वैसे तो कौवे कहीं दिखते नहीं , भूले – भटके दिख गए तो मैं असहज हो जाता हूं। यह असहजता इतनी बढ़ जाती है कि लगता हृदय की धड़कन पर इसका असर हो रहा है। और किसी भी वक़्त दिल का दौरा पड़ सकता है। मैं बचाव का प्रयास करता हूं लेकिन अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पाता।
ऐसा ही उस वक़्त हुआ जब मैं अपने बहुत ही क़रीबी दोस्त के साथ, शहर से काफ़ी दूर, ढाबे में बैठा चाय पी रहा था। शाम का झुटपुटा था, आसमान सुर्ख़ था, खेतों से आती हुई ठण्डी हवा बहुत ही सुखदायी थी। और हम इसी की चर्चा भी कर रहे थे कि सड़क के पास बिजली के तार पर एक कौवा बैठा दिखा जो कांव- कांव करता तार पर चोंच मार रहा था।
मैंने कौवे को देखा और असहज हो गया। हृदय की धड़कन बढ़ गई। हाथ से भजिये का टुकड़ा गिर पड़ा।मैं खाट से उठ खड़ा हुआ और तकरीबन दौड़ता हुआ ढाबे के अंदर घुसा मानो छिपने की जगह ढूँढ रहा होऊं। छिपने की जगह पीछे थी । मैं वहां आ खड़ा हुआ।
दोस्त ने पूछा – क्या हुआ भाई ! इतने बेचैन क्यों हो गए ?
सहज होने पर मैंने दोस्त को अपने साथ घटी एक घटना सुनायी।
*
चालीस साल पुरानी बात है।
उन दिनों मैं नाना- नानी के घर गर्मी की छुट्टियां बिताने गया था। वे शाजापुर में रहते थे। उन दोनों के सिवाय घर में कोई और न था। एक माली था जो बग़ीचे में बनी फूस की झोपड़ी में रहता था। नाना के एक ही बेटी थी जो मेरी मां थीं। हम भोपाल में रहते थे । एक छोटे – से फ्लैट में। बाप भेल में सुपरवाइजर थे। मां घरेलू महिला। उनका मैं इकलौता बेटा जो गर्मी की छुट्टी लगते ही नाना- नानी के घर की ओर, मुहावरे में कहें तो खूंटा तुड़ा के भागता था। पता नहीं ,नाना- नानी के यहां मुझे भारी सुकून मिलता। क्या तो घर था उनका! था तो खपरैल का लेकिन इंतहा ख़ूबसूरत। काफ़ी ऊंचा। दीवारें एकदम उजली। कई सारे कमरे, दालान और बड़ा- सा आंगन। घर के आगे फुटबाल के मैदान जितनी जगह थी , कँटीले तारों से घिरी।ऐसी ही जगह पिछवाड़े भी थी। हर तरफ़ आंवले ,नीम,जामुन,पीपल,शहतूत ,कबीट,चिरौंजी , बरगद, सतसत्ता, पाखर , बबूल और बेल के असंख्य पेड़ थे जिनकी चितकबरी धूप- छांह में मुझे दौड़ना- खेलना बहुत भाता था। नाना फॉरेस्ट विभाग से रिटायर हुए थे और पेड़- पौधों और ख़ासकर पंछियों से उन्हें इंतहा लगाव था। उनके रख – रखाव और संरक्षण के लिए वे हर वक़्त तत्पर रहते। यही वजह थी कि लोग उन्हें सालिम अली कहकर पुकारते। नाना को यह संबोधन अच्छा लगता, ख़ुशी देता। ख़ैर, घर के आगे की तरफ़ पेड़ों के बीच में तालाबनुमा गढ़ा था जिसमें ज़्यादातर प्रवासी पंछियों का जमघट रहता। क्या तो सुंदर पंछी थे ! मैं तो उन्हें देखता ही रह जाता था। किसी पंछी को मैं पकड़ना चाहता तो नाना मने करते। कहते ,एक तो तुम उसे पकड़ नहीं पाओगे, दूसरे पकड़ोगे तो चोट खा जाओगे। इसलिए