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भारत में रामलीलाओं की शुरुआत
जिस देश के जनमानस के स्वभाव व संस्कार में उठते राम बैठते राम, सोते राम जागते राम, रोते राम हंसते राम, सुख में राम दु:ख में राम, अहर्निश राम ही राम, राम ही राम, राम ही राम, बसे हों उस देश में राम की के प्रसार माध्यमों कमी कैसे हो सकती है जहां वर्ष भर लाखों लाख साधु, संत , सन्यासी व कथावाचक प्रभु श्री राम की महिमा का गुणगान करते ही रहते हों वहां माध्यमों की कमी तो हो ही नहीं सकती l उन्हीं में से एक प्रारंभिक माध्यम प्रभु श्री राम की लीलाओं का मंचीय गुणगान है *रामलीला* l
अतः हम आज रामलीलाओं के पुरातन इतिहास पर जाएंगे
भारत में रामलीलाओं की शुरुआत
स्वाभाविक है प्रभु श्री राम जी का जन्म भारत वर्ष में ही हुआ है तो उनकी लीलाओं का गुणगान भी सर्वप्रथम यहीं से शुरू हुआ होगा l रामलीलाओं की उत्पत्ति तथा उनका इतिहास जानने से पहले आइये प्रभु श्री राम जी के जन्म के बारे में कुछ तथ्य रखा जाये l
हिंदू पौराणिक कथाओं और ग्रन्थों के अनुसार भगवान राम विष्णु के सातवें अवतार और अयोध्या के असाधारण व महान राजा थे l मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन और सिद्धांतों का पूरा विवरण *रामायण* सबसे महान भारतीय महाकाव्य में से एक है l राम जी का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि *वाल्मीकि* द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में लिखा गया है उसे पुनः *गोस्वामी तुलसीदास* जी ने भी श्री रामचरितमानस के रूप में रचना करके राम के जीवन चरित्र को सामान्य जनमानस तक पहुँचाने का सार्थक एवं सफल प्रयास किया है l गोस्वामी तुलसीदास जी का मानस तमाम ग्रामीण भाषाओं का मिश्रण है जिसमें अवधी, बुंदेलखंडी, मैथिली, भोजपुरी, तथा ब्रजभाषा का समावेश है l यही कारण है कि यह पढ़ने में सरल व सरस है l ग्रामीण इस महाकाव्य को बड़ी ही रुचि व सुर-ताल से पढ़ते व गाते हैं l रामचंद्र हमारे आदर्श पुरुष हैं राम अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे उनके तीन भाई *भरत* (कैकेयी से) *लक्ष्मण* और *शत्रुघ्न* (सुमित्रा से) थे l
चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन राम का जन्म हुआ था l राम का जन्म त्रेता युग में हुआ था भगवान राम आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक हैं परिदृश्य अतीत का हो या वर्तमान का जनमानस ने राम के आदर्शों को खूब समझा व परखा है l
रामलीला
रामलीला भगवान राम से जुड़े सभी महत्वपूर्ण पात्रों का किरदार निभाने का एक माध्यम और शास्त्र परंपरा है l इसके तहत राम अवतार भगवान विष्णु के सातवें जीवित रूप अवतार के रूप में माना जाता है l पूरी रामायण भगवान राम के साथ अपनी पत्नी और भाई के इतिहास पर आधारित है l रामलीला में भगवान राम के जन्म से लेकर उनके द्वारा ताड़का वध एवं सीता स्वयंवर, शिवजी का धनुष भंग, 14 वर्षों का वनवास जाना, लक्ष्मण का शूर्पणखा की नाक कान काटना, सीता का हरण, हनुमान जी से भेंट, बाली वध, सीता खोज, जटायु उद्धार, रावण कुंभकरण वध तथा सीता को मुक्त कराना, अयोध्या आना इत्यादि घटनाओं को बहुत ही प्रमाणिकता से प्रस्तुत करना ही रामलीला का सफल प्रयास होता है l भारतीय संस्कृति में रामलीला का अधिक महत्व है भारत में अधिकतर स्थानों पर रामलीला रामायण, रामचरितमानस के अवधियों के संस्करण में आयोजित किया गया है या दशहरा के दौरान रामलीला में लोगों के वैश्विक ध्यान को आकर्षित किया जाता है l रामलीला के समय जगह-जगह पर मेले का आयोजन भी किया जाता है जिसमें विभिन्न प्रकार के खान-पान से लेकर बच्चों के लिए झूले खिलौने की भी व्यवस्था की जाती है l भारतवर्ष में रामलीला एक महोत्सव की तरह मनाई जाती है भारतीय परिवेश में रामलीला रंगमंचीय दृष्टि से तीन प्रकार से की जाती है
सचल रामलीला
अचल रामलीला
रंगमंचीय रामलीला
सचल रामलीला वह होती है जो इस वर्ष कहीं और तो अगले वर्ष कहीं और अचल रामलीला वह होती है जो होती तो उसी क्षेत्र में है लेकिन स्थान बदल जाता है रंगमंच लीला वह होती है जो एक निश्चित स्थान पर वर्षों से होती चली आ रही है l भारत में ऐसी कई रामलीलाएं हैं जिनका एक ही स्थान पर होने का इतिहास 300 से 500 वर्ष पहले का मिलता है जिसकी चर्चा हमने आगे इसी लेख में किया है l
*यूनेस्को* ने 2008 में रामलीला उत्सव को *”मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत”* के रूप में घोषित किया है l मॉरीशस, अफ्रीका, फिजी, गुयाना, मलेशिया, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम, त्रिनिदाद, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, नीदरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड श्रीलंका, म्यांमार, बांग्लादेश, आदि देशों में रामलीला का मंचन बड़ी ही धूमधाम और श्रद्धा से किया जाता है l
भारत में पहली बार रामलीला का मंचन गोस्वामी तुलसीदास जी के शिष्यों द्वारा 16वीं शदी में किया गया तत्कालीन काशी के राजा ने गोस्वामी जी के रामचरितमानस को पूर्ण करने के बाद रामनगर में रामलीला करने का संकल्प लिया l कुछ ही वर्षों में देशभर में रामलीला के नाटक का मंचन शुरू हो गया l बाल्मीकि रामायण में 24000 श्लोक, 500 उपखंड तथा सात कांड हैं जबकि गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस में 9388 चौपाइयां 1172 दोहे 108 छंद हैं l
