बीमारी की हालत में जयन्ती लाल को बिस्तर पर पड़े-पड़े आज छठां दिन था। इस बीच बीमारी, थकान और कमजोरी के कारण वे दैनन्दिन के अपने छोटे-से-छोटे कार्य के लिए भी पत्नी पर निर्भर हो गये थे। इन छः दिनों में उनकी पत्नी रचना ने उनकी सेवा-सुश्रुषा में कोई कमी नहीं रखी थी। दिन-भर में दसियों बार माथे पर पानी की पट्टी रखना। डाॅक्टर के बताए अनुसार, अस्पताल से थोड़ी दूर स्थित अपने घर जाकर दिन में तीन बार, घर के बने हल्के-फुल्के, ताजे-गर्म नाश्ते के बाद समय से दवाइयां देते रहना। बीच-बीच में बेड के गन्दे चादर बदलते, नये धुले चादर बिछवाना। उनके शरीर को पोंछ कर गन्दे कपड़े बदलते रहना। साथ ही कड़कड़ाती ठण्ड में घर में साफ-सफाई, बच्चों को खिला-पिलाकर समय से स्कूल भेजना, स्कूल से आने पर उनका होमवर्क पूरा कराने में भी मदद करते रहने जैसी दिनचर्या देखकर, बिस्तर पर पड़े-पड़े जयन्ती लाल को ऐसा लग रहा था कि ये सब कार्य यंत्रवत निबटाते उनकी पत्नी मानव नहीं, कोई रोबोट हो। यह सब सोचते उनके चेहरे पर आये आत्मदया-भाव के साथ ही पत्नी का हाथ न बंटा पाने के व्यर्थता-बोध को भी साफ-साफ महसूस किया जा सकता था।
लगभग एक सप्ताह बाद आज उन्हें अपनी तबियत कुछ ठीक लग रही थी। नाश्ते आदि के बाद उन्होंने सामने टेबल पर पड़ा अखबार उठाकर पढ़ना चाहा। पूरा अखबार ठगी, फर्जीवाड़ा, उत्पीड़न, अतिक्रमण, चैराहों पर जाम के झाम, एम्बुलेंस जाम में फंसी, अस्पतालों में हैरान-परेशान मरीजों की भींड़, तीमारदारों से झड़प, शादी से इन्कार करने पर सरेराह छेड़छाड़, नववर्ष के स्वागत में शराब की रिकाॅर्ड तोड़ बिक्री, कोचिंग संस्थानों के लिए नीति बनेगी, अध्यापक-छात्रों के बीच मारपीट इत्यादि घटनाओं से सम्बन्धित खबरों से भरा पड़ा था। अखबार उलटते-पलटते, खबरों पर सरसरी निगाह डालते, अपना राशिफल पढ़ने के उपरान्त उन्होंने अनमने से अखबार को पुनः टेबल पर रख दिया।
वाॅर्ड से ही जुड़े बाॅथरूम में पत्नी द्वारा उनके गंदे कपड़ों को धोते हुए पानी गिरने की आवाज से जयन्ती लाल का ध्यान भंग हुआ था। चूंकि बाॅथरूम का दरवाजा खुला ही था, सो पीढे पर बैठी कपड़े धोते, बार-बार माथे को चूमती बालों की लटों को हाथों से हटाते हुए पत्नी के चेहरे पर कोई भी तनाव न देखते उन्हें अपनी पत्नी रचना पर आज बेतरह प्यार उमड़ आया।
उन्हें याद है जब वे शादी के लिए वाग्दत्ता रचना को देखने पहली बार उनके घर गये थे। पांच बहनों और दो भाइयों में सबसे बड़ी लड़की रचना की जो तस्वीर उन्हें दिखाई गयी थी, उस हिसाब से सामने साक्षात बैठी रचना पहली नजर में उन्हें कुछ खास नहीं लगी थी। जबकि उनके जेहन में वाग्दत्ता को लेकर ढ़ेरों फिल्मी तारिकाएं रची-बसी थीं। यद्यपि, रचना का पहनावा, मेकअप आदि ‘बहनजीनुमा’ तो नहीं था, लेकिन एक्स्ट्रा-माॅड भी नहीं था। शरमाते-संकुचाते, बीच-बीच में देशज भाषा में बतियाती, पुराने जमाने की तारिकाओं सी धज में सलवार-सूट पहने, दो चोटी सामने किये, सिर झुकाए बैठी थी। हां, रचना के चेहरे पर मोनालिसा की भांति रहस्यमयी मुस्कान जरूर पसरी दिखी थी।
बहरहाल…उन्हें याद है कि तमाम ना-नुकुर के बाद उन्हें शादी के लिए तैयार होना पड़ा था, जबकि शादी के दो सप्ताह पहले तक वे तमाम तरह के असमंजस में पड़े हुए थे। ऊपर से घर वालों, तमाम रिश्तेदारों का भारी दबाव अलग से था। उन्हें याद है कि एक रिश्तेदार ने तो…’अपमान रचयिता का होगा रचना को अगर ठुकराओगे…’ गुनगुनाते हुए उन्हें समझाने, अर्दब में लेने की कोशिश भी की थी। परन्तु उन्हें कौन समझाए कि जयन्ती लाल को इस शादी, वाग्दत्ता के रूप, गुण, माधुर्य, लावण्य आदि से परहेज नहीं था। अरस्तू के यह विचार तो उन्होंने हाल ही में पढ़े थे..”एक खूबसूरत चेहरे की कद्र इस दुनिया में सारी सिफारिशी चिट्ठियों से ज्यादा होती है।” बस्स, वे इसके लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पाये थे। जयन्ती लाल की चिन्ता कुछ अलग किस्म की भी थी। शादी की जो तिथि तय हो रही थी, उसके एक माह बाद ही प्रादेशिक सिविल सेवा की परीक्षाएं थीं। अपनी शैक्षिक योग्यता के अनुरूप पर्याप्त वेतन न होने के कारण, वर्तमान नौकरी से असंतुष्टि की वजह से वे लगातार तीन वर्ष से प्रतियोगी परीक्षाओं में सम्मिलित हो रहे थे, परन्तु किन्हीं-न-किन्हीं कारणोंवश, सतत प्रयासों के वाबजूद वे परीक्षा में अंतिम रूप से सफल नहीं हो पा रहे थे। वर्तमान नौकरी में अपर्याप्त वेतन होने के कारण, शादी के उपरान्त घर अच्छी तरह कैसे चलेगा? प्रतियोगी परीक्षाओं के अलावा उनके दिलोदिमाग में यह चिन्ता भी विद्यमान थी।
वाबजूद तमाम शंकाओं-आशंकाओं के उमड़ते-घुमड़ते बादलों के बीच, वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहे थे। उहापोह की स्थिति में शादी से पहले, वाग्दत्ता रचना को सपरिवार देखने जाने की रस्म से दो दिन पहले, कुछ जरूरी काम याद आने के बहाने वे अपनी नौकरी पर भरतपुर जाने के लिए बस-स्टेशन की ओर चल पड़े थे। ऐसा लग रहा था, मानो जयन्ती लाल का अपने मनोभावों पर कोई नियंत्रण ही न हो। बस-स्टेशन के वेटिंग-रूम में बैठे-बैठे उनके दिमाग में ढ़ेरों बातें चलने के दृष्टिगत, भरतपुर जाने वाली बस में बैठने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। चूंकि शादी के बारे में सोचते उनका चित्त एक जगह ठहर नहीं रहा था, शादी के लिए वे मन-मस्तिष्क को तैयार ही नहीं कर पा रहे थे, उसी उहापोह में उन्हें वेटिंग-रूम के बायें कोने में पड़ी खाली बेंच के बगल, बस की प्रतीक्षा में, हाथों में कोई किताब लिए अटैची पर बैठी एक लड़की दिखी। उसे देखते ही उन्हें काॅलेज के दिनों की सहपाठिनी कमलिनी की याद आ गयी। कमलिनी से मिलते-जुलते चेहरे को देखकर उन्हें घोर विस्मय हुआ। कमलिनी उनका पहला प्यार थी। काॅलेज के दिनों में वे उससे चाहत रखते थे, पर वो उन्हें चाहती थी या नहीं, वे कभी नहीं जान पाये। हां, कभी-कभी अपने प्रति कमलिनी के रूखे व्यवहार से उन्हें ये जरूर लगता था कि कहीं वो उनका एक-तरफा प्यार तो नहीं? परन्तु अगले ही पल वे अपने मन को यह कहते समझाते…’क्या पता लोकलाज के कारण उनके प्रति कमलिनी का व्यवहार ऐसा हो? आखिर, वे विजातीय भी तो थे।’ यही सब सोचते मन-मस्तिष्क में उठते ऐसे अस्पष्ट विचारों को वे परे ढ़केल देते।
उस दिन पता नहीं क्या सोचते, वेटिंगरूम में बस के इन्तजार में बैठी लड़की को देखते, उन्होंने मन-ही-मन इस तरह कल्पना की…मानो वे कमलिनी को गले लगाकर खूब प्यार करना चाहते हैं। पता नहीं, मन के किसी कोने में दबी कोई सुप्त भावना थी, या कुछ और…? बहरहाल, उस समय उन्हें अपनी शादी के बारे में सोचने की तनिक भी इच्छा नहीं हो रही थी।
हालांकि, परास्नातक की परीक्षाओं और उस शहर से पिताजी के स्थानान्तरण के उपरान्त, आगे की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी हेतु जयन्ती लाल के दिल्ली चले जाने के बाद तो मानो ये सब प्यार-व्यार, बीते दिनों की बातें हो गयीं। अब तो उन्हें यह भी नहीं पता कि कमलिनी किस हाल में होगी? कहां और किससे ब्याही होगी? उसके बच्चे होंगे तो कितने?
