निकहत ने टाइट जींस पहनी थी जिस पर छोटे आकार का टॉप उसके उभारों को इतना कसे था कि अधिक उत्तेजना से भर सके। मेहरून लिपस्टिक उसके होंठो को और आकर्षक बना रही थी। फ्लैट का दरवाजा मैंने ही खोला था। दरवाजा खोलते ही उसने पूछा –“डॉ. भूषण कहाँ है?” मैंने दूसरे कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा- “डॉ. भूषण वहाँ हैं, शरीर में गर्माहट भरने के लिए ब्रांडी के पैग ले रहे हैं।“ जाड़े क़ी कुनमुनी धूप जैसे मेरे पूरे बदन को कंपकपा रही थी, बिलकुल उसी तरह निकहत के शरीर में भी कपकपी थी। ”आप मेरे लिए भी पैग बना सकते हो?” -निकहत डॉ. भूषण के कमरे की और बढ़ते हुए बुदबुदाई। “लार्ज या स्माल”- मैंने मुस्कराकर पूछा।
”जैसा आप चाहें, साकी को इतनी छूट तो होनी भी चाहिए।” मैं दूसरा गिलास उठाने के लिए क्रोकरी शोकेस की ओर बढ़ जाता हूँ। निकहत चुपचाप डॉ. भूषण के कमरे में पड़ी छोटी गोल मेज के साथ बिछी चार कुर्सियों में से एक पर पसर गयी, कुछ पल उसने आँखें बन्द की, मेरे क़दमों की आहट से उसने आँखें खोल ली। मेरा गिलास पहले से ही रखा है, निकहत के आने से पहले ही मैंने गर्म पानी के साथ रम का लार्ज पैग बनाया था। डॉ. भूषण को ब्रांडी पसंद है लेकिन मैं पूरी सर्दियों रम ही लेना पसन्द करता हूँ। मैं अपनी कुर्सी पर बैठ उसके लिए पैग बनाता हूँ। गिलास उठाकर निकहत को देता हूँ, उसकी अंगुलियाँ गिलास पकड़ते हुए मेरी अँगुलियों को छूती हैं, मेरी उंगलियों का कसाव बढ़ सा गया है, लेकिन निकहत के चेहरे पर कोई भाव दिखाई नहीं देते। मेरी निगाहें उसकी निगाहों से टकराती हैं, अगले ही पल मैं अपना हाथ हटा लेता हूँ। मैं अपना पैग उठा शिप करने लगता हूँ। महसूस होता है मानो वह कह रही हो-सोमेश बाबू! इतना उतावलापन भी ठीक नहीं, इत्मिनान रखिये, साथ रहने के लिए पूरी रात बाकी है।“
”ये मेरे मित्र सोमेश हैं, पेशे से लेखक हैं, पत्रकार हैं।” -डॉ. भूषण ने अपनी चिरपरिचित शैली में फुसफुसाते हुए कहा। ब्रांडी के तीन-चार पैग उतर जाने के बाद वह कुछ ज्यादा ही फुसफुसाने लगता है। “निकहत! मेरा परिचय तो तुमसे कई सालों का है, सोमेश से तुम्हारी पहली मुलाक़ात है, ये मुलाक़ात बेहतरीन होगी ऐसी हम उम्मीद रखते हैं।“-कहकर वह हँसा।
जब कभी भूषण का परिवार बाहर होता, वह मुझे अपने पास बुला लेता। तब हम दोनों खूब पीते, मेरे घर में शराब और मटन पर पाबन्दी है तो जब कभी मौक़ा मिलता मैं ऑफिस से सीधे उसके पास चला जाता, यह हमारा मस्ती टाइम होता। मैंने जिन्दगी में बहुत से अच्छे और बुरे काम किये लेकिन आज जो भूषण ने प्लान किया उसमें मेरी भागीदारी पहली बार है, लेखक हूँ तो मेरी जिज्ञासा रही कि कभी किसी प्रॉस्टिट्यूट के साथ समय बिताया जाय। इस जिज्ञासा की वजह भी नहीं जानता लेकिन मेरे दोस्त भूषण ने वादा किया था कि वह मेरी इच्छा जरुर पूरी कराएगा, आज वह मौका आया है जब मैं किसी प्रॉस्टिट्यूट के साथ समय गुजारूँगा।
भूषण की कबर्ड में मेरा एक जोड़ा नाईट सूट रखा होता है, जो भूषण के यहाँ होने पर मैं पहनता हूँ। जब कभी हम मिलते हैं उसके नौकरों और फुल टाइम मेड की छुट्टी कर दी जाती है, हमारा समय मतलब सिर्फ हमारा।
आज ऑफिस से आकर कपड़े अभी नहीं बदले थे, पैग ख़त्म कर मैं कपड़े बदलने दूसरे कमरे मैं चला गया। जब वापिस आया तब तक दोंनो दो-दो, तीन-तीन पैग और निपटा चुके थे, दोनों सुल्फा भरी सिगरेट में कश लगा रहे थे। मैं कभी-कभी शौंकिया सिगरेट जरुर पी लेता हूँ लेकिन सुल्फे की गंध मुझे खराब लगती है। कमरा धुएँ से भरा था। भूषण जानता है मेरी परेशानी, उसने सिगरेट बुझा दी है।
बातचीत और पीने के दौर के चलते ग्यारह बजने को हैं, रात जितनी मोहक है, निकहत उसके कहीं ज्यादा मादक लग रही है। उसने मेरा हाथ पकड़ा और ड्राइंग रूम की तरफ चल पड़ी। महसूस हुआ- उसे इस फ्लैट की पूरी जानकारी है कि किधर ड्राइंग रूम है और किधर वाशरूम?