*इंस्टीट्यूट आफ साइंटिफिक रिसर्च आप बेदाज* की निदेशक सरोज वाला के अनुसार राम जी का जन्म 10 जनवरी 5114 (ईसा पूर्व) में हुआ था जो लूनर कैलेंडर में कन्वर्ट किया तो चैत्र मास शुक्ल पक्ष की नवमी का दिन निकला l कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार राम का जन्म 7323 ईसा पूर्व हुआ था l शोधकर्ताओं के अनुसार राम का जन्म वाल्मीकि द्वारा बताए गए ग्रह नक्षत्र के आधार पर प्लैटिनम सॉफ्टवेयर के अनुसार 4 दिसंबर 7323 ईसा पूर्व दिसंबर में ही हुआ था l महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखी गई रामायण का प्रमाण 9000 साल ईसा पूर्व से लेकर 7000 ईसा पूर्व तक का माना जाता है l दक्षिण पूर्व एशिया में कई पुरातत्व शास्त्री और इतिहासकारों को ऐसे प्रमाण मिले हैं जिससे साबित होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से रामलीला का मंचन होता रहा है l
जावा के सम्राट वालितुंग के एक शिलालेख में ऐसे मंचन का उल्लेख है यह शिलालेख 907 ई0 के हैं l
थाइलैंड के राजा *ब्रह्मात्रयी* के राज भवन की नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि 1458 ईसवी है
मलेशिया में मुखौटा रामलीला यानी कि पात्रों के मुंह पर मुखौटा लगाकर रामलीला का मंचन होने के प्रमाण मिलते हैं l
छाया रामलीला जावा तथा मलेशिया के वेयांग और थाईलैंड के नंग ऐसी जगह हैं जहां छाया नाटक प्रदर्शित किया जाता है यह कठपुतली के माध्यम से भी होता है l
वैसे तो भारत में रामलीला के ऐतिहासिक मंचन का ईसापूर्व का कोई अकाट्य प्रमाण मौजूद नहीं है परंतु 1500 ईस्वी में गोस्वामी तुलसीदास (1497 से 1627) ने जब आम बोलचाल की भाषा में अवधी में रामचरितमानस की रचना की तो इस महाकाव्य के माध्यम से उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा l गोस्वामी तुलसीदास जी के शिष्यों ने सर्वप्रथम काशी, चित्रकूट और अवध में इस मंचन का प्रारंभ किया l
इतिहास विदों के मुताबिक देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं शताब्दी में ही हुई, इससे पहले राम बारात और रुक्मणी विवाह के ही शास्त्र आधारित मंचन हुआ करते थे l साल 1783 में *काशी नरेश उदित नारायण सिंह* ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया l *भरत मुनि* के नाट्यशास्त्र में नाटक की उत्पत्ति के संदर्भ में लिखा गया है कि 500 ईसा पूर्व से 100 ईसा पूर्व में इस विधा की उत्पत्ति हुई l भारत में गांव-गांव में होने वाली रामलीला का इसी लोकनाट्य रूपों की एक शैली के रूप में स्वीकारा गया l
*हरि अनंत हरि कथा अनंता* की तर्ज में वास्तव में रामलीला सामान्य जनमानस तक पहुंचाने का सटीक माध्यम साबित हुई, रचनाकार हिंदुजा अवस्थी ने अपने शोध प्रबंध *रामलीला परंपरा और शैलियां* में बड़े विस्तार से लिखा है, उन्होंने शोध पुस्तकालयों में बैठकर नहीं बल्कि जगह-जगह घूम-घूम कर अपनी शोध को तैयार किया है साहित्यिक कृतियों से अलग-अलग भाषा, बोलियों, समाज, स्थान और लोकगीतों में रामलीला की अलग-अलग ही विशेषता बताई है l
उत्तर प्रदेश में ही ऐतिहासिक रामनगर की रामलीला है जो कि अस्सी घाट वाराणसी की रामलीला, प्रयाग और लखनऊ की रामलीलाओं के मंचन की अपनी अपनी शैली और विशेषता है, हो सकता है कि शायद इसीलिए यह मुहावरा चल पड़ा कि *अपनी अपनी राम कहानी*
श्री रामचरितमानस की रचना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा सर्वप्रथम काशी में ही संपन्न हुई अतः सबसे पुरानी रामलीला का प्रमाण भी काशी में ही मिलता है l
विक्रमी संवत 1633 सन 1577 में श्री रामचरितमानस की रचना होने के बाद तुलसी अखाड़ा में रामलीला का मंचन शुरू हो गया l गोस्वामी तुलसीदास के *शिष्य मेघा भगत* जो कि काशी के कामाख्या क्षेत्र के रहने वाले थे बाल्मीकि रामायण के आधार पर राम जी के चरित्र का मंचन करते थे परंतु उतनी लोकप्रियता नहीं मिल पाई l तुलसीदास जी के आग्रह पर जब उन्होंने रामचरितमानस के आधार पर रामलीला का मंचन किया तो लोगों ने खूब पसंद किया परिणाम यह हुआ कि कुछ ही वर्षों में रामलीला पूरे भारत में फैल गई l कुछ जन श्रुतियों के अनुसार मेघा भगत का सानिध्य तुलसी के जीवन में एक मोड़ लाया, यहीं से वह अध्यापकीय वृत्ति से मुक्त होकर भक्ति मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं l मेघा भगत ऐतिहासिक आधार न होने पर भी मानस का हंस में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं l
काशी शहर में चार रामलीलाएं आज भी होती हैं जो 400 वर्षों से अधिक पुरानी हैं l उनके यहां रामलीला की शुरुआत श्री राम के वन गमन से होती है l
ये कुछ प्रमुख रामलीलाएं हैं
*श्री चित्रकूट रामलीला समिति* (जिसका 478वां वर्ष है l)
*मोनी बाबा की रामलीला*
*लाट भैरव की रामलीला*
*अस्सी घाट की रामलीला*
गोस्वामी तुलसीदास जी के रामलीला शुरू करने का प्रमुख उद्देश्य से जनमानस में यह भाव भरना था कि जिस प्रकार राम के युग में रावण का अंत हुआ उसी प्रकार अत्याचारी मुगल शासन का भी अंत हो l
*साहित्यकार जितेंद्र मिश्र* के अनुसार उक्त चार प्रमुख लीलाएं ही काशी में अगले 300 वर्षों तक प्रतिमान रहीं
इसके बाद दूसरे चरण में तारानगर, चेतगंज, काशीपुर मणिकर्णिका, लक्सा, सोहरकुआँ,खोजवा,पांडेपुर क्षेत्र में रामलीलाओं का क्रमिक विकास हुआ l इसके पीछे का हेतु ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनमानस को एकजुट करना था l वहीं ग्रामीण इलाकों में जाल्हूपुर,लोहता, चिरईगांव और कौरौता में रामलीलाएं शुरू की गई l
विदेशों में रामलीला का इतिहास
*सूरीनाम*:- सूरीनाम में दिखता है डच का प्रभाव, यहां की रामलीला में पात्र थोड़े बदल जाते हैं पर इसे लेकर यहां के लोगों में खासा उत्साह दिखता है इसका सीधा प्रसारण होता है नई तकनीकी का खूब प्रयोग होता है डच के प्रभाव से यहां भगवान राम *रामत्जाद्रेव* व सीता *सियेता* हो जाती है हिंदी वह डच भाषा के मिश्रण से तैयार यह रामलीला अलग ही आकर्षण पैदा करती है l
*जापान*:- जापान के लोकप्रिय कथा संग्रह *बुत्सूशू* में संक्षिप्त राम कथा संकलित है इसकी रचना *तैरानो यसुयोरी* ने 12वीं शताब्दी में की थी कथा का स्रोत चीनी भाषा का ग्रंथ छह परिमिता सूत्र है l
*चीन में रामलीला*:– चीनी भाषा में एक ग्रंथ अनामकंजातक है जिसके आधार पर चीन में रामलीलाओं का मंचन होता है बौद्ध धर्म का अधिक प्रभाव होने के नाते यहां सनातन आधारित कार्यक्रम सदियों से ही होते आ रहे हैं l
*मॉरीशस*:- मॉरीशस में रामलीला गाई जाती है मॉरीशस के कला एवं सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा सरकारी तौर पर हर साल रामलीला करवाई जाती है तथा झाल ढोलक के साथ गाई भी जाती है l सदियों पहले हिंदुस्तान के पूर्वांचल से ले जाए गए लाखों लोगों द्वारा बसाया गया यह देश अपनी संस्कृति को नहीं त्याग पाया l यहां की रामलीला में भारत के पूर्वांचल की छाप दिखती है l यहां की रामलीला इतनी मशहूर है कि अभिनय के लिए भारतीय कलाकारों को भी बुलाया जाता है तथा मॉरीशस के कलाकारों को अयोध्या में भी रामलीला करने के लिए आमंत्रित किया जाता है l
*कंबोडिया* :- कंबोडिया एक बौद्ध देश है इस देश में सनातन संस्कृति का अच्छा खासा प्रभाव है क्योंकि यहां करीब 600 साल तक हिंदू खमेर साम्राज्य का शासन था l यहां रामायण को *रीमकर* और भगवान राम को *प्रिय रीम* कहा जाता है सीता जी को नेयांग सेडा और लक्ष्मण को *प्रीह लीक* के नाम से जाना जाता है l साम्राज्य का सबसे प्रसिद्ध साहित्य रामचरितमानस है और इसका प्रभाव कंबोडिया की कला में साफ दिखाई देता है l
*थाईलैंड* :-यहां रामलीला के प्रदर्शन में छायाचित्र का प्रयोग होता है यहां का प्रसिद्ध महाकाव्य *रामाकीन* है जिसका अर्थ है राम की कीर्ति l यह बाल्मीकि रामायण से लिया गया है और थाई भाषा में है l यहां के थिएटर ग्रुप में भी रामलीला भव्य तरीके से आयोजित होती है l यहां की छाया रामलीला को *नंग* कहा जाता है जिसे सफेद पर्दे पर दिखाते हैं फिर उसके सामने पुतलियां को इस तरह नचाया जाता है कि छाया पर्दे पर पड़े l यहां की रामलीला में मुखौटे का भी भरपूर प्रयोग किया जाता है नाटक के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला को थाईलैंड में *खौन* के नाम से जाना जाता है l
*म्यांमार* :- म्यांमार (वर्मा) की रामलीला *यामप्वे* कहलाती है इसमें मुखौटे का इस्तेमाल होता है l यहां के लोग हास्य रस के बहुत प्रेमी होते हैं इसलिए *यामप्वे* में विदूषक की भूमिका मुख्य मानी जाती है l यहां की रामलीला में ऐसा बहुत कम होता है जब विदूषक मंच पर ना हो, रामलीला आरंभ होने से पहले एक-दो घंटे हास -परिहास चलता है तथा नृत्य और गीत-संगीत के कार्यक्रम चलते हैं l पूर्व में भारत का ही अंग होने के नाते म्यांमार की रामलीला पूर्वोत्तर भारत से लगभग मिलती-जुलती है l
*इंडोनेशिया*:- इंडोनेशिया के लोग रामायण को ही अपनी संस्कृति मानते हैं हलांकि यहाँ अधिकतर लोग मुस्लिम हैं परंतु रामायण उनकी रग-रग में बसा है यहां के लोग 9वीं सदी में लिखी *जैवनिस वर्जन ऑफ रामायण* को मानते हैं इंडोनेशिया के जावा में प्रबल नाम मंदिर है *प्रंबनाम* मंदिर में *सेंद्रातारी* रामायण लगभग साल भर चलती है l यह रामलीला के माध्यम से बैले डांस (नृत्य नाटिका) है इसमें सीता हरण मारीच मरण जैसे दृश्य देखने को मिलते हैं l इसमें एक साथ सैकड़ों कलाकार हिस्सा लेते हैं कभी-कभी तो कलाकारों की संख्या 800 से पार कर जाती है l
रामलीलाः कितने रंग, कितने रूप
दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जावा के सम्राट *वलितुंग* के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने उपर्युक्त अवसर पर नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया था। इस शिलालेख की तिथि 907 ई. है। थाई नरेश *बोरमत्रयी* (ब्रह्मत्रयी) लोकनाथ की राजभवन नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि 1458 ई. है। बर्मा के राजा ने 1767 ई. में स्याम (थाईलैंड) पर आक्रमण किया था। युद्ध में स्याम पराजित हो गया। विजेता सम्राट अन्य बहुमूल्य सामग्रियों के साथ रामलीला कलाकारों को भी बर्मा ले गया। बर्मा के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने लगा। *माइकेल साइमंस* ने बर्मा के राजभवन में राम नाटक 1794 ई. में देखा था। आग्नेय एशिया के विभिन्न देशों में रामलीला के अनेक नाम और रूप हैं। उन्हें प्रधानतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