ऐसा भी नहीं कि शादी को लेकर अपने मन में चल रही दुविधाओं पर उन्होंने घर-परिवार-रिश्तेदारों और दोस्तों से कोई चर्चा या परामर्श-विमर्श करने की कोई कोशिश नहीं की थी? की थी। परन्तु, घर-परिवार वाले तो इस सन्दर्भ में बात करने से जैसे साफ-साफ मना कर देते। बगछुट सा हाव-भाव दिखाते दूर खड़े हो जाते।
कहते हैं...बातचीत से कोई-न-कोई रास्ता अवश्य निकल जाता है। मगर जयन्ती लाल के घर के लोगों का व्यवहार ऐसा था, मानो उनकी शादी का मुद्दा कोई गुरू-गम्भीर मसला ही न हो। परिवार में उनकी इच्छाओं-अनिच्छाओं की कोई अहमियत ही न हो। ऐसे में उनकी शादी को लेकर घर के लोगों का निर्णय उन्हें पूरी तरह अपने ऊपर थोपा हुआ सा लग रहा था, जबकि वे समझते थे कि अपनी जिन्दगी के फैसले लेने का उन्हें पूरा अधिकार है।
तिलक और शादी की तिथि तय हो जाने के बाद तो बहुत देर हो जायेगी। यही सोच उन्होंने पिता जी से सीधे न कहते, अम्मा से इस मुद्दे पर पुनर्विचार करने की बात कहीं। इस पर अम्मा ने जब पिताजी से विचार-विमर्श करना चाहा तो उन्होंने अम्मा को भी खूब खरी-खोटी सुनाते अच्छा-खासा लेक्चर पिला दिया…”जयन्ती से कह दो, घर में और भी जरूरी काम हैं। सिर्फ उसी के बारे में सोचते रहने की किसी को फुर्सत नहीं है। शादी करके ये जनाब, हम या लड़की वालों पर कोई एहसान नहीं करेंगे। वैसे भी आगे की जिन्दगी की राह में उसे खुद ही रास्ता बनाना है। अपने बारे में अच्छे-बुरे फैसले उसे खुद ही लेने हैं। हम हमेशा, हर मामले में हस्तक्षेप करने के लिए मौजूद थोड़ी न रहने वाले हैं। वैसे भी समय से शादी न होने पर जिन्दगी में कुछ-न-कुछ बुराइयां भी आने लगती हैं। फिर वही बुराई अगली किसी बुराई की जड़ होती है। फिर तो जीवन में बुराइयों का दुष्चक्र सा शुरू हो जाता है।” पिताजी जब-तब अपने खास लब्बोलहजे में लेक्चर झाड़ने के मूड में आ जाते।
लेकिन उनकी जिन्दगी का न्यायाधीश कोई और कैसे हो सकता है? वे क्यों नहीं? यही बात जयन्ती लाल को हर पल सालती रहती। दिमाग अजीब पशोपेश में था। जयन्ती लाल के पिता जी की यह खूबी भी थी कि दैनिक अखबार का एक-एक हर्फ जब तक पूरा चट नहीं कर जाते, वे किसी को पढ़ने के लिए नहीं दे सकते थे। उन्हीं किन्हीं दिनों एक रोज अखबार में नजर गड़ाए-गड़ाए ही उन्होंने जयन्ती लाल की अम्मा से कहा…’जब कभी भरतपुर जयन्ती के क्वार्टर पर जाता हूं, मैंने देखा है कि आधा-तिहा पेट खाना खाकर, सुबह-सुबह ऑफिस के लिए निकल जाता है। शाम को ऑफिस से लौटने में देर हो जाने पर ब्रेड-मक्खन या कुछ फाॅस्ट-फूड इत्यादि खाकर ही सो जाता है। इससे उसकी सेहत भी दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। दुबला-पतला तो पहले से ही था, अब तो और भी सूखता जा रहा है। उस चिरकुट से कहो कि जब पत्नी आयेगी, दो रोटियां तो बना कर देगी। उसका घर संभाल लेगी। उसका जीवन संवर जायेगा। जिन्दगी सुव्यवस्थित हो जायेगी। देखने में खाते_पीते घर का लगेगा। कम-अज-कम ठीक से दोनों टाइम उसे खाना तो मिलेगा, और क्या पता पत्नी की किस्मत से ही उसका सेलेक्शन प्रशासनिक सेवाओं में होना लिखा हो? यह शादी उसके लिए ‘ब्लेसिंग-इन-डिसगाइज’ सरीखी भी तो हो सकती है। कहा भी जाता है कि हर मर्द की कामयाबी के पीछे किसी-न-किसी औरत का हाथ होता है। फिर औरत-मर्द के बीच सही तालमेल से ही परिवार भी चलता है। जो आगे उनकी सफलता का बायस भी बनता है।’ पिता जी की ऐसी बातों से जयन्ती लाल का दिल और दिमाग पूरी तरह काम करना बन्द कर देते। काहे से कि ऐसे समय पिता जी से किसी तरह की बहसबाजी, तर्क-कुतर्क… ‘आ बैल मुझे मार’ सरीखे हो सकती थी।