पंछियों को दूर से देखो। ये तरह- तरह के फूल हैं। इन्हें अपनी तरह से खिलने दो। नाना सत्तर पार के थे। दुबले- पतले ,हल्के नीले रंग का चश्मा पहनते थे। पैंट- कमीज़ और खद्दर की जाकिट उनकी पोशाक थी। चमड़े के पट्टेवाली घड़ी वे दाएं हाथ में पहनते। सिर में घने बाल थे। एकदम सन जैसे सफ़ेद। दांत दूध की तरह चमकते थे। पूरे बत्तीस दांत थे नाना के! ऐसे ही नानी के भी थे। नाना जहां चुस्त- दुरुस्त थे , नानी ढीली थीं। सांस के रोग की वजह से सुस्त। लेकिन काम-काज में काफ़ी फुर्त थीं। घर – गृहस्थी का सारा काम वो खुद करती थीं। नाना को किसी काम में हाथ लगाने न देती थीं। ख़ैर, घर के पीछे , आगे जैसा ही नज़ारा था। लेकिन मुझे घर के आगे ही खेलने – कूदने में आनंद आता था।
उन दिनों मैं आठवीं का छात्र था। पढ़ने में मन ज़रा भी न लगता था। दिन भर कैरम- लूडो खेलता रहता था अपने कई सारे दोस्तों के साथ। मां गृहस्थी के कामों में उलझी रहती थीं। हर वक़्त काम में भिड़े रहना उन्हें अच्छा लगता। ख़ैर , मैं उबाऊ इम्तिहान के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रहा था। किसी तरह दिन गिन- गिन के इम्तिहान ख़त्म हुए और मैंने शाजापुर की ट्रेन पकड़ी और सीधे नाना के घर के सामने था। यहां मैं एक बात बताना चाहता हूं , वह यह कि मेरे पिता मेरे इम्तिहान से छ: माह पहले पता नहीं किस बीमारी की गिरफ़्त में आ गए कि उन्होंने खाट पकड़ ली। हाथ- पैर कहें समूचा शरीर सुन्न हो गया। इस बीमारी का कहीं इलाज न था।हर जगह दिखलाया गया मगर बेकार। वे टुकुर- टुकुर हम सबको देखते किन्तु बोल न पाते।सारे काम उनके खाट पर होते। मां हर वक़्त उनकी सेवा – टहल में थीं। अब वह और भी व्यस्त हो गई थीं। नाना- नानी चाहते थे कि हम शाजापुर शिफ्ट हो जाएं किन्तु पिता के इलाज के चलते ऐसा संभव न था। पिता की बीमारी के कारण मेरा इस बार शाजापुर जाना टल सकता था। ऊपरी मन से मैं शाजापुर न जाने का नाटक कर रहा था किन्तु अंदर से जाने के लिए बेकरार था। यह बात मां समझ रही थीं इसलिए उन्होंने मुझे ठेल- ठाल के जबरन भेज ही दिया। ज़ाहिर है, मेरी ख़ुशी का ठिकाना न था। ख़ैर, नाना- नानी मुझे देखकर बहुत ख़ुश हुए। दोनों मेरे इंतज़ार में थे।
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नाना के घर आए एक हफ्ता भी नहीं बीता था कि एक घटना घट गई जिसके कारण मुझे भोपाल भागना पड़ा। भारी मन से। इस घटना से मैं इतना दुखी हुआ कि फिर मैं शाजापुर नहीं गया। गया भी तो नाना की मौत पर । इस पर दुर्भाग्य यह था कि नाना का अंतिम दर्शन तो दूर रहा , उनके घर तक नहीं पहुँच पाया। स्टेशन से ही मुझे लौटना पड़ा था , मुंह छिपाकर।
बात यों हुई कि हाल ही में हुए जिगरी दोस्त , गुन्नू के साथ मैं बाहर पेड़ों की चितकबरी धूप- छांह में फुटबाल खेल रहा था । नाना हमारे रेफरी थे। सहसा नानी के आवाज़ देने पर नाना खेल के बीच में अंदर चले गए यह कहकर कि खेल अभी बंद रहेगा, मेरे लौटने पर शुरू होगा; लेकिन हम माने नहीं, खेल जारी रखा। मैं हार रहा था , गुन्नू जीत। मुझे हारना सहन नहीं हो रहा था , वह भी अपने घर, नाना के घर में। मैं बेहद चिड़चिड़ा उठा था। और आख़िर में गुन्नू से लड़ पड़ा। एक- दो गोल होते तो कोई बात न थी ,पूरे बीस गोल ! मैं गुन्नू को मार बैठा। गुन्नू ने पहले इसे मज़ाक़ में लिया लेकिन दूसरे फैट पर वह गुस्से में आ गया । जवाब में उसने मुझे कई करारे फैट मारे। इस बीच नाना आ गए और हमें अलग किया। गुस्से में मैं वहीं पीपल के पेड़ के नीचे ज़मीन पर पसर कर बैठ गया। गुन्नू भुनभुनाता चला गया ,नाराज होकर कभी न आने की कहकर। नाना मुझे समझाने लगे कि खेल में कभी लड़ना नहीं चाहिए। वे समझाते हुए घड़ीवाला हाथ उठा- उठाकर बोल रहे थे । नाना इंतहा गोरे थे। हाथ उनका बहुत ही सुंदर लग रहा था।
यकायक मैं मुस्कुरा उठा। नाना समझे कि मैं उनकी समझाइश पर मुस्कुराया, इसलिए वे भी मुस्कुरा दिए और गढ़े की ओर बढ़ गए जिसके गिर्द बहुत सारे पंछी चहचहा रहे थे।
मैं नाना को पेड़ों के बीच से जाता देख रहा था।पेड़ों के बीच टॉर्च जैसी लाइट की बौछार में वे छाया जैसे डोलते दीख रहे थे। एक जगह ठहरकर छाया ज़मीन पर गिरी सूखी लकड़ियां उठाने लगी और एक तरफ़ को जमाने लग गई। छाया से नज़र हटाकर मैंने घर की ओर देखा जिसके खपरैल पर पता नहीं कहाँ से एक जंगली कबूतर आ बैठा और गला फुला – फुलाकर ज़ोर- ज़ोर से गुटुर- गूं करने लगा। एक टिटहरी मेरे सिर के ऊपर से आवाज़ करती पंखों की हवा मारती गुज़री। मेरे सामने एक गिलहरी थी जो अंजुरी में कुछ लिए खा रही थी ,मुझे देखते हुए। सहसा वह तेज़ गति से पीपल के पेड़ पर सर्रा के चढ़ी तो मैं पीपल के पेड़ को ग़ौर से देखने लगा। पेड़ में हर तरफ़ हरे- हरे, ललछौंह- से निहायत ही चिकने पत्ते थे। ठण्डी हवा से थरथरा रहे थे। सहसा मुझे पता नहीं क्या सूझा, मैं उठ खड़ा हुआ और पेड़ पर चढ़ने लगा। मैं बहुत ही सम्हलकर चढ़ा और चढ़ता – चढ़ता पुलुई तक आ गया। यहां से नीचे का नज़ारा बहुत ही सुंदर था। पुलुई पर ही एक घोंसला था – बहुत ही सुंदर और मज़बूत। ऐसा था जैसे लोहे के बारीक़ – बारीक़ तारों से गूंथकर बनाया गया हो। घोंसले की शक्ल मशालनुमा थी। उस वक़्त उसमें कोई पंछी नज़र नहीं आ रहा था। आस- पास भी नहीं। किसी बड़े पंछी का घोंसला लगता था। शायद उस कौवे का था जो आंगन की मुँड़ेर पर सुबह- सुबह खाने की डौल में दीखता था। सहसा पता नहीं, गुन्नू से हार की चिढ़ थी , उसका बदला यहां लेना चाहा। मैंने घोंसले को हिला डाला। जैसे गुन्नू को मार रहा होऊं।