मुखौटा रामलीला और छाया रामलीला
मुखौटा रामलीला
जिसमें कलाकार विभिन्न प्रकार के मुखौटे लगाकर अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। इसके अभिनय में मुख्य रूप से ग्राम्य परिवेश के लोगों की भागीदारी होता है। कंपूचिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रसंगों का अभिनय होता था। मुखौटा नाटक के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला को *थाईलैंड* में ‘खौन’ कहा जाता है। इसमें संवाद के अतिरिक्त नृत्य, गीत एवं हाव-भाव प्रदर्शन प्रधानता होती है। ‘खौन’ का नृत्य बहुत कठिन और समय साध्य है इसमें गीत और संवाद का
प्रसारण पर्दे के पीछे से होता है। केवल विदूषक अपना संवाद स्वयं बोलता है मुखौटा केवल दानव और बंदर-भालू की भूमिका निभाने वाले ही लगाते हैं। देवता और मानव पात्र मुखौटे धारण नहीं करते।
छाया रामलीला
विविधता और विचित्रता के कारण छाया नाटक के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला से भी निराली है। इसमें जावा तथा मलेशिया के ‘वेयांग’ और थाईलैंड के ‘नंग’ का विशिष्ट स्थान है। जापानी भाषा में ‘वेयांग’ का अर्थ छाया है। इसलिए यह अंग्रेज़ी में ‘शैडोप्ले’ और हिन्दी में ‘छाया नाटक’ के नाम से विख्यात है। इसके अंतर्गत सफ़ेद पर्दे को प्रकाशित किया जाता है और उसके सामने चमड़े की पुतलियों को इस प्रकार नचाया जाता है कि उसकी छाया पर्दे पर पड़े। छाया नाटक के माध्यम से रामलीला का प्रदर्शन पहले
तिब्बत और मंगोलिया में भी होता था। थाईलैंड में छाया-रामलीला को ‘नंग’ कहा जाता है। नंग के दो रूप है-
*१. ‘नंगयाई’*
*२. ‘नंगतुलुंग’*
नंग का अर्थ चर्म या चमड़ा और याई का अर्थ बड़ा है। ‘नंगयाई’ का तात्पर्य चमड़े की बड़ी पुतलियों से है। इसका आकार एक से दो मीटर लंबा होता है। इसमें दो डंडे लगे होते हैं। नट दोनों हाथों से डंडे को पकड़ कर पुतलियां को ऊपर उठाकर नचाता है।
इसका प्रचलन अब लगभग समाप्त हो गया है। ‘नंग तुलुंग’ दक्षिणि थाईलैंड में मनोरंजन का लोकप्रिय साधन है। इसकी चर्म पुतलियाँ नंगयाई की अपेक्षा बहुत छोटी होती हैं। नंग तुलुंग के माध्यम से मुख्य रूप से थाई रामायण रामकियेन का प्रदर्शन होता है। थाईलैंड के ‘नंग तुलुंग’ और जावा तथा मलेशिया के ‘वेयांग कुलित’ में बहुत समानता है। वेयांग कुलित को वेयंग पूर्वा अथवा वेयांग जाव भी कहा जाता है। यथार्थ यह है कि थाईलैंड, मलयेशिया और इंडोनेशिया में विभिन्न नामों से इसका प्रदर्शन होता है। *वेयांग*
वेयांग प्रदर्शित करने वाले मुख्य कलाकार को ‘दालांग’ कहा जाता है। वह नाटक का केंद्र बिन्दु होता है l
वह बाजे की ध्वनि पर पुतलियों को नचाता है। इसके अतिरिक्त वह गाता भी है। वह आवाज़ बदल-बदल कर बारी-बारी से विभिन्न पात्रों के संवादों को भी बोलता है, किंतु जब पुतलियाँ बोलती रहती हैं, बाजे बंद रहते हैं। वेयांग में दालांग के अतिरिक्त सामान्यतः बारह व्यक्ति होते हैं, किंतु व्यवहार में इनकी संख्या नौ या दस होती है। ‘वेयांग’ में सामान्यतः 148 पुतलियाँ होती हैं जिनमें सेमार का स्थान सर्वोच्च है। सेमार ईश्वर का प्रतीक है और उसी की तरह अपरिभाषित और वर्णनातीत भी। उसकी गोल आकृति इस तथ्य का सूचक है कि उसका न आदि है और न अंत। उसके नारी की तरह स्तन और पुरुष की तरह मूँछ हैं। इस प्रकार वह अर्द्धनारीश्वर का प्रतीक है। जावा में सेमार को शिव का बड़ा भाई माना जाता है। वह कभी कायान्गन (स्वर्ग लोक) में निवास करता था, जहाँ उसका नाम ईसमय था। वेयांग का संबंध केवल मनोरंजन से ही नहीं, प्रत्युत आध्यात्मिक साधना से भी है।
भारत में रामलीलाएंँ
समूचे उत्तर भारत में आज रामलीला का जो स्वरूप विकसित हुआ है उसके जनक गोस्वामी तुलसीदास ही माने जाते हैं, और यह भी सच है कि इन सभी रामलीलाओं में रामचरितमानस का गायन, उसके संवाद और प्रसंगों की एक तरह से प्रमुखता रहती है। बाबू श्यामसुंदर दास हों, कुँवर चंद्रप्रकाश सिंह हों या फिर आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र सभी की यह मान्यता है कि रामलीला के वर्तमान स्वरूप के उद्घाटक, प्रवर्तक और प्रसारक महात्मा तुलसीदास हैं। किंतु यह भी सच नहीं है कि तुलसी के पूर्व रामलीला थी ही नहीं, हाँ यह अवश्य है कि गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के पश्चात् फिर रामलीलाओं का आधार यही रामचरितमानस ही हो गया। राम की बारात निकलने पर उस प्रान्तर के सभी निवासी मानों राजा जनक के पुरवासी बनकर दूल्हे का सत्कार करते हैं, राम-वनगमन के समय राम-लक्ष्मण और सीता के पीछे अश्रु-विलगित जनता अपने को अयोध्यावासी समझती हुई आँसू बहाती चलती है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि चाहे राम-कथा की महती संकल्पना के कारण हो, चाहे रामचरितमानस की लोक प्रतिष्ठा के कारण हो, रामलीला में दर्शकों का जितना संपूर्ण सहयोग होता है उतना और किसी भी नाट्यरूप में मिल पाना कठिन ही है l
भगवान राम की कथा पर आधारित रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा भारत में युगों से चली आयी है। लोक नाट्य के रूप में प्रचलित इस रामलीला का देश के विविध प्रान्तों में अलग अलग तरीक़ों से मंचन किया जाता है। उत्तराखण्ड ख़ासकर कुमायूं अंचल में रामलीला मुख्यतः गीत- नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। वस्तुतः पूर्व में यहां की रामलीला विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे। पूर्व में तब आज के समान सुविधाएं न के बराबर थीं स्थानीय बुजुर्ग लोगों के अनुसार उस समय की रामलीला मशाल, लालटेन व पैट्रोमैक्स की रोशनी में मंचित की जाती थी। कुमायूं में रामलीला नाटक के मंचन की शुरुआत अठारहवीं सदी के मध्यकाल के हो चुकी थी। बताया जाता है कि कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व. देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमशः 1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन हुआ l
अल्मोड़ा नगर में 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पंडित उदय शंकर ने छाया चित्रों के माध्यम से रामलीला में नवीनता लाने का प्रयास किया। हालांकि पंडित उदय शंकर द्वारा प्रस्तुत रामलीला यहां की परंपरागत रामलीला से कई मायनों में भिन्न थी लेकिन उनके छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप यहां की रामलीला पर अवश्य पड़ी।
विशेषता
कुमायूं की रामलीला में बोले जाने वाले संवादों, धुन, लय, ताल व सुरों में पारसी थियेटर की छाप दिखायी देती है, साथ ही साथ ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। संवादों में आकर्षण व प्रभावोत्पादकता लाने के लिये कहीं-कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू की ग़ज़ल का सम्मिश्रण भी हुआ है। कुमायूं की रामलीला में संवादों में स्थानीय बोलचाल के सरल शब्दों का भी प्रयोग होता है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में अधिकांशतः कुमायूंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादो में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रूपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमकती गूंज में पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादों में रामचरितमानस के दोहों व चौपाईयों के अलावा कई जगहों पर गद्य रूप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में गायन को अभिनय की अपेक्षा अधिक तरजीह दी जाती है। रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है, जिसमें पात्र एक ही स्थान पर खड़े होकर हाव-भाव प्रदर्शित कर गायन करते हैं। नाटक मंचन के दौरान नेपथ्य से गायन भी होता है। विविध दृश्यों में आकाशवाणी की उद्घोषणा भी की जाती है। रामलीला प्रारम्भ होने के पूर्व सामूहिक स्वर में रामवन्दना “श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन” का गायन किया जाता है। नाटक मंचन में दृश्य परिवर्तन के दौरान जो समय ख़ाली रहता है उसमें विदूशक (जोकर) अपने हास्य गीतों व अभिनय से रामलीला के दर्शकों का मनोरंजन भी करता है। कुमायूं की रामलीला की एक अन्य ख़ास विशेषता यह भी है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी पात्र पुरुष होते हैं। आधुनिक बदलाव में अब कुछ जगह की रामलीलाओं में कोरस गायन, नृत्य के अलावा कुछ महिला पात्रों में लड़कियों को भी शामिल किया जाने लगा है।
वाराणसी की रामलीला
एक साथ जितनी लीलाएँ नटराज की क्रीड़ाभूमि वाराणसी में होती है उतनी भारत में अन्यत्र कहीं नहीं। इस दृष्टि से काशी इस दिशा में नेतृत्व करती प्रतीत होती है। राजस्थान और मालवा आदि भूभागों में यह चैत्रमास में समारोह संपन्न होती है। भारत में रामलीला के ऐतिहासिक मंचन का ईसा पूर्व का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। लेकिन 1500 ईं में गोस्वामी तुलसीदास (1497-1623) ने जब आम बोलचाल की भाषा ‘अवधी’ में भगवान राम के चरित्र को ‘श्री रामचरित मानस’ में चित्रित किया तो इस महाकाव्य के माध्यम से देशभर खासकर उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा। माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों ने शुरूआती रामलीला का मंचन (काशी, चित्रकूट और अवध) रामचरित मानस की कहानी और संवादों पर किया। इतिहासविदों के मुताबिक देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी के आरंभ में हुई थी। इससे पहले रामबारात और रुक्मिणी विवाह के शास्त्र आधारित मंचन ही हुआ करते थे। साल 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया। कहा जाता है कि उनके स्वपन में भगवान राम ने आकर उनसे रामलीला कराने का निर्देश दिया था। भगवान राम के जीवन और
उसके मूल्य को सीखने का सबसे अच्छा माध्यम है।
रामनगर की रामलीला