बात न बनते देख एक दिन जयन्ती लाल ने खुद पहल करते पिताजी के सामने अपनी व्यथा-कथा कहते, उन्हें समझाने का निर्णय किया, तो उनकी मूल-भूत समस्या को समझने के बजाय उल्टे बिगड़ैलों की भांति मुंह बिदकाते-फुंफकारते हुए पिताजी का उत्तर था…”अरे! बकलोल…जब तुम्हारी शादी होगी, तभी तो शादी के लिए योग्य तुम्हारे बाकी बहन-भाइयों का भी नम्बर आयेगा? जब हम दूसरों के काम आयेंगे, मददगार होंगे, तभी कोई हमारे भी काम आयेगा, मददगार होगा। समझे कि नहीं समझे? कहते भी हैं…’अंधेरे-उजाले कैसी भी राहें हों, दुनिया को जानना हो, तो चलते रहो-चलते रहो। स्वयमेव मार्ग प्रशस्त होता जायेगा।’ आखिर…परेशानी क्या है तुम्हारी? अच्छी-खासी नौकरी तो है। जितनी तुम्हारी उम्र हो गयी है, हमारी इतनी उम्र में तो तुम तख्ती लेकर प्राइमरी पाठशाला में पढ़ने जाया करते थे। दो रिश्तेदारों, दो जानवरों सहित घर में जैसे तेरह लोग पल रहे हैं, एक प्राणी और सही…बुड़बक कहीं के?” तीखे तेवर दिखाते हुए, उनके पिता ने फैसलाकून अंदाज में रटारटाया प्रवचन देते अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली थी।
‘‘अरे! सींकिया पहलवान जी, फालतू मगजमारी के बजाय इस समय प्रोटीन युक्त डाइट, अण्डा, दूध इत्यादि पौष्टिक भोजन लेते रहना। यही खाया-पिया मौंके पर काम आयेगा।” इस मुद्दे पर जयन्ती लाल जब अपने दोस्तों से चर्चा करते तो वे सब इसे उनकी गुरू-गम्भीर समस्या न मानते, हंसी-मजाक का विषय बनाते, किसिम-किसिम की लड़कियों के चाल-ढ़ाल, नाज-नखरे आदि की सोदाहरण सी व्याख्या करते, साभिनय प्रस्तुतियां देते, ढ़ेरों अच्छे-बुरे गुण बताते, अनापशनाप सुझाव दे डालते। एक जनाब ने तो बाजीकारक, पथ्य-अपथ्य खाद्य पदाथों आदि की लम्बी-चौड़ी लिस्ट बताते, नव-दम्पतियों के लिए किसी मर्मज्ञ आचार्य की, किसी अच्छे प्रकाशन की मोटी सी किताब पढ़ने वास्ते नाम भी सुझाया था, जिसका नाम फिलवक्त याद नहीं आ रहा। इन सबमें सबसे आश्चर्यजनक और गौरतलब बात तो यह भी थी कि जयन्ती लाल जी के वे सभी कुंवारे दोस्त ऐसे सुझाव दे रहे थे, जैसे वे सभी पुराने शादी-शुदा, पर्याप्त अनुभवी हों।
इस तरह जयन्ती लाल ने साफ तौर पर महसूस किया कि उनकी शादी के मसले पर जहां एक तरफ उनके घर-परिवार वालों के पास बतियाने-चर्चा करने की फुर्सत नहीं थी, वहीं दूसरी तरफ दोस्तों के पास सामान्य व विशिष्ट प्रकार के सुझावों की कोई कमी न थी।
बहरहाल…’बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती…?’ कहावत के मद्देनजर जयन्ती लाल की सारी कवायदें धरी-की-धरी रह गईं। चूंकि, वाग्दत्ता संग अंतरंगता को लेकर जयन्ती लाल जी के मन में भी एक अनजान सी यौनिक उत्कंठा, एक मीठा-मीठा आकर्षण-सा तो था ही। क्या पता शादी के बाद ही जिन्दगी में कुछ अच्छा हो जाये? जिन्दगी की गाड़ी व्यवस्थित होते पटरी पर आ जाये? यही सब सोचते उन्होंने मन मारकर, शादी के बारे में अपनी सहमति दे दी थी। कालान्तर में परिवार और रिश्तेदारों के बीच शादी से पूर्व की सामान्य औपचारिकताओं के उपरान्त, दोनों परिवारों की आपसी सहमति के आधार पर शुभ-मुहुर्त में एक दिन उनकी शादी भी हो गयी।
शादी के बाद जयन्ती लाल को जब अपनी पत्नी रचना के रूप-गुण को नजदीक से जानने-समझने का अवसर मिला तो उन्हें इस बात का बेहद अफसोस हुआ कि तत्समय उनका शादी न करने का निर्णय कितना गलत था? शायद इसीलिए कहा गया है…’हर बादल के पीछे एक सुनहरी चमक होती है।’ पहली बार उन्होंने या कह लीजिए उन दोनों ने एक-दूसरे को भर-भर निगाह देखा था। उन्हें याद है, शादी के बाद के कुछ दिनों वे पूरे समय पत्नी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए उन्हीं के इर्द-गिर्द चक्कर काटते रहते। कभी-कभी तो पारिवारिक सदस्यों की नजरें बचाते, कमरे में आते-जाते पत्नी से चुहलबाजी करते, उन्हें अचानक अंकवार में भी भर लेते, जिससे उनकी पत्नी चिहुंक सी जाती। घर के सदस्यों से नजरें बचाते उन दोनों का लिपटना-चिपटना तो सामान्य था। उन्हें तो अभी भी याद है कि शादी के बाद पहली बार होली पर पत्नी के मायके चले जाने पर, मन में दबी-छिपी किसी भावनावश उन्होंने अपनी पत्नी को दो पन्ने का एक प्रेम-पत्र भी लिखा था, जिसे उनकी पत्नी ने अभी भी संजोकर रखा है। जिसे वो जब-तब रस ले-लेकर पढ़ती, उन्हें चिढ़ाती भी हैं। इस तरह उनके दिन…’चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो’, के मानिन्द बीतते रहे।