घोंसला न हिला। ज़ोरों का मुक्का मारा तब भी न हिला। फिर पता नहीं क्या फ़ितूर चढ़ा कि उसे उखाड़ फेकना चाहा। कोशिश की लेकिन ऐसा कुछ न हो सका। इतना ज़रूर हुआ कि घोंसला अस्त- व्यस्त हो गया। मैंने एक टहनी तोड़ी और ज़ोर- ज़ोर से उस पर वार करने लगा। वार का असर हुआ। घोंसले की मजबूती ढीली पड़ गई। वह अपनी जगह से हिल गया। और उसके अंदर से दो – तीन चूजे चीं- चीं करते मुंह खोले फड़फड़ाने लगे कि तभी वह कौवा आ गया जिसका घोंसला था। फिर क्या था, घोंसले की हालत देख कौवे की आंखों में जैसे आग भर गई हो। उसका समूचा शरीर क्रोध से कांप- सा उठा।और उसी के बहाव में वह ऐसा चिल्लाया कि क्षण भर में सैकड़ों की तादाद में कौवों का हुजूम इकट्ठा हो गया।
नाना नीचे खड़े थे। भारी नाराज़। हाथ के दोनों पंजों से वे मुझे सम्हलकर नीचे उतर आने का संकेत कर रहे थे। नानी भी उनके पीछे आ खड़ी हुई थीं, सिर का आंचल सम्हालती।
मैं नीचे उतरने को हुआ कि इस बीच उस कौवे ने भारी चिल्लाहट के बीच मेरे मुँह पर दोनों पंजे मारे और पंख फड़फड़ाते हुए पंजों में सिर के बाल पकड़ लिए। दोनों पंजों में बाल भरे हुए थे ,सिर पर बैठना संभव नहीं था इसलिए बेतरह पंखों को फड़फड़ाता वह सिर पर चोंच मारने लगा। जैसे रोते हुए गुस्से में कह रहा हो – हाय! हाय ! मेरा ठीहा चौपट कर डाला । मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। तेरा सत्यानाश हो जाए कमीन ! अब मैं तुझे कहीं का न छोड़ूंगा। वो गत बनाऊंगा कि जिंदगी भर याद रखेगा कि किसी का घर उजाड़ने और उनके बच्चों को मार डालने का नतीजा क्या होता है…
नीचे से नाना के चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं।वे कौवे को डराना चाह रहे थे। ईंटे की झूठी मार – सी करते हवा में हाथ लहरा रहे थे। अब मैं बहुत सारे कौवों से घिरा था जो भयंकर रोर करते , झपटते हुए पंजों और चोंचों से मुझे घायल करना चाहते थे। घोंसलेवाला कौवा चमगादड़ की तरह अब मेरे चेहरे पर झूल गया था , बावजूद इसके वह मेरी आंखों पर चोंच से मारने का कोई मौक़ा गंवाना नहीं चाहता था।मुझे काटो तो ख़ून नहीं। लग रहा था कि यह कौवा चोंचों की मार से सिर छेद डालेगा। आंखें फोड़ डालेगा और तब मैं नीचे ज़मीन पर गिर पड़ूंगा और…
इस बीच कौवे ने मुझ पर इतनी चोंच मारीं कि सिर में ठण्डा- ठण्डा- सा एहसास हुआ। कुछ गीला- गीला- सा लगा। यह ठण्डा- गीला एहसास होंठों के कोरों तक था। सहसा होंठों के कोरों पर खारापन- सा लगा। हथेली लगाई तो ख़ून था जो सिर से होता हुआ माथे, आंखों ,गाल के रास्ते मुँह के कोरों से सरकता छाती पर टपक रहा था।
थोड़ी देर बाद मैं बेहोश था और नाना की खाट पर पड़ा था। नानी रो रही थीं मेरे सिर पर पंखा झलते हुए। नाना सिरहाने खड़े थे ,अफ़सोस में डूबे। उनकी आंखों में रोष था। घोंसला नोचने से वे नाराज थे और अंदर ही अंदर इस बात से ख़ुश कि किसी का घर उजाड़ने की सज़ा लाज़िमी थी। मैं शर्मिन्दगी में था और नाना से आंखें मिला नहीं पा रहा था। वहीं नानी थीं जिनकी आंखों में गुस्सा था कौवे के लिए नहीं, नाना के लिए जिनके पंछी – प्रेम ने नाती की दुर्गति करवा दी। और अब अंदर ही अंदर ख़ुश हैं।