नाइन सीटर सोफ़ा पर्याप्त स्पेस लिए हुए है, जिसे जरुरत के वक़्त सोने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सके। मैं सोफ़े का फ़ौर सीटर हिस्सा चुनकर बैठ गया हूँ। निकहत ने मेरे गालों पर चुम्बन किया और फिर मेरा सिर अपने सीने में दुबका लिया। मैं सिर्फ उसे ऑब्जर्व कर रहा हूँ “शर्मालू,” कहकर निकहत हँस दी और मेरे बालों में अंगुली फिराने लगी। उस वक़्त मुझे अनीता की याद आई। अनीता की शादी के बाद से मैं उससे नहीं मिला। अनीता के दूर जाने के गम में ही मैंने पीना शुरू किया। बहुत पहले एक शाम अनीता को छत पर टहलते देख मैं उसके घर की छत पर चला गया था, उसने मुझे रोक लिया। बोली, ”कौन हो तुम अजनबी?” “आपके पड़ोस में शर्माजी के नए किरायेदार का इकलौता बेटा हूँ। आपको देखना अच्छा लगता है। आज आपको टहलते देखा तो चला आया।“, मैं एक साँस में बोल गया। अनीता ने मेरा हाथ पकड़ लिया था। मुझे काटो तो खून नहीं, एकदम सुन्न शरीर। पहली बार उसे इतने नजदीक से देखा, गोरे गाल, सुर्ख लब और काले-लम्बे घने बाल। उसके चेहरे पर मुस्कान थी। अनीता ने मुझे अपने बिलकुल पास खींच सवाल किया, ”प्यार करते हो मुझसे?” ”पता नहीं?” “पता नहीं तो फिर इतनी हिम्मत करके छत तक कैसे आ गए?” ”क्योंकि तुम्हारी आंखें बिल्कुल मन्दाकिनी जैसी हैं, तुमको देख मुझे मन्दाकिनी…।” “अच्छा” मैंने उसके गालों को छुआ ”बड़े हिम्मत वाले हो।” उसने कहा था। “मैंने अपने हाथ की हथेली देखते हुए कहा, “शायद गंदे हैं, आपके गाल मैले हो गये।“ “बुद्धुराम” अनीता खिलखिला कर हँस पडी थी।”
निकहत का शर्मालू कहना और अनीता का बुद्धुराम कहना मुझे एक जैसे जान पड़े। अनीता से दो चार मुलाकातें घर से बाहर भी हुई, काफी नजदीक आ गए थे हम, एक शाम मैं उसकी छत पर गया, उस दिन अनीता के घर कोई नहीं था, वह मेरा हाथ पकडकर खींचते हुए अन्दर ले गई। तिपाई के पास रखी कुर्सी पर बिठा अपनी बाहें मेरे गले में डाल खड़ी रही। मैं उठा तो सीने से लगा लिया, और पकड़ बढ़ाती चली गयी। अंगुलियाँ बालों में घूम गयी। दोनों का यौवन धीरे-धीरे पिघलकर एक-दूसरे के अन्दर सिमट गया। उसके बाद हम रोज ही मिलने लगे। शाम होते ही मैं उसके घर पहुँच जाता। उसकी माँ और पिताजी दोनों ही सरकारी दफ्तर में थे तो देर से आते। वो पल हम भरपूर जीते। अनीता अपना काम भी करती तो मैं कुर्सी पर चुपचाप बैठा उसको देखा करता।
निकहत ने मेरा चेