बड़े फ़लक की हैं ये कहानियाँ!
निर्मल वर्मा हिन्दी में सबसे अधिक पढ़े और पसन्द किए जाने वाले लेखक हैं। अधिकांश पाठकों और आलोचकों का भी यह मानना है कि उनकी कहानियाँ गहरा प्रभाव छोड़ती हैं-पढ़ते समय भी और पढ़ने के बाद भी। नामवर सिंह तो यहाँ तक कहते हैं कि उनकी लगभग तमाम कहानियों का प्रभाव एक-सा होता है। यह प्रभाव इतना गहरा होता है कि इनके सामने न चरित्र याद रहते हैं न घटनाएँ। मूल सवाल यह है कि प्रभाव याद रहना चाहिए या चरित्र? हिन्दी में ऐसी बहुत-सी कहानियाँ लिखी गईं और लिखी जा रही हैं, जिनमें अजीब-अजीब चरित्र दिखाई पड़ते हैं, ये चरित्र आपके हमारे जीवन के चरित्र नहीं होते, ये किस दुनिया से आते हैं, इसे जानना बेहद मुश्किल काम है। चरित्र प्रधान ऐसी कहानियों में कहानी का प्रभाव न पड़कर कहानीकार का प्रभाव ही पड़ता है। अपने प्रभाव के चलते ही आज बहुत से ऐसे कहानीकार हैं, जिनका उद्देश्य चमत्कार पैदा करना है, चमत्कार के लिए ये कथाकार कोई भी ‘नाटकीय मोड़’ कथा में ला सकते हैं और लाते हैं। इस तरह की कहानियाँ पढ़ते-पढ़ते पाठक चौंकने का आदी हो जाता है और हर कहानी में ‘चमत्कार’ की उम्मीद करने लगता है। यह स्थिति हिन्दी कहानी के लिए सुखद नहीं मानी जानी चाहिए। यह भी अकारण नहीं है कि आज का हिन्दी कहानीकार इस ‘चमत्कार’ को ही सार्थक और सफलता का गुण मानने लगा है। नामवर सिंह एक और बात कहते थे कि कहानी का वातावरण (परिवेश) अलंकरण मात्र नहीं है, बल्कि अन्तःकरण है। निर्मल वर्मा की कहानियों पर (उपन्यासों पर भी) यह बात पूरी तरह लागू होती है। यही वजह है कि उनका लेखन आज भी अपना प्रभाव छोड़ता है। निर्मल की परम्परा का निर्वहन करने वाले लेखक और उनका लेखन आपको अपने आसपास दिखाई दे जाएगा।
कहानी की एक और धारा वह है, जिसमें लेखक अपनी पैनी दृष्टि से अपने आसपास घट रही किसी भी घटना में कहानी ढूंढ़ने की क्षमता रखता है। रूसी लेखक चेखव भी कहा करते थे कि वह किसी भी सामान्य घटना में कहानी तलाश कर लेते हैं। यही वजह है कि उनकी कहानियों में बेहद सामान्य और छोटी घटनाएँ होती हैं। हिन्दी में कई लेखकों को इसी परम्परा का माना जा सकता है। इस कड़ी में मधुसूदन आनन्द एक महत्वपूर्ण नाम है। उनकी पहली कहानी 1979 में सारिका में प्रकाशित हुई थी। लिखते हुए उन्हें चार दशक से ज्यादा बीत चुके हैं। उनका पाँचवां कहानी संग्रह-क़ब्रिस्तान में कोयल-हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इससे पहले उनके चार कहानी-संग्रह-करौंदे का पेड़, साधारण जीवन, बचपन और थोड़ा-सा उजाला प्रकाशित और चर्चित हो चुके हैं। मधुसूदन आनन्द के पास एक नितांत अलग शिल्प है। छोटे-छोटे वाक्यों से वह पूरा परिवेश रचते हैं। उनकी कहानियों के किरदार भी अमूमन आम लोग ही होते हैं। जीवन की तरह उनकी कहानियाँ चलती हैं। कहानी कहाँ है और क्या है, यह आपको पूरी कहानी पढ़ने के बाद ही पता चलता है। उनकी कहानियों में ‘जादू’ या ‘चमत्कार’ नहीं होता। लेकिन वे इतनी ‘क्रिस्प्ड’ होती हैं कि उन्हें सम्पादित किया जाना लगभग असम्भव है। स्मृतियों या किरदारों के बहाने वह समय और समाज के बड़े सवालों को सहजता से सामने रखते हैं। उनकी कहानियाँ एक स्तरीय भी नहीं होतीं, वह जो बात कह रहे हैं, उसके समानांतर भी कुछ कह रहे होते हैं। उनकी कहानियों का प्रभाव क्षणिक नहीं होता। बल्कि एक बार पढ़ने के बाद वह जीवन भर बना रह सकता है।
