पोषण देती है। उसका शरीर ज़िन्दगी की लय को ख़ूबसूरती से पकड़ता है। लेकिन फिर उसके शरीर को घूरती हुई नज़रें उसे दबोच भी लेती हैं। दोष उसके शरीर को ही दिया जाता है। इन सब में मैं स्त्री को बेचारी नहीं कह रही हूँ। बेचारा तो वो है जो अपना आपा खो बैठा और दरिंदगी पर उतर आया। वो दया का पात्र है। औरत तो खड़ी हो जाएगी। आज़ाद हो जाएगी। लेकिन आदमी अपने दोजख में घूमता रहेगा।
- क्या मातृत्व स्त्री के कैरियर के विकास का अवरोधक है?
अवरोधक तब बनता है जब साथी सहयोग देने में आनाकानी करे। मिलजुल कर ज़िम्मेदारी लेने से दोनों का करियर सँवर सकता है।
- पुरुष की स्त्री के जीवन में कितनी और क्या भागीदारी दिखती है?
इस सवाल के अलग पहलू भी हैं। लेकिन मैं इस सवाल का जवाब सिर्फ़ और सिर्फ़ दांपत्य जीवन को ध्यान में रखकर दे रही हूँ। मुझे लगता है कि स्त्री और पुरुष का रिश्ता घोर असंतोष से घिरा हुआ रहता है। वो एक दूसरे के तत्वों से आकर्षित भी होते हैं और चिढ़ते भी हैं। अक्सर आदमी नियंत्रित करने की प्रवृति के साथ स्त्री के जीवन में भागीदार बनता है। उस लिहाज़ से वो भागीदार कम, मालिक ज़्यादा बन जाता है। लेकिन होना यूँ था कि दोनों ही यिन और यांग की तरह एक दूसरे को पूरा करें।
- स्त्रियों की दृष्टि क्या संकुचित और एकांगी है? यदि नहीं तो उनकी भागीदारी, रुचि और हस्तक्षेप पुरुषों की अपेक्षा राजनीति, समाज , देश दुनिया आर्थिक मामलों आदि में क्यों न के बराबर है?
किरण मजूमदार शॉ, विनीता सिंह, महुआ मोइत्रा, गीतांजलि श्री, गुनीत मोंगा, अनुपमा चोपड़ा, फ़े डिसूज़ा , हैन कैंग, सुनीता विल्लियम्स, विनेश फोगाट और कितने सारे नाम हैं। ये छोरियाँ छोरों से कम हें के ? ये सभी अपने क्षेत्र में बेहतरीन हैं। क्योंकि शुरुआत ही देर से हुई है, इसलिए नंबर कम हैं। लेकिन ये बस समय की बात है।
- सोशल मीडिया ने स्त्रियों को कितना प्रभावित किया है?
सोशल मीडिया ने हम सभी को प्रभावित किया है। सोशल मीडिया एक तरह की लत भी है। वो घुसपैठ भी करता है। ये उसका नकारत्मक प्रभाव है। लेकिन सकात्मक प्रभाव में मुझे लगता है कि सोशल मीडिया ने औरतों को मंच दिया है। सोशल मीडिया एक लोकतान्त्रिक माध्यम है। हर तबके के लोग, अलग अलग परिवेश से आये हुए लोग ख़ुद को अभियक्त करते हैं। मैंने कितनी सारी ऐसी रील देखी हैं जिसमें शहर में काम करती मज़दूर औरतें खुलकर नाच रही होती हैं, या कुछ और करते हुए कंटेंट बना रही होती हैं। कितनी सारी कंटेंट क्रिएटर्स हैं, जिन्होंने माँ बनने के अपने अनुभव को साझा किया। इससे देखने वालों को ज्ञान मिला। और कंटेंट क्रिएटर माँ को कई सारी ब्रैंड डील्स। सोशल मीडिया कमाई का ज़रिया बन गया है।
- आप की पसंदीदा फिल्म और पुस्तक ।
मुझे फ़िल्म और किताबें बेहद पसंद हैं। बल्कि एक स्क्रिप्टराइटर होने के नाते मैं फिल्म की स्क्रिप्ट भी पढ़ती हूँ। सिर्फ़ एक फिल्म और एक क़िताब का नाम नहीं बता पाऊँगी। फिल्मों में लंचबॉक्स, मिस्टर इंडिया, पिनोकिओ, शोले, रॉकेट सिंह, आनंद, ड्यून वगैहरा पसंद हैं। किताबों में दीवार में एक खिड़की रहती थी, घाचर घोचर, डिस्ग्रेस, लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलेरा वगैहरा पसंद हैं।
- आपकी निकट भविष्य की योजना।
लिखना और बस लिखते जाना।
- आपके लिए मित्र ।
जो अनकहे को भी समझ ले वो मित्र।
- परिवार से अलग एक व्यक्ति और एक स्त्री के तौर पर आप अपने को कितना समय दे पाती हैं?