मैं पुलुई से नीचे आ गिरा था। आश्चर्य था कि इतने ऊपर से गिरने के बाद भी मुझे कोई गंभीर चोट नहीं लगी थी। नाना की सफ़ेद भौंहों के अंदर से झांकती चमकती अनुभवी आंखों ने स्पष्ट कर दिया था कि घबराने और डाक्टर के पास जाने की ज़रूरत नहीं।ऊपरी चोट है, घर में इलाज हो जाएगा।
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एक माह लग गया मुझे ठीक होने में।
चोट की वजह मैं घर में ही क़ैद था। बाहर नहीं निकल पाया। ज़्यादातर मैं खाट पर पड़ा रहता। उठा ही न जाता था। नाना- नानी बहुतेरी औषधियों का मेरे शरीर पर दिन में कई बार लेप करते। बर्फ़ और गर्म पानी से सिकाई करते। तीमारदारी करते नाना को देखकर लगता जैसे अफ़सोस में हों। अंदर से भारी दुखी। जैसे सोच रहे हों कि मुझे कुछ ज़्यादा ही सज़ा मिल गई। जो कुछ घटा नादानी थी। मैं कराहता। सोने का प्रयास करता लेकिन सो नहीं पाता। रोशनदान और कांच की खिड़कियों पर अक्सर किसी परिंदे के फड़फड़ाने और चोंच मारने की आवाज़ें आती रहतीं।एक दिन नाना ने बताया कि वह कौवा है जो तुम्हारी टोह में बेचैन इधर- उधर डोलता रहता है।
धीरे-धीरे तकलीफ़ कम होती गई और मैं स्वस्थ महसूस करने लगा।
एक दिन जब नाना-नानी पिछवाड़े थे, तरकारी तोड़ रहे थे , मैं खाट से उठा और धीरे- धीरे चलता दरवाज़े तक आ पहुंचा। जालीदार दरवाज़े से बाहर का दृश्य हल्के नीले मर्तबान में होने का – सा एहसास दिला रहा था। मैं अपने को रोक न सका। धीरे से सिटकनी नीचे सरकायी और बाहर आ खड़ा हुआ।
बाहर खड़े होते ही लगा जैसे शरीर में जान आ गई हो । मैं प्रफुल्लता से भर उठा था। अंदर की तुलना में बाहर ठंडक थी। बहुत ही सुंदर , ठंडी हवा बह ही थी जिसमें फूलों की भीनी सुगंध बसी थी। मैंने ज़ोरों की सांस ली और पीपल की उस पुलुई की ओर देखा जिस पर मैं चढ़ा था। वहां काली पन्नी- सा हिलता कुछ दिखा। वह पन्नी नहीं, कौवा था।
इस बीच पता नहीं क्या हुआ, कौवा यकायक ज़ोरों से चिल्लाया मानों साथी कौवों को इकट्ठा होने के लिए हांक लगा रहा हो। फिर तीर की तरह सन्नाता मेरी ओर उड़ता आया। भयंकर गुहार के बीच अनचित्ते में उसने अपने दोनों पंजों से मेरे सिर के बाल पकड़ लिए और सिर पर ज़ोर – ज़ोर से चोंच मारने लगा , पंख फड़फड़ाते हुए।
जब तक नाना- नानी पीछे से दौड़े आते , सैकड़ों कौवे इकट्ठा थे और मैं पीपल के नीचे घायल पड़ा था।
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भारी मुश्किल के दिन थे।
नाना- नानी परेशान।आस-पास के लोग, ख़ासकर गुन्नू भी परेशान। कुछ भी करने में असमर्थ। अवाक और लाचार। गुन्नू मेरे पास आकर बैठता और एक ही बात दोहराता कि कौवा सृजन से ख़ारखाया है, मुझे देखता है , मेरे साथ कोई गड़बड़ नहीं करता।