यद्यपि पूरे भारत में दिल्ली के रामलीला, उत्तर प्रदेश और विशेष रूप से रामनगर (वाराणसी) के बहुत प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश के शहर वाराणसी के रामनगर की रामलीला विश्व प्रसिद्ध है। रामनगर वाराणसी में राम लीला एक महीने के लिए रामलीला मैदान पर विशाल मेले के साथ आयोजित की जाती है। दशहरे के दिन विशेष रुप से आयोजन किया जाता है जिसके तहत रावण की विशाल आकृतियां एवं पुतला बना कर भगवान राम द्वारा उसे जलाया जाता है। जो बुराई पर अच्छाई का प्रतिक होता है। रावण के भाई कुंभकरन और पुत्र मेघनाथ भी भगवान राम द्वारा युद्ध में मारे गये। लंबे समय से युद्ध की जीत के बाद, राम घर आये जहां अभिषेक का आयोजन किया गया, ताकि अयोध्या नगरी में उनका स्वागत किया जा सके l रामनगर उत्तर प्रदेश के वाराणसी से 15 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा शहर है। यहां मनाई गई रामलीला केवल लोकप्रिय नहीं है बल्कि आज तक इसकी मौलिकता बरकरार रखती है। ऐसा माना जाता है कि “काशी के महाराजा” ने इसे बहुत पहले पारंपरिक तरीके से शुरू किया था। रामनगर में दो सौ साल पुरानी रामलीला में आज भी प्राचीन परंपराओं का पालन होता है। गंगा के दूसरे तट पर बसा समूचा रामनगर इन दिनों राममय है, वहां धर्म एवं आध्यात्म की सरिता बह रही होती है। रामनगर में रामलीला का पात्र निभाने वाले कलाकारों को प्रायः 16 वर्ष से कम की उम्र का लिया जाता है। इनमें महिलाओं के किरदार भी पुरुष कलाकारही निभाते हैं। भक्त साधु, राम-सीता, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न को पारम्परिक रुप से अपने कंधे पर लेकर चलते हैं। यहां पर भजन-कीर्तन करते तथा नाचते-गाते भक्तों को देखा जा सकता है। इस अनूठी रामलीला को देखने के लिए बड़ी संख्या में विदेशी भी आते हैं जो अपने कैमरों में हर दृश्य को कैद करते हैं। रामलीला के पात्रों के वस्त्र तो कई प्रकार के होते हैं, लेकिन राजसी वस्त्रों पर तो आंखें नहीं टिकतीं। सोने-चांदी के काम वाले वस्त्र राज परिवार की सुरक्षा में रखे जाते हैं। लीला में प्रयुक्त अस्त्र-शस्त्र भी रामनगर के किले में रखे जाते हैं।
रामनगर की रामलीला की कुछ मुख्य विशेषताएं:
• अवधिः अन्य रामलीला की लगभग 14 दिनों तक मनाई जाती है किन्तु रामनगर की रामलीला अन्य रामलीलाओं की तुलना में 31 दिन तक मनाई जीती है। इसमें भगवान राम से जुड़े प्रति क्षण की घटना प्रदर्शित की जाती है। पूरा रामनगर शहर अशोक वाटिका, पंचवटी, जनकपुरी, लंका आदि के लिए विभिन्न दृश्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक सेट के रूप में कार्य करता है। रामनगर के स्थानीय अभिनेता रामायण के विभिन्न पात्रों को खेलते हैं। कुछ महत्वपूर्ण भूमिकाएं राम, रावण, जानकी, हनुमान, लक्ष्मण, जटायू, दशरथ, और जनक हैं। दशहरा त्यौहार काशी नरेश की परेड द्वारा रंगीन हाथी की चढ़ाई से शुरू किया गया जाता है। सैकड़ों पुजारी वहाँ रामचरितमानस के पाठ को बताने के लिए वहाँ रहते हैं।
एकाधिक समूहः
रामनगर में अन्य शहरों में रामलीला के लिए नामित एकल सेट के मुकाबले, मूल महलों से लेकर बगीचों तक कई ऐतिहासिक सेट हैं जो ऐतिहासिक स्थानों तक हैं जो स्थायी रूप से इस उद्देश्य के लिए आरक्षित हैं प्रायः हर प्रसंग के लिए पृथक-पृथक लीला स्थान निर्धारित है l लगभग चार किलोमीटर की परिधि में अयोध्या, जनकपुर, लंका, अशोक वाटिका, पंचवटी आदि स्थान है जो रामचरित मानस में वर्णित है। लीलाप्रेमियों का अनुशासन, शांति, समर्पण, लीला के प्रत्येक प्रसंग को देखने तथा नियमित आरती दर्शन की ललक बनाएं रखती है। लीला के पांच स्वरूपों राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता समेत प्रमुख पात्र आज भी ब्राह्मण जाति के होते हैं।इनकी उम्र 16 साल से कम होनी चाहिए। चेहरे की सुन्दरता, आवाज की सुस्पष्टता और गले की मधुरता काभीसंगम जिस किशोर में होता है, वही मुख्य मात्र के लिए योग्य माना जाता है। चूंकि यहां लाउडस्पीकर का प्रयोग
नहीं होता इसलिए तेज बोलने की क्षमता जांचने के लिएभारतीय संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण कराया जाता है। पात्रों के चयन पर अंतिम स्वीकृति परम्परागत ढंग से कुंवर अनंत नारायण सिंह देते हैं। मुख्य पात्र तैयारी के बाद संन्यासी जैसा जीवन व्यतीत करते हैं।
प्रौद्योगिकी से अप्रभावितः
चूंकि भारत में पारंपरिक मेलों और त्यौहारों में से अधिकांश बढ़ते हुए प्रौद्योगिकी के साथ एक नए रूप में स्थानांतरित हो गए हैं। किन्तु रामनगर की रामलीला अभी भी पारंपरिक नियमों का पालन करती है। पूर्व बनारस रियासत के महाराजाओं और उनकी विरासत संभाल रहे उत्तराधिकारियों ने आज भी रामलीला का प्राचीन स्वरूप बनाए रखा है। तामझाम- ग्लैमर की दुनिया से अछूती इस रामलीला को सम्पूर्ण विश्व पटल पर एक अलग पहचान मिली है।
यहां के आयोजकों ने रामलीला का प्राचीन स्वरूप बनाए रखा है। तामझाम- ग्लैमर की दुनिया से अछूती इस रामलीला को सम्पूर्ण विश्व पटल पर एक अलग पहचान मिली है। पात्रों की सज्जा- वेशभूषा, संवाद-मंच आदि सभी स्थलों पर गैस और तीसी के तेल की रोशनी, पात्रों की मुख्य सज्जा का विशिष्ट रूप, संवाद प्रस्तुति के ढंग और लीला का अनुशासन ज्यों का त्यों बरकरार है।
यहां की रामलीला में आज भी बिजली की रोशनी एवं लाउडस्पीकर का प्रयोग नहीं होता और न ही भडकीले वस्त्र तथा आभूषण का प्रयोग होता है। विशाल मुक्ताकाश, लीला स्थल के पास सजे सजाए हाथी पर लगे पारम्परिक नक्कासी वाले हौदे पर सवार होकर काशी नरेश हर रोज उपस्थित होते हैं एवं यात्रा की संवाद-ध्वनि बखूबी उनके पास पहुंचती है।
• अभी भी कोई सीट नहीं: इस रामलीला में ध्यान देने योग्य एक दिलचस्प बात यह है कि पहले के समय की तरह अभी भी बैठने के लिए कोई सीट नहीं है। दर्शक जमीन पर बैठते हैं, छतों पर चढ़कर देखते हैं। जमीन पर चटाई बिछाकर रामलीला का आनंद लेते हैं और तो और कई दर्शक पेडों पर भी चढ़ जाते हैं ताकि रामलीला को देख सकें।
ढाई कड़ी की रामलीला
लगभग 4000 जनसंख्या वाले पाटौन्दा गांव कोटा से 65 km की दूरी पर चम्बल की सहायक नदी कालीसिंध के किनारे पर ऊबड़ खाबड़ चट्टानों वाली जमीन पर स्थित है। आज से लगभग 160 वर्ष पूर्व एक दाधिच ब्राम्हण गुरु गणपतलाल जी दाधिच ने इस सांगीतिक रामलीला को प्रारंभ किया था। जिसे उन्होनें वाल्मीकि रामायण व तुलसीकृत रामचरिमानस के आधार पर लिखा था। यह रामलीला राजस्थानी भाषा की हाड़ौती उपभाषा में लिखी गई है। हाड़ौती पर ऊंचे स्वर वाली प्राचीन डिंगल भाषा का प्रभाव है। लगभग दो दर्जन हस्तलिखित पांडुलिपियों में लिपिबद्ध इस रामलीला की समस्त विषयवस्तु निहित है। संगीत इस गायन रामलीला का महत्वपूर्ण पक्ष है। लौक शैली ढाई कड़ी में लिखी गई चौपाइयां प्रमुख खड़ी बोली और रैला तर्ज में संगीतबद्ध किया गया है।
यह रामलीला चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी से वैशाख पंचमी तक पन्द्रह दिनों तक आयोजित की जाती है। गांव के सामान्य नागरिक ही इसमें गाने, बजाने, और अभिनय का कार्य करते है। यह कलाकर गांव के ही कृषक वर्ग के सामान्य नागरिक है, जो बिना किसी वेतन के भगवान के प्रति श्रद्धाभाव से अपना समय देते है। और इस रामलीला में अभिनय करते है। यह कलाकार कोई पेशेवर अभिनेता नही होते, सब अपनी मेहनत और अभ्यास तथा पूर्व कलाकारों से प्राप्त प्रशिक्षण से ही अभिनय करते है। पहले गायन के साथ संगीत के लिये सारंगी से मिलता जुलता एक वाद्ययंत्र चितारा का प्रयोग करते थे। अब चितारा की जगह वायलिन व हारमोनियम का उपयोग किया जाता है। प्रकाश के लिये पहले अलसी के तेल की मशालों का प्रयोग होता था।
फिर बाद में मिट्टी के तेल के पेट्रोमैक्स उपयोग में लाने लगे, आजकल अब बिजली काभीप्रयोग होने लगा है। यह रामलीला गांव के अंदर बने लगभग 11 वी शताब्दी के प्राचीन लक्ष्मीनाथ जी के मंदिर के सामने खुले प्रांगण में होती है, अभिनय स्थल पर पक्की छत वाला रंगमंच बनाया गया है। जिसमें एक स्थायी पक्का सिंहासन, वन, महल इत्यादि दिखाने के लिए परदों का प्रयोग किया गया है। पन्द्रह दिनों तक चलने वाली इस रामलीला में तीन सवारियां निकाली जाती है, इसमें रामलीला के पहले दिन श्रीगणेश जी को लीला में आमंत्रित करने के लिए, लीला के चौथे दिन अर्थात स्वयंवर वाले दिन रामचंद्र जी की बारात और लीला के छठे दिन अर्थात दशमी वाले दिन तीसरी सवारी निकाली जाती है। इस दिन रावण किया जाता है।
ढाई कड़ी की रामलीला की उपलब्धियां
क्वीसलेंड विश्वविद्यालय (ऑस्ट्रेलिया ) की ” रुटलेज हैंडबुक ऑफ फेस्टिवल (2018)” पुस्तक में एक अध्याय पाटौन्दा की ढाई कड़ी की रामलीला पर आधारित है। इस रामलीला पर शोध डॉ. अनुकृति शर्मा द्वारा किया गया, उन्ही के प्रयासों से इस रामलीला को कवीसलेंड विश्वविद्यालय ऑस्ट्रेलिया की पुस्तक में स्थान मिल पाया।
सन 1950 में कोटा में आयोजित अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन में इस रामलीला में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। जिसमे पारितोषिक स्वरूप दो किलो का चांदी का छत्र कोटा दरबार द्वारा प्रदान किया गया।
इस रामलीला ने भारतीय रामायण मेला भोपाल, अंतरराष्ट्रीय रामायण मेला चित्रकूट में दो बार प्रदर्शन किया था।
इस रामलीला ने अंतर्राष्ट्रीय रामायण मेला अयोध्या में एक बार भारत सरकार के खर्च पर प्रदर्शन किया था।
यह रामलीला भारतवर्ष की उन तीन हिंदीभाषी अंतर्राष्ट्रीय रामलीलाओं में से एक है जो खासतौर से गाकर की जाती है।
*श्री गुरु गणपतलाल जी दाधिच ढाई कड़ी की रामलीला के रचयिता*
इस विश्वविख्यात ढाई कड़ी की रामलीला के रचयिता परम् पूजनीय साकेतधामवासी आदरणीय ग्राम गुरु श्री गणपतलाल जी दाधिच है। इनका जन्म पाटौन्दा ग्राम में हुआ। तथा काशी में इन्होंने शिक्षा प्राप्त की इनके द्वारा वाल्मीकि रामायण व तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरिमानस के आधार पर शुद्ध *हाड़ौती* भाषा मे यह रामलीला लिखी। जिसके अनुसार इस रामलीला का मंचन किया जाता है।
लखनऊ ऐशबाग की रामलीला
काशी के बाद भारत की सबसे पुरानी रामलीलाओं में से एक लखनऊ की ऐशबाग राम लीला मानी जाती है. गंगा-जमुनी तहजीब की प्रतीक, ऐशबाग की रामलीला के बारे में कहा जाता है कि खुद तुलसीदास ने इसकी शुरुआत की थी l ऐशबाग राम लीला के बारे में कहा जाता है कि इसकी शुरुआत 1860 में हुई थी. तुलसीदास जी चित्रकूट, वाराणसी और लखनऊ में सबसे पहली राम लीला की नींव रखी थी. मान्यता है कि ऐशबाग की राम लीला को असली पहचान अवध के नवाब असफउद्दौला ने दी थी. कहते हैं कि पहले ये राम लीला नहीं बल्कि राम कथा का मंचन होता है, जिसमें अयोध्या के साधु-संत रामकथा का नाटक खेलते थे. राम लीला, भगवान राम के पूरे जीवन की एक नाटकीय प्रस्तुति है, जो अपने बालकाल, युवा काल के राम के इतिहास से शुरू होती है और भगवान राम और रावण के बीच 10 दिनों के लिए युद्ध के साथ समाप्त होती है.