मैंने इस बात को हमेशा प्राथमिकता दी है। बल्कि हमारी पीढ़ी अपने दायरों को अच्छे से सहेज कर रखती है। हमारे दायरे को पार वही करता है जिसे हम इजाज़त देते हैं। हम भी तभी जाते हैं, जब हमें इजाज़त मिलती है। अपना ख़याल रखना, अपने लिए समय निकालना और इस बात को विनम्रता से दूसरों से कह पाना, बहुत ज़रूरी है।
- ऐसी कौन सी चीज़ या अवस्था है जो आपको दम घोंटती प्रतीत हो?
किसी भी कारण से न लिख पाना दम घोंटती अवस्था है।
- यौनिक शुचिता को लेकर लंबे समय से बहसें चली आ रही हैं..आप उसे कैसे देखती हैं?
यौनिकता व्यक्तिगत मामला है। सभी को यौनिकता के बारे में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार है। लेकिन दो या तीन शादियाँ कर लेना, या अपने प्रेमी/ प्रेमिका या जीवनसाथी के साथ बेवफ़ाई करना, ऐसी प्रवृति को में यौनिक स्वतंत्रता से कोसों दूर रखना चाहूँगी । लेकिन ये बात मैं यौनिक शुचिता का दामन पकड़कर नहीं कह रही, बल्कि शिष्टाचार के लिहाज़ से कह रही हूँ।
- हिंदी साहित्य के स्त्री लेखन ने आपको कितना प्रभावित किया और वर्तमान समय में आप उसे कहां पाती हैं?
मैंने कृष्णा सोबती जी को पढ़ा। उनकी भाषा में एक तरह का उछाल महसूस किया। एक पाठक के तौर।
उन्हें पढ़ते हुए खूब आनंद आया। प्रभाव की बात करूँ तो जिस क़िताब ने सबसे गहरा प्रभाव छोड़ा है
वो है अजीत कौर की ख़ानाबदोश, जिसे मैंने हिंदी में पढ़ा। लेकिन वो मूलतः पंजाबी में है। वर्तमान समय
में अलका सराओगी, मृदुला गर्ग, गीतांजलि श्री , जैसी वरिष्ठ लेखिकाएं नारीवाद को वैश्विक संदर्भों में
भी प्रस्तुत कर रही हैं। बेशक हिंदी साहित्य के स्त्री लेखन का कैनवास बढ़ रहा है।
- आपकी सबसे बड़ी ख्वाहिश?
अपने पहाड़ के बारे में एक ऐसा उपन्यास लिखूँ जो मेरे ही नहीं , बल्कि मेरी माँ, दादी और नानी के अनुभवनों का निचोड़ हो।
- क्या कभी ये ख्याल आता है कि काश ऐसा न होता तो कुछ यूं होता?
कई बार आता है। अगर ग़ालिब को सदियों पहले ये लग सकता है तो मैं तो उपभोगतावाद में विकल्पों से घिरी हुई हूँ। मुझे और मेरी पीढ़ी को ये ख़याल आना बार बार स्वाभाविक है। हम सभी असंतोष से भरे हुए हैं।
- स्त्रियों को कमज़ोर क्यों कहा जाता है?
कुछ तो लोग कहेंगे। लेकिन क्या फ़रक पड़ता है! औरतें अपने लिए कब से लड़ रही हैं। क्या कमज़ोर इंसान में इतना संयम होता है?
- आज स्त्री शोषण के तरीके बदले हैं..शोषण आज भी है..आपको क्या लगता है एक आत्मनिर्भर शिक्षित युवती के शोषण की सबसे बड़ी वज़ह क्या होगी?
आत्मनिर्भर शिक्षित युवती जिस रास्ते पर चल रही है वो पहले पथरीला था। उससे पहले की पीढ़ी ने ख़ूब मेहनत कर उसपर चलने लायक रास्ता बनाया है। जिस दिन वो ये भूल जाए और उस रास्ते को आसानी से छिन जाने दे, उस दिन से उसका शोषण पुनः शुरू हो जायेगा। कदम कदम पर ऐसे तत्त्व हैं जो ऐसा कर सकते हैं। इस रास्ते पर चलते हुए आदमियों द्वारा तैनात औरतों से भी लड़ना पड़ सकता है, जो सभ्यता, संस्कृति और संस्कार के नाम पर आपका दम घोंट सकती हैं।
अच्छे जवाबों के लिए अच्छे सवाल होना भी जरूरी है साबित हो रहा है इस साक्षात्कार से।
अच्छे जवाबों के लिए अच्छे सवाल होना भी जरूरी है साबित हो रहा है इस साक्षात्कार से।
बेहद अहम मुद्दों पर बातचीत, एक खूबसूरत और सारगर्भित अंदाज़ में…
सधे हुए उत्तर और उम्दा प्रश्न