मैं किसी भी सूरत में घर से बाहर नहीं निकल पा रहा था। कौवा ताक में जो बैठा था। कहीं छिपा हुआ। कह सकते हैं कि कौवे ने मेरा जीना मुहाल कर दिया था। मैं उससे माफ़ी मांगना चाहता था। वह किसी भी सूरत में मुझे माफ़ करने को तैयार नहीं था। सैकड़ों कौवे उसके साथ थे, मरने- मारने को तैयार।
*
छुट्टियां ख़त्म हुईं और स्कूल खुल गए थे।
अब मेरा यहां से निकलना लाज़िमी था। निकलें कैसे ? यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। नाना ने एक रास्ता निकाला। पड़ोसी गिरधर की बंद जीप बुलाई गई। गिरधर खुद चला रहे थे। फटाफट तैयार होकर मैं उसमें बंद हो गया। आश्चर्य ही किया जा सकता है कि मेरे जाने की भनक कौवे को लग गई थी और वह अपने बहुत सारे साथियों के साथ भयंकर शोर मचाता जीप का पीछा करता रहा। यही नहीं जिस ट्रेन के डिब्बे में मैं बैठा , वहां भी कौवा आ पहुंचा था।
और आक्रामक मुद्रा में था। साथी कौवे भी उसके साथ थे।
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तीन- चार महीने गुज़रे होंगे कि घर में एक दुखद ख़बर आई। नाना गुज़र गए।
बड़ा संकट था। पिता को छोड़कर मां शाजापुर जाने में असमर्थ थी। रोकर रह गई। मुझे ही नाना के क्रिया- कर्म की सारी रस्में पूरी करनी थीं। मैं कौवे से डरा हुआ ज़रूर था लेकिन यह बात अंदर से बलवती थी कि काफ़ी समय गुज़र गया है ,कौवा भूल- भाल गया होगा। कौन इतने दिनों तक दुश्मनी पाल के रखेगा! यह सोचकर मैं निश्चिंत था। बात मन से निकल गई थी।
मैं ट्रेन में बैठा और शाजापुर रेलवे स्टेशन पर उतरा कि पता नहीं कहां से वह कौवा आ गया। सोचता हूं, नाना के मौत की ख़बर कौवे को थी और उसे इस बात की भी चेतना थी कि मैं नाना का क़रीबी हूं। जिस रास्ते गया हूं, उसी रास्ते लौटूंगा । मौत पर तो ज़रूर ही आऊंगा। सो वह स्टेशन पर पहले से आ डटा था। मेरा इंतज़ार- सा करता। फिर क्या था, मुझे देखते ही वह बदहवास हो गया और ऐसा रोर मचाया कि पलक झपकते ही सैकड़ों कौवे स्टेशन पर आ गए।
कौवों का जबरदस्त शोर और मोर्चाबंदी।
मैं बेतरह डरा हुआ। कांपता और बेहाल।
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नाना का शव अंतिम संस्कार के लिए मेरा इंतज़ार कर रहा था और मैं था इतना डरा , भयभीत कि इतनी हिम्मत न जुटा पाया कि स्टेशन मास्टर के कांचवाले केबिन से बाहर निकल सकूं।
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अच्छी लगी। नाना उस आखिरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो पक्षियों से प्रेम करते थे। उनकी मौत से यह आभास होता है कि अब कौंवो और सृजन के बीच द्वेष ही रहेगा। कौवों का सृजन से बदला लेना अतिरेक तो लगता है लेकिन संतोष भी देता है।