प्रयागराज की रामलीला
संगम नगरी प्रयागराज में भी रामलीला सालों साल से लगातार होती चली आ रही है.
प्रयागराज में दो प्रमुख रामलीलाएं की जाती हैं. जिसमें *पजावा रामलीला* और *पथरचट्टी रामलीला* शामिल है. मान्यता है कि एक समय जब प्रयागराज में रामलीला की शुरुआत हुई तो लोग लीला में भाग लेने वाले पात्रों को अपने कंधे पर बिठाकर ले जाया करते थे. प्रयागराज की पथरचट्टी रामलीला का स्वरूप बीते कुछ सालों में बदला है. एक समय यहां पर सिर्फ रावण वध की लीला हुआ करती थी, लेकिन वर्तमान में यह कमेटी भव्य तरीके से लोगों के सामने रामकथा को प्रस्तुत करती है.
अयोध्या की रामलीला
भगवान श्री राम की जन्मस्थली यानि अयोध्या में भी उनके गुणों का गुणगान करने वाली लीला सालों साल से होती चली आ रही है. अयोध्या में विभिन्न स्थानों में की जाने वाली रामलीला में लक्ष्मण किला, मणिराम छावनी, राजेंद्र निवास चौराहा की रामलीला काफी प्रसिद्ध है. वर्तमान में प्रभु श्री राम की नगरी में लक्ष्मण किला के मैदान में रामलीला को भव्य स्वरूप प्रदान करत हुए फिल्मी सितारों के माध्यम से इसका मंचन किया जा रहा है. अयोध्या में की जाने वाली रामलीलाओं में भी गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस की चौपाईयों को बहुत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है.
दिल्ली की रामलीला
देश के तमाम हिस्सों की तरह राजधानी दिल्ली में भी रामलीला का इतिहास काफी पुराना है. दिल्ली में कई स्थानों पर भगवान श्री राम की कथा का भव्य तरीके से मंचन किया जाता है, जिसमें आम व्यक्ति से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक उसे देखने के लिए पहुंचते हैं. दिल्ली का रामलीला मैदान यहां के सबसे पुराने स्थानों में से एक है, जहां पर सालों साल से भगवान श्री राम की कथा को प्रस्तुत किया जाता है, यहां पर किया जाने वाला रावण दहन भी काफी प्रसिद्ध है, इनके अलावा लाल किला मैदान, माधव पार्क, सुभाष मैदान और श्रीराम भारतीय कला केंद्र थिएटर में प्रस्तुत की जाने वाली रामलीला भी काफी प्रसिद्ध है, दिल्ली में प्रस्तुत की जाने वाली रामलीला में आपको पौराणिकता और आधुनिकता का संगम देखने को मिलता है ।
वर्तमान परिवेश में अगर रामलीलाओं की प्रासंगिकता को देखा जाए तो ग्रामीण अंचल में संसाधनों की कमी के कारण इसके मंचन में कुछ कमी जरूर आई है हलाकि शहरी क्षेत्र में जहां लोग रामलीलाओं पर अच्छा संसाधन और धन खर्च करते हैं वहां रामलीलाएँ अभी भी अपनी प्रासांगिकता को बनाये हुए हैं l सोशल मीडिया और मोबाइल के अधिकाधिक प्रचलन से ज्यादातर लोग अपने व्यक्तिगत साधन के माध्यम से अपने धर्म ग्रंथों की पर्याप्त जानकारी हासिल कर रहे हैं परंतु राम और रामलीलाएँ उन सब से कुछ अलग हैं सामूहिक रूप से रामलीलाओं का मंचन और दर्शन इन 10 दिनों में चहुंँ ओर देखा जा सकता है कुल मिलाकर राम जी के चरित्र और राम रामलीलाओं के मंचन का विषय अभी भी अपनी प्रासांगिकता बनाए हुए है और आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि सदियों तक ये क्रम चलता रहेगा l वर्तमान पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को यह परम्परा सौंपती रहेगी तथा नई पीढ़ी इस धरोहर को अंगीकृत करके सहेजती रहेगी l
संदर्भ सूची :-
1- मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत रामलीला (यूनेस्को )
2-Institute of Scientific research of Vedas (Bharat)
3- नाट्यशास्त्र (भरत मुनि)
4- कला एवं संस्कृति मंत्रालय (मॉरीशस)
5- महाकाव्य रामाकीन (थाईलैंड)
6- जैविनिश वर्जन ऑफ रामायण (इंडोनेशिया)
7- Rootlez handbook of festival (Australia)
8- Quizland University (Autralia)
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पढ़कर अपने बचपन में खो गया , शानदार लेख और बेहतरीन संपादन