‘क़ब्रिस्तान में कोयल’ में 15 कहानियाँ हैं। इन कहानियों में अलग-अलग समय का यथार्थ है और उस यथार्थ का बदलते जाना भी है। निजी तक़लीफ़ को कैसे समाज और दूसरे लोगों की तक़लीफ़ बनाया जा सकता है, यह बात ‘नन्नू की गुड़िया’ कहानी में देखी जा सकती है। कोलोन (जर्मनी) में एक भारतीय परिवार रहता है। उनकी एक छोटी बेटी है नन्नू। उसके पास एक गुड़िया है। गुड़िया के विपरीत नन्नू चंचल है। नन्नू गुड़िया को थपकी देकर सुलाती है। उसे अपनी क़िताब पढ़ाती है। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर होता है। नन्नू दुनिया को छोड़कर चली जाती है। गुड़िया रह जाती है। अपना दुख यह दंपती अखबार में छपी उन ख़बरों में तलाशते हैं, जो बताती हैं कि एक ग़रीब और अकेला असहाय आदमी साइकिल के कैरियर पर बच्चे की लाश लिए जा रहा है, उसे दफ़नाने के लिए। अब न कहीं जर्मन गुड़िया की आवाज़ है, न नन्नू की। आनन्द जी मार्मिक कहानियाँ आमतौर पर नहीं लिखते, लेकिन इस कहानी में नन्नू की मृत्यु का दुख किसी को भी दुखी कर सकता है-करता है। आनन्द जी के सरोकार हाशिये पर रहने वालों से भी गहरे जुड़े हैं। यही वज़ह है कि वे ‘क़ब्रिस्तान में कोयल’ जैसी कहानी लिख पाए। कहानी में वाचक दिल्ली में एक ऐसे दफ्तर में काम करता है, जहाँ खिड़की से क़ब्रिस्तान के पेड़ दिखाई देते हैं। अख़बार के इस दफ़्तर में वाचक से मिलने आने वाले लोग पेड़ों को देखते हैं तो कहते हैं-क्या हराभरा दृश्य है, सचमुच का। वाचक का मन खुशी से भर जाता है। वह उन्हें नहीं बताता कि इस दृश्य के नीचे क़ब्रिस्तान है। ‘इस दृश्य के नीचे क़ब्रिस्तान है’ इस वाक्य के निहितार्थ क्या हो सकते हैं। क्या लेखक यह संकेत दे रहा है कि जितनी भी खुशहाली दिखाई दे रही है, उसके नीचे दुखों का क़ब्रिस्तान है या इस वाक्य का अर्थ यह है कि अख़बारों की दुनिया लोगों के शवों पर खड़ी है या इस वाक्य का इशारा वर्ग-संघर्ष को चित्रित करता है! कहानी में वाचक कोलोन शहर में अपने प्रवास के दौरान क़ब्रिस्तान देखता है। वह वहाँ लोगों को कॉफ़ी पीते, चाय पीते और आइसक्रीम खाते देखता है। वह क़ब्रों पर आने वाले लोगों की निरपेक्षता को देखता है। वाचक को लगता है कि आदमी मरने के बाद भी बने रहना चाहता है। कोलोन से, वाचक एक दिन अनायास दफ़्तर के पिछवाड़े के क़ब्रिस्तान में पहुंच जाता है। क़ब्रिस्तान में उसे कोयल की मीठी आवाज़ सुनाई पड़ती है। अधिकांश क़ब्रों पर न किसी का नाम था न पता। न जन्म की तारीख़ न मरण की तारीख़। जैसे अनाम वे जिए। वैसे ही अब यहाँ मुर्दों की बस्ती में रहते हैं। मरकर वे और भी अप्रसांगिक हुए। कहानी के अंत में वाचक को रूसी कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा की पंक्ति याद आती हैः जो क़ब्रों में सोए हुए हैं क्या वो सच में मर चुके हैं और जो क़ब्रों के बाहर हैं क्या वे सचमुच ज़िंदा हैं? यह एक ऐसी कहानी है जो बहुत से सवाल उठाती है। मनुष्य जिस तरह जी रहा है, क्या उसे ज़िंदा कहा जा सकता है? क्या अनाम-सी ज़िन्दगी जीने वाले अनाम मौत ही मर जाते हैं? क्या जीवन के चिन्ह क़ब्रिस्तान में ही दिखाई पड़ते हैं?
मधुसूदन आनन्द अपनी कहानियों के जो विषय चुनते हैं, वह भी जीवन से बाहर नहीं होते। इनमें सहज क़िरदार होते हैं, खान-पान, रहन-सहन, मनुष्य के दुख-सुख, उसकी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ और तक़लीफ़ें होती हैं। और होता है बदलता परिवेश। ‘पोर्क’ एक ऐसे परिवार की कहानी है, जो पाकिस्तान से लुटपिट कर गुजरांवाला से भारत आया है। वाचक की एक बुआ(चन्दो) की शादी सरदारों के परिवारों में कर दी गई थी। वाचक और उसके परिवार को एक सांस्कृतिक झटका लगता है। कहां सनातनी शाकाहारी परिवार और कहाँ ‘सब कुछ’ खाने वाले सरदारों का परिवार। विभाजन के बाद सरदारों का यह परिवार भारत के अनेक हिस्सों में रहा। सरदार जी अंतिम समय तक विभाजन की पीड़ा नहीं भूल पाते। वह रेलवे स्टेशन पहुँच जाते और अमृतसर जाने वाली गाड़ी का इंतज़ार करते। वह अक्सर बड़बड़ाने लगते ‘गुजरांवाला-गुजरांवाला’। लेकिन कहानी विभाजन की पीड़ा की नहीं है। कहानी चन्दो की है जो एक सनातनी परिवार की लड़की थी और जिसे सरदारजी (मांसाहारी) के साथ जीवन बिताना पड़ा। बाद के समय में सरदारजी और उसका बेटा घर पर ही मीट बनाने लगे। जब एक दिन घर में ही पोर्क बना तो चन्दो ने सरदार जी और अपने बेटे को घर से बाहर निकाल दिया। सरदारजी की एक दिन सिस्टी सिरकोसिस नामक बीमारी से मौत की ख़बर बुआ को मिलती है। कुछ दिन बाद बुआ की भी मौत हो जाती है। बुआ सरदारजी और अपने बेटे को अन्तिम संस्कार के अधिकार से वंचित करके जा चुकी होती है। ‘कहानी का अन्तिम वाक्य है पहली बार लगा कि चिता पर चढ़ने से पहले बुआ मुस्कराई थी।’ यह मुस्कराहट मुक्ति की भी हो सकती है और अपने संघर्ष पर विजय की भी। या इस बात की भी कि मैंने तुम लोगों से बदला ले लिया।
आनन्द जी की कहानियों के विषय इतने छोटे (लेकिन फ़लक बड़ा होता) होते हैं कि लगता ही नहीं उनपर कहानी लिखी जा सकती है। ‘देखना’ कहानी में वह देखने के हमारे नज़रिये और सौंदर्य बोध पर बात करते हैं। वह कला और कलाकृतियों को देखना और समझना सिखाते हैं तो ‘बड़ा फूल’ कहानी में वह दिखाते हैं कि बच्चों से प्यार न करने वाला व्यक्ति फूलों से भी प्यार नहीं कर सकता। कहानी में एक जगह आता है-‘आपकी आँखें एक खास कोण पर ही सैट हैं; जो सुन्दर चीज़ें ही देखना चाहती हैं। आपके पास आत्मा नाम की चीज़ नहीं है। तब विकार मेरी पकड़ में आ जाता है। मामला आभिजात्य वर्ग की ओढ़ी हुई श्रेष्ठता का ही नहीं है। मामला यह है कि चीज़ों को सुन्दर बनाने में उसने अपनी आत्मा का असौंदर्यकरण कर लिया है। वह कोई भी ऐसी चीज़ नहीं देखना चाहता जो बाहर से भद्दी हो। इस तरह उसने देखना ही बन्द कर रखा है। वह अपने ही दृश्य में क़ैद है’। आनन्द जी सुन्दरता को ‘कॉन्स्टेन्ट टर्म’ नहीं मानते। ‘लम्बे बालों वाली लड़की’ में नायक लम्बे बालों वाली एक लड़की को पसन्द करने लगता है। बाद में दोनों की शादी भी हो जाती है। लेकिन एक दिन(लगभग चालीस साल बाद) नायक देखता है कि पत्नी के बाल तेजी से गिर रहे हैं। नायिका कहती है ‘इस पृथ्वी पर जो कुछ भी नौसर्गिक है, वह सुन्दर है। सारे पेड़-पौधे; वन उपवन; नदी, पहाड़, झरने, जीव जन्तु सभी अपने आप में सुन्दर हैं। मैं तो कहती हूं श्रम भी एक विकल सौंदर्य रचता है।’ आगे वह कहती है, हम दोनों लम्बे बालों को तो याद करते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि सृष्टि की तरह हमें भी एक दिन झरना है, नष्ट होना है।