शादी की शुरूआती दिनों में उन दोनों की हालत ये थी कि छुट्टियों के बाद जब वो पत्नी को गांव पर ही छोड़कर अपनी नौकरी पर भरतपुर जाते तो उनकी पत्नी पहले रसोई के दरवाजे की ओट से, फिर अपने कमरे की खिड़की से, फिर छत पर जाकर अपनी नजरों से ओझल होने तक उन्हें स्टेशन जाते हुए देखती रहती थी। घर से निकलते वक्त अम्मा-बाबू के होने पर उनकी पत्नी झिझकवश कुछ कह नहीं पाती, इसका आभास जयन्ती लाल को भी हो जाता। बस में बैठे-बैठे, पत्नी के हाथों बनाया स्वेटर पहने, उस पर हाथ फेरते, वो रास्ते-भर पत्नी की मौजूदगी को स्पष्ट रूप से महसूस करते रहते। रास्ते में स्वेटर को स्पर्श करते, वो समझ नहीं पाते कि वो अपनी पत्नी को ज्यादा चाहते हैं कि उनकी पत्नी उनको ज्यादा चाहती हैं? उन्हें पता रहता कि अगले शुक्रवार की शाम तक उनकी पत्नी, उनका बेसब्री से इन्तजार करती रहेंगी, क्योंकि अब तो सप्ताहान्त में शुक्रवार की देर रात तक ही वो गांव लौटेंगे। तत्पश्चात् दो दिन तक गांव में रूककर वापस सोमवार की सुबह अपनी नौकरी के लिए भरतपुर प्रस्थान करेंगे। जाहिर है…यह उनके बीच ‘दिलरूबा मैंने तेरे प्यार में क्या-क्या न किया’ के प्रत्युत्तर में ‘राजा जी तुम से दिल लगाने की सजा है’ जैसी गीतों भरे सवाल-जवाब का दौर था। बहरहाल, शादी के बाद लगभग साल-भर तक उनके बीच गुलफाम और सब्जपरी सरीखे ऐसे ही अफसाने सुनने-सुनाने का यह सिलसिला चलता रहा।
सप्ताहान्त पर उनकी बेकरारी का आलम यह था कि शुक्रवार की शाम को जब वो गांव जाने वास्ते बस में बैठते, तो उन्हें ऐसा लगता मानो, ड्राइवर अपनी सीट पर सोया-सोया हुआ-सा बस चला रहा है। ऐसा लगता कि दो-ढ़ाई घण्टे के रास्ते को पार करने में जैसे युग लग रहे हों। उधर जैसे ही शाम के सात बजते, हर खटके पर पत्नी की निगाह भी मुख्य द्वार की ओर…’हर आहट पे समझूं वो आइ गयो रे..’ की तर्ज पर चली जाती। एक बार तो रास्ते में लम्बा जाम लगने के कारण रात को घर लौटने में उन्हें बहुत देर हो गई, तो उनकी पत्नी उनकी राह देखते घर से निकलकर गांव के सिवान तक आ गईं, दूर तक टकटकी लगाए, बस की राह देखते, लगभग आधा घण्टा तक उनके आने तक इंतजार करती रहीं थीं।
घर के कामकाज का विस्तृत अनुभव न होने पर जब कभी अम्मा, उनकी पत्नी रचना को डांटती, उस पर गुस्साती, तो जयन्ती लाल को अच्छा नहीं लगता। पत्नी का मासूम चेहरा देखकर मायूस हो जाते। इन सबसे उकताते, वो जल्द-से-जल्द पत्नी को अपने साथ भरतपुर ले जाना चाहते थे। लेकिन, तमाम प्रयासों के बाद भी शहर में रहने लायक कोई सस्ता मकान किराये पर नहीं मिल पा रहा था।
बहरहाल, गुलफाम-सब्जपरी के अफसाने सुनते-सुनाते, मायके-ससुराल की आवाजाही के बीच, शादी के लगभग सवा साल बाद ‘खरमास’ में ही जयन्ती लाल अपनी पत्नी को विदा कराकर भरतपुर आ गये, और अब वो दोनों, शहर में एक कमरे के मकान में किराये पर रहने लगे थे। हालांकि, वो स्टोव पर ही खाना बनाते। गैस चूल्हा तब भी उनके पास नहीं था। पिताजी द्वारा दी गई एक स्कूटर और अपनी बचतों से उन्होंने एक पोर्टेबल टी.वी. जरूर खरीद ली थी। फ्रिज, बड़ी टी.वी., वाॅशिंग-मशीन आदि तो कालान्तर में बच्चों के पैदा होने, तनख्वाह बढ़ने के बाद ही खरीद पाये थे।
चूंकि, शुरूआती दिनों में उनकी तनख्वाह कम थी, ऊपर से अपनी फिजूलखर्ची की आदत के कारण महीने के आखिरी सप्ताह तक उनके पास डेढ़-दो सौ रूपये ही बच पाते। ऐसे में कभी-कभार रोजमर्रा के खर्चे वास्ते उन्हें किसी-न-किसी दोस्त से उधार भी लेने पड़ जाते। उधारी की इस आदत के कारण अगले महीने की तनख्वाह मिलते ही उधारी चुकना, मकान का किराये, बिजली बिल, पेट्रोल, रोजमर्रा के सौदा-सुलुफ, महीने भर का राशन, फल, दूध, सब्जियों इत्यादि के खर्चे में पन्द्रह-बीस दिन बाद ही उधारी की नौबत आ जाती। ऐसे में उनकी पत्नी ने उनकी उधारी की आदत पर अंकुश लगाने के लिए, तनख्वाह मिलते ही उनका सारा वेतन अपने पास रखने, और घर का खर्चा खुद चलाने का निर्णय लिया। आश्चर्य कि पत्नी द्वारा घर का खर्चा चलाये जाने से अब महीने के आखिरी में उधारी के बजाय तीन-चार सौ रूपये की अच्छी-खासी बचत भी हो जाती।
ऐसी घटनाएं उन्हें बार-बार याद दिलातीं कि उनकी पत्नी उन्हें कितना चाहती हैं। उन्हें अच्छी तरह याद है…एक बार अपने एक रिश्तेदार को सी-ऑफ करने उन्हें रेलवे-स्टेशन तक जाना पड़ा था। चूंकि ट्रेन के आने में बिलम्ब हो रहा था, सो सामाजिकता के नाते, ट्रेन के आने तक वो भी अपने रिश्तेदार संग प्लेटफाॅर्म पर रूके रहे। इधर घर पर इंतजार करते उनकी पत्नी का बुरा हाल होने लगा…’पता नहीं कहां रह गये?’…जेहन में तमाम तरह के बुरे-बुरे खयाल आने-जाने लगे थे। चूंकि उस समय मोबाॅयल फोन आदि नहीं थे, ऐसे में बहुत देर हो जाने, और जयन्ती लाल के न लौटने की वजह से पत्नी की हालत ये हो गयी कि पड़ोस में रहने वाले गोविन्द जी को, जयन्ती लाल को ढूंढ़ने रेलवे-स्टेशन तक जाना पड़ गया। उनकी पत्नी तो उन्हें ढूंढ़ते, उनके संग खुद भी रेलवे-स्टेशन जाना चाहती थीं, लेकिन पड़ोसी गोविन्द जी ने उन्हें यह कह कर आश्वस्त किया कि…”भाभी जी, जाड़ा-पाला में आप परेशान न हों। भाई साहब स्टेशन पर ही होंगे। कभी-कभी ट्रेन आने में लेट हो जाती है, तो देर होना स्वाभाविक है। हो सकता है जयन्ती लाल भाई साहब अपने रिश्तेदार को ट्रेन पर बिठा कर ही लौटना चाहते हों। वो स्टेशन पर ही होंगे। मैं उन्हें अभी कान पकड़कर ले आता हूं।”
जयन्ती लाल जी को ढूंढ़ते, गोविन्द जी जब रेलवे-प्लेटफाॅर्म तक आये, और वहां उन्हें अपने रिश्तेदार के साथ बेंच पर बैठे ट्रेन का इंतजार करते, हास-परिहास करते पाया तो उन्होंने जयन्ती लाल को ये कहते खूब हड़काया कि…”नई-नवेली पत्नी को भला यूं घर पर छोड़कर कोई भलामानस इतनी रात गये घर से बाहर रहता है? घर चलकर देखिये…आपके पत्नी की क्या हालत है?”…उस दिन जयन्ती लाल को अपनी भारी गलती का अहसास हुआ। बहरहाल…गोविन्द जी से पूरा वृत्तान्त सुनने के बाद, अपने रिश्तेदार से क्षमा मांगते, वो आनन-फानन घर लौटे।
उन्हें याद है कि गोविन्द जी के साथ वापस देखकर…’कहां रह गये थे?…कहां रह गये थे?’ कहते-कहते उनकी पत्नी फफक-फफक कर रो पड़ीं और तड़पकर उनसे कसकर लिपट गईं। ये अलग बात है कि तत्समय वहां मौजूद गोविन्द जी और उनकी पत्नी को देखकर जयन्ती लाल को बहुत झेंप सी महसूस हुई। वे बदहवासे से कभी खुद से लिपटकर रोती पत्नी को, तो कभी सामने खड़े मद्धिम-मद्धिम मुस्कुराते गोविन्द जी और उनकी को टुकुर-टुकुर ताकते, अगले-बगले झांकते रहे। असमय ही उत्पन्न ऐसी असहज स्थिति में झेंप मिटाने वास्ते, सीने से लगी पत्नी के बालों में हाथ फेरते, खीसें निपारते, उन्होंने अपनी खींझ मिटाने का असफल प्रयास किया था। गोविन्द जी के साथ स्टेशन से लौटने पर, विलम्ब का आद्योपान्त कारण जानने के बाद भी उनकी पत्नी का गुस्सा, रोना-धोना कम नहीं हुआ था। उन्हें अपनी लापरवाही पर अतिशय अफसोस हुआ। ट्रेन के इंतजार में रिश्तेदार संग प्लेटफाॅर्म पर हास-परिहास में उन्हें इस बात का जरा भी इल्म नहीं हुआ था कि ज्यादा देर हो जाने पर उनके इंतजार में अनाप-शनाप आशंकाओं के बारे में सोचते, पत्नी का इस कदर रो-रोकर बुरा हाल हो जायेगा।
अतिशय विलम्ब के लिए पूरा ब्यौरा बताने के बाद भी उनकी पत्नी ने उनसे गुस्से में कहा…’जाइये, आज आपको खाना नहीं मिलेगा। आपको अगर मेरी फिक्र नहीं तो मैं क्यों आपके लिए फिक्र करूं?’ लेकिन उन्हें याद है…देर रात तक जब भूख के मारे उन्हें नींद नहीं आ रही थी, तो उन्होंने पत्नी को बिना डिस्टर्ब किये किचन में जाकर देखा तो वहां डोंगे में पनीर की सब्जी, और एक भगौने में पका हुआ चावल रखा हुआ था। ”बगल हटिये, वहां जाकर तख्त पर बिछी चटाई पर बैठिये। खाना गरम कर देती हूं। आइन्दा ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए। समझे कि नहीं समझे…?” पीछे से बेडरूम से आकर पत्नी ने उन्हें टोका था। उस दिन उन्होंने साफ महसूस किया कि डांट-फटकार और प्यार के बीच खाना खिलाते समय उनकी पत्नी उन्हें अपने परिवार की कोई बड़ी बुजुर्ग महिला सरीखी ही लगी थी।
यद्यपि इस वाकये के बाद उन दोनों के बीच नाराजगी भी बनी रही। जब तीन दिन हो गये तो पत्नी की नाराजगी को दूर करने वास्ते जयन्ती लाल ने सोचा कि ऐसे कैसे चलेगा ये रूसा-रूसौव्वल? सो वीकेण्ड की शाम को ऑफिस से लौटते वक्त उन्होंने पत्नी का पसंदीदा मिष्ठान्न, गुलाब जामुन पैक करा लिया। उन्हें उस रात के अगले दिन की खुशनुमा और दिलचस्प सुबह आज भी अच्छी तरह याद है।
उनकी पत्नी जब सुबह-सुबह बेडरूम में बेड-टी देकर जाने लगी तो उन्होंने पत्नी को पीछे से देखते टोका…’अरे! तुमने कुर्ती उल्टी क्यों पहन रखी है…?’ यह सुनते ही उनकी पत्नी ने झट अपनी कुर्ती की तरफ देखा, और शरमाते हुए खिलखिलाने लगी।
”आपने भी तो पाजामा उल्टा पहन रखा है…?” अगले ही पल पत्नी ने भी उनकी तरफ देखते, मुंह पर हथेली रखते, खिलखिलाते हुए टोका।
‘अरे हां!…’ कहते-कहते उन्होंने भी अपने पाजामे की तरफ देखा था। अब वो दोनों ही शरारती अंदाज में एक-दूसरे की ओर देखते, खिलखिलाकर हंस पड़े थे।
उनकी जिंदगी के ये वो दिन थे, जब नए खरीदे रिकॉर्ड प्लेयर पर शोभा गुर्टू की आवाज़ में यह दादरा…”रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे…मोहे मारे नजरिया सांवरिया रे…”घर की फिजाओं में दिन भर गूंजते _लहराते_तैरते रहते।
परन्तु ऐसा भी नहीं कि सिर्फ उनकी पत्नी ही उन्हें चाहती हैं। जयन्ती लाल भी अपनी पत्नी को दिलोजान से चाहते हैं। पत्नी के प्रति दीवानगी से जुड़ी एक घटना तो बहुत ही दिलचस्प है, हुआ यूं कि शादी के बाद जब वो पहली बार अपनी पत्नी को उनके मायके से लिवाने गये तो साथ में घर में अम्मा के हाथ का बना एक टिफिन हलवा भी अपने बैग में लेते गये, और ये कहते ससुराल में पत्नी पर रौब जमाया कि…’खाकर देखो, इसे मैंने अपने हाथों बनाया है। स्वादिष्ट हैं ना…?’ लेकिन उनकी पोल तब खुल गई जब उनकी सास ने हलवे की तारीफ करते उनसे उसकी रेसिपी पूछी थी। ऐसे में उन्हें सच-सच बताना पड़ गया था कि…हलवा अम्मा ने बनाया है।
उन्हें अच्छी तरह याद है कि अपनी शैक्षिक-योग्यताओं के दृष्टिगत, शादी के बाद उनकी पत्नी ने नौकरी करना चाहा था, परन्तु परिवार की खुशहाली के लिए रचना को किन-किन परिस्थितियों के चलते, मजबूरीवश अपनी इस इच्छा का परित्याग करना पड़ा था, ये वही जानते हैं। यद्यपि पत्नी की नौकरी करने की बहुत इच्छा थी, जिसे याद कर उन्हें अभी भी ग्लानि-सी महसूस होती है।
चूंकि, नौकरी के साथ-साथ जयन्ती लाल उच्च स्तर की नौकरी वास्ते अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में भी हाथ आजमां रहे थे, और इसके लिए वो दिलोजान से परीश्रम कर रहे थे। तीन बार तो साक्षात्कार तक भी पहुंचे, परन्तु हर बार कुछ-न-कुछ कसर रह ही जाती। फिर भी उन्हें इस बात का हमेशा ही फक्र रहा कि उनकी पत्नी को उनके पद और वेतन से कभी भी कोई शिकायत नहीं रही। वो हर हाल में खुश रहतीं। यद्यपि दोनों के अपने-अपने मलाल भी हैं। जैसे, जयन्ती लाल को किसी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में उच्चशिक्षा न ग्रहण कर पाने का, तो रचना जी को अंग्रेजी साहित्य विषय न पढ़ पाने का अफसोस रहता है।
वाबजूद इन सबके, इनके बीच पसन्दगी-नापसन्दगी को लेकर खासा अन्तर भी है। खाली समय में जयन्ती लाल अपनी साहित्यिक अभिरूचि को धार देते हैं, तो रचना जी का मन टी. वी. धारावाहिकों में लगता है। जयन्ती लाल जी फिजूलखर्च हैं, तो रचना जी मिक्दारपूर्वक खर्च करने की हिमायती हैं। वाबजूद इसके उन्हें ‘मनी-माइण्डेड’ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि महीने में एक फिल्म देखने और सप्ताहान्त में किसी रेस्त्रां में सपरिवार डिनर पर जाने की हिमायती भी हैं। इनके बीच यदा-कदा रगड़े-झगड़े की भी नौबत आ जाती है। कभी-कभी तो जयन्ती लाल जी को रचना जी का अच्छा-खासा व्याख्यान भी सुनना पड़ जाता है। एक बार तो उनके बीच कुछ ऐसी गलतफहमी हुई कि तैश में जयंती लाल का हाथ भी अपनी पत्नी पर उठ गया, जिसका उन्हें हमेशा ही अफ़सोस रहा।
