हरे प्रकाश उपाध्याय की छः कवितायेँ

कविता

ज़िंदगी जैसे रेलगाड़ी है भाई


एक ही थाली में खाते थे चारों भाई
शाम को एक ही तख्त पर करते पढ़ाई

कभी मुहब्बत तो कभी होती लड़ाई

वक्त की आंधी जो आई
उड़ी मुहब्बत पढ़ाई लड़ाई

बचपन में एक दोस्त था संतोष
हारते कबड्डी तो होता संतोष

परीक्षा में कम नंबर आते तो भी संतोष

संतोष कि साथ है तो यार संतोष
पर न बचपन रहा न संग संतोष

जवानी में जब हुए ज़रा तूफानी
तो कॉलेज में दोस्त मिली शिवानी

कॉलेज छूटा तो मैं चला गया कमाने भिवानी
कोलकाता में शादी कर जा बसी शिवानी
तस्वीरों व यादों में मिलती उसकी निशानी

जिंदगी में न जाने कितने लोग आये
कभी साथ बैठ एक ही थाली में खाये
कभी पैग हर शाम ही लड़ाये
कभी सिगरेटों के धुएं के छल्ले बनाये

आज वे यादों में यूँ ही चले आये

जिंदगी जैसे रेलगाड़ी है भाई
अपने स्टेशन से दे दी सबने विदाई

खिड़की से भागती देतीं चीज़ें दिखाई
बाप छूटे छूट गई माई

टूट गई दोस्ती बिसरी लड़ाई!

मेरे दुश्मन मेरे अंदर


जिनसे मैं लड़ता हूँ

उनसे वैसी नफ़रत नहीं करता हूँ
बस ज़रा जगह बदलने को कहता हूँ

ज़रा दिशा बदलने को कहता हूँ
बस बात सही समझने को कहता हूँ

जिनसे वैसी नफ़रत करता हूँ

उनको भी ज़रा समझने की कोशिश करता हूँ
उनकी भी मजबूरी ज़रा समझता हूँ

पीठ पीछे उनको भी चाचा भैया कहता हूँ
नफ़रत की लगाम को कस के खींचे रखता हूँ
गुस्सा मुझे भी आता है, गुस्सा करता हूँ

गुस्से में कभी गाली भी बकता हूँ
पर गुस्से को नाक पर थोड़े न रखता हूँ
गुस्से की उमर खूब समझता हूँ
मनुष्य हूँ मनुष्य का गुस्सा ख़ूब समझता हूँ
मेरे अंदर भी ज़रा सा लोहा, मैं खूब अकड़ता हूँ

पर अकड़ने की कीमत मैं ख़ूब समझता हूँ
अकड़े अकड़े मर जाऊंगा, इससे डरता हूँ

मेरे अंदर जल है, जल्दी ही बहने लगता हूँ
ज़रा सा बही बयार प्यार की, उड़ने लगता हूँ

मेरे दुश्मन मेरे अंदर भी रहते, यह बात समझता हूँ
उतना अच्छा नहीं हूँ, जितना बाहर से लगता हूँ
हूँ बहुत बुरा मैं, यह मैं आपसे बेहतर ही समझता हूँ

जितना बाहर लड़ता हूँ, उतना अंदर भी लड़ता हूँ
अंदर पछताता, बाहर मैं ठहाके लगाता रहता हूँ
आपको वही क्यों सच लगता है जो गुस्से में बकता हूँ

आपने क्यों नहीं हाथ पकड़ लिया, जब कहा, चलता हूँ
मैं गुस्से में चार कदम चलकर यही सोचता हूँ
सोचिए आप भी आप सबसे यही बात मैं कहता हूँ

पुकार कर तो ज़रा देखिए मैं कैसे पलटता हूँ!

ज़रा सी उमर की बच्ची


ज़रा सी उमर की बिखरे बालों वाली वह बच्ची
नहीं, बिलकुल नहीं कह सकते आप उसे अक्ल की कच्ची

वह अब सब समझती है
आदमी को भी देखकर डरती है

ज़रा ग़ौर से सुनिए उसकी डबडबाई आँखें क्या कहती हैं

जवाब दीजिए

वह लड़की सवाल बनकर आपके सामने टहलती है

नहीं नहीं वह दूर देश की नहीं है
वह तो अब मिलती हर कहीं है

सच बताइए क्या वह आपके पड़ोस में नहीं है

नवादा बहराइच तो फिलिस्तीन में नहीं है

आपने उसे एक अठन्नी की लॉलीपाप क्या पकड़ा दी
ज़रा से दुलार ने उसकी आंखों में बारिश ला दी

नहीं बिटिया नहीं ऐसे मत रोना
अभी तो है तुम्हें फ़ौलाद होना
ऐसे नहीं है तुम्हें हिम्मत खोना
तुम्हें इन हालातों से लड़ना होगा
इस जग को तुम्हें बदलना होगा

बिटिया! चाहने से क्या नहीं होगा!

 सोनू कबाड़ वाला


आया है सोनू कबाड़ लेने, है छब्बीस साल का
कबाड़ का काम में जुटा, रहा जब चौदह साल का
कबाड़खाने के मालिक से रिश्ता बताता ननिहाल का
पूछने पर कहने लगा एक्सपीरियंस है बारह साल का
टूटा हुआ ठेला कभी पैदल कभी चढ़कर चलाता है
दे दो रद्दी-सद्दी लोहा-लक्कड़ आवाज़ लगाता है
हरदम तो उसको देखता हूँ मसाला चबाता है
कह रहा कि रोज़ पाँच-छह सौ कमाता है
भैया! दो सौ तो खाने-पीने में ही उड़ जाता है
बाबू बीमार थे, मर गये वे कल
आज ही आया काम पर निकल
कह रहा, उनसे बहुत मिलता था बल
अब तो टूट गया, हो गया निर्बल
मालिक से उधार लेकर बस लेगा वो धर
बलरामपुर में है टूटा हुआ सा घर
कमाते सब मिल इतना कि पेट जाए भर
कभी कुछ गाँव में काम, कभी आते शहर
यहाँ जहाँ कबाड़ रखते हैं
वही बगल में रहते हैं
आपके कबाड़ पर पलते हैं
अच्छा भैया! बुलाइएगा फिर, चलते हैं!

जनतंत्र एक बहाना है


अगर आपके चाचा या मौसा कलक्टर नहीं हैं
या आप ही कोई छोटे-मोटे अफ़सर नहीं हैं
तो यहाँ आपके लायक कोई बस्ती नगर नहीं है

अजी जनतंत्र एक भ्रम है बहाना है

आप खोलेंगे ज़ुबान तो मार खाना है
ताकतवरों-अमीरों की कचहरी है थाना है
रोज़ सड़क बनती है रोज़ ही उखड़ती है
ठेकेदारों-दलालों की मनमर्ज़ी ही चलती है
इन पर उंगली उठाना, आपकी ही ग़लती है
सरकारी दफ़्तरों की फ़ाइलों में सिक्कों के पहिए
जेब में जोर हो गर तो ही किसी काम को कहिए
इज़्ज़त बचानी है ग़र भैया आप चुप ही रहिए
अस्पतालों के बाहर मरीज़ छटपटाता है मर जाता है
आप लाइन में लगे रहते हैं पर्चा नहीं बन पाता है
अंदर हँसी ठहाका चलता है, कौन पूछने आता है
आपसे सरकार कहती है यह कार्ड बनवाइये
यह कार्ड बन जाता है तो कहती वह कार्ड दिखाइये

यही जनतंत्र है, जन होने को साबित करते जाइये!

कसौटी


धातु का नहीं
मिट्टी का बना हूँ मैं

आपकी कसौटियों पर

मैं कितना खरा उतरूँगा
अपनी मिट्टी मैं कैसे बदलूँगा
अगर आपको मेरी तस्वीर नहीं पसंद
बदल दूँगा तस्वीर
कम से कम बदलने की कोशिश करूँगा
आपको मेरा चेहरा नहीं पसंद
तो चेहरा कैसे बदलूँगा
मुखौटे तो नहीं पहनूँगा
आपको मेरे शब्द नहीं पसंद
बदल दूँगा शब्द
कम से कम बदलने की कोशिश करूँगा
आपको मेरी कविता नहीं पसंद
तो कविता कैसे बदलूँगा
मेरी कविता तो मेरी आत्मा से बनी है

अपनी आत्मा कैसे बदलूँगा?

2 thoughts on “हरे प्रकाश उपाध्याय की छः कवितायेँ

  1. हरे प्रकाश भाई की ये कविताएं सामाजिक और पारिवारिक जीवन की तहों की बेहतर से अभिव्यक्त करती हैं। मैं हमेशा से उनके लेखन का मुरीद रहा हूँ🎂🎂💐💐💐

  2. हरे प्रकाश भाई की ये कविताएं सामाजिक और पारिवारिक जीवन की तहों की बेहतर से अभिव्यक्त करती हैं। मैं हमेशा से उनके लेखन का मुरीद रहा हूँ🎂🎂💐💐💐

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