प्रकृति और जीव जन्तुओं के प्रति प्रेम आनन्द जी कहानियों में ख़ूब दिखाई देता है। ‘मेंढक’ कहानी में मुन्ना के पिता कॉलेज में मेंढक स्पलाई करते हैं। वह मुन्ना को मेंढक लेने के लिए सहारनपुर भेजते हैं। मुन्ना मेंढक ले आने के बावज़ूद उन्हें नदी में बहा देता है। बहुत से जीवों की प्रजातियाँ लगातार नष्ट होती जा रही हैं। आनन्द जी इन प्रजातियों को बचाने का ही प्रयास इस कहानी में करते दिखाई देते हैं।
मधुसूदन आनन्द लगभग पाँच दशक से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। वह रेडियो और टेलीविज़न से भी सक्रिय तौर पर जुड़े रहे। लेकिन दिलचस्प बात है कि उनकी कहानियाँ पत्रकारिता की दुनिया से नितांत अलग रहीं। उनकी कहानियों में सूचनाएँ उस तरह नहीं आतीं, जिस तरह दूसरे कहानीकार सूचनाओं को ‘फिलर’ की तरह इस्तेमाल करते हैं। साथ ही वह घटने वाली घटना पर तुरंत कहानी नहीं लिखते। वह घटना को घटने देते हैं, समाज पर उसके प्रभाव को दखते हैं, यह देखते हैं कि निजी जीवन में उस घटना का क्या प्रभाव पड़ रहा है। तब वह कहानी लिखने की सोचते हैं। बाज़ार को बढ़ते, फैलते और ड्राइंगरूम तक आते सबने देखा है। आनन्द जी ने बाज़ार के दुष्परिणामों पर एक छोटी-सी कहानी लिखी ‘रैंप पर कैटवॉक’। इस कहानी में बेहद सहजता से दिखाया गया है कि कैटवॉक जैसे ईवेंट बच्चों पर क्या असर डाल रहे हैं। इसी तरह ‘पिस्तौल’ कहानी में वह दिखाते हैं कि बेरोजगारी किस तरह युवाओं को नक्सलवाद और माओवाद की तरफ धकेल रही है। कहानी का नायक नौकरी मिलते ही बदल जाता है और जुगाड़ करके पहले पढ़ने के लिए अमेरिका चला जाता है। बाद में अमेरिका ही उसके सपनों का देश बन जाता है। वह वहाँ ख़ुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है। कहानी से बाहर निकलकर आप देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसे ‘कॉमरेडों’ की भरमार है, जो बाद में पूंजीपतियों के साथ खड़े दिखाई पड़ते हैं। ‘हसन कहाँ रहता है?’ कहानी में यह दिखाया गया है कि किस तरह स्कूल के छोटे बच्चों तक के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता का बीज बोया जा रहा है। आनन्द जी अपनी स्मृतियों में ठहरे कुछ किरदारों की कहानियाँ भी कहते हैं। मंगत, बिच्छू और सुरैया का किशोर प्रेमी ऐसी ही कहानियाँ हैं। इन कहानियों को पढ़कर आपके ज़ेहन में तीन चार दशक पहले का समय जीवित हो जाता है। साथ ही आनन्द जी इन कहानियों के माध्यम से बदल गए या बदल रहे मूल्यों-यथार्थ को भी पकड़ते हैं।
इस पूरे संग्रह को पढ़ने के बाद यह बात साफ़ हो जाती है कि मधुसूदन आनन्द महज़ परिवेश (वातावरण) के कथाकार नहीं हैं, बल्कि वह अंतःकरण के कथाकार हैं। बेशक उनकी कहानियों में परिवेश इतना जीवंत होता है कि पाठक को अपनी आँखों के सामने कहानी की दुनिया घटित होती दिखाई देती है। भाषा का संयम उनके पास है और वह भाषा को बरतना जानते हैं। किसी भी कहानी में एक वाक्य तक को सम्पादित किए जाने की गुंजायश वह नहीं छोड़ते। उनकी कहानियों में जैसी ‘माइन्यूट डिटेलिंग’ है, वैसी सिर्फ कुप्रिन की कहानियों में दिखाई देती है। उनकी कहानियों में कहीं कोई ‘डायवर्ज़न’ नहीं है। इन कहानियों को पढ़कर युवा भाषा और ‘क्रिस्पनेस’ सीख सकते हैं और यह भी सीख सकते हैं कि कहानी को ‘डायवर्ज़न’ से कैसे बचाएँ। ये ऐसी कहानियाँ हैं, जिनका प्रभाव क्षणिक नहीं बल्कि लम्बे समय तक आपके साथ रहेगा।
पुस्तकः क़ब्रिस्तान में कोयल, लेखकः मधुसूदन आनन्द, प्रकाशकः संभावना प्रकाशन, रेवती कुंज, हापुड़-2023, मूल्यः 200 रुपए, पृष्ठः 144
सुधांशु गुप्त