चूंकि, बिना रूसा-रूसौव्वल, लड़ाई-झगड़े के प्यार मुकम्मल नहीं होता, फिर पति-पत्नी में तो इस बाबत चोली-दामन का साथ होता है, सो इनके बीच भी यदा-कदा ऐसे घटनाक्रम चलते रहते हैं। हां, ऐसे मौकों के लिए इन्होंने नम्बरों का विशिष्ट खेल ईजाद किया हुआ है। जैसे, यदि सब्जी में नमक तेज हो जाए, चाय बनाते समय घर में अदरक खत्म हो जाए, सलाद में प्याज, नीबू न मिले…इत्यादि मौकों पर जयन्ती लाल अपनी पत्नी के दस में से एक-दो नम्बर काट लेते हैं। इसी तरह यदि सोने से पहले जयन्ती लाल ने मच्छरदानी नहीं लगाई, चाय बनाते समय गैस-चूल्हा गन्दा कर दिया, मूंछों के बाल विशिष्ट मौकों पर काले नहीं किए, बेडरूम की लाइट रात-भर जलाकर पढ़ने की जिद करने लगें, नहाते समय तेज आवाज में बाॅथरूम में गाने लगें, गीला तौलिया कहीं भी फेंक दिया, पढ़ने के बाद किताबें घर में जहां-तहां छोड़ दिया, तो रचना जी भी दस में से उनके दो-चार नम्बर काट लेती हैं। बहरहाल, महीने के आखिर में उनके बीच इन नम्बरों के कैलकुलेशन से ही तय होता है कि इस माह कौन अच्छी पत्नी या पति साबित हुआ? वैसे इस खेल में जयन्ती लाल अक्सर माइनस में चले जाते हैं। उनके बीच नम्बरों के इस खेल में स्कोर कभी जीरो नहीं हुआ। पता नहीं क्यों…? बहरहाल…’हमरी गरज पे मुख से न बोले, अपनी गरज पे लगाय ले छतिया… दगाबाज तोरी बतिया…’ जैसा प्यार – तकरार – मनुहार उनमें अभी भी बदस्तूर चलता रहता है।
”यहां…जरा मेरे पास आकर बैठो। मुझे तुमसे कुछ कहना है।” जयन्ती लाल ने आलथी-पालथी मारकर बैठी, सामने के फर्श पर गिरी दवा पर पोंछा लगाती पत्नी से कहा। जयन्ती लाल का सामान्य अनुभव रहा है कि उनके मन में क्या कुछ चल रहा होता है, उनकी पत्नी जान ही जाती है। आज उन्हें अपनी पत्नी रचना सेवा, उदारता और दया की प्रतिमूर्ति लग रही थी। परेशानी के क्षणों में पत्नी के वक्ष के बीच सिर छुपाकर गहरी नींद सो जाना, या उसे तकिया बनाकर लेटे-लेटे बतियाने के दिन उन्हें इस समय बेतरह याद आ रहे थे।
उथल- पुथल भरा बचपन, संघर्षमय युवावस्था के उपरान्त, शैक्षिक योग्यतानुरूप नौकरी, सुंदर, व्यवहार कुशल, गृहकार्य दक्ष पत्नी, अनुशासित संतान के साथ जीवन व्यतीत हो, भला इससे बड़ा सुख और क्या हो सकता है।
उन्होंने ध्यान दिया कि पत्नी ने जो स्वेटर पहन रखा है, उन्हें याद है यह स्वेटर उन्होंने शादी के उपरान्त, पत्नी संग पहली बार शाॅपिंग के समय खरीदा था, जिसे उनकी पत्नी ने अभी भी सहेजकर रखा हुआ है। कहती हैं…’यह मेरे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि पिता जी के बाद किसी पर-पुरूष द्वारा मेरे लिए खरीदा गया यह कोई भी पहला उपहार है।’
”अभी, फुरसत नहीं है। मेरे पास बहुत काम बचा है।” उनकी पत्नी रचना ने पोंछे का कपड़ा, पानी की बाल्टी में निचोडते हुए उत्तर दिया था।
”तुम बहुत अच्छी हो।” जयन्ती लाल ने अपने मन की दुर्बलताओं को छिपाते, हिम्मत बटोरते, बिना किसी लागलपेट के, साफगोई से कहना चाहा। यह कहते उनकी देहभाषा से साफ लग रहा था कि वे यह वाक्य काफी समय से अपनी पत्नी से कहना चाहते थे, परन्तु जेहन में उमड़ते-घुमड़ते किन्हीं-न-किन्हीं कारणवश, झिझकवश या कदाचित पुरुष- प्रधान संकीर्ण अहंकारवश…कह नहीं पा रहे थे।
”शुक्रिया जनाब। आप पहले स्वस्थ्य हो जाइये, फिर ये सब चोंचलेबाजी बतियाइयेगा।” जयन्ती लाल की आवाज में आत्मीयता भरी अफ्सुर्दगी को भांपते, चेहरे पर मोनालिसा सी रहस्यमयी मुस्कान के बजाय होंठ के एक कोने को हल्का सा दबाते, चिरपरिचित भुवनमोहिनी मुस्कान बिखेरते, उनकी पत्नी ने मानो जयन्ती लाल को भारी कश्मकश से उबारा हो।
(राम नगीना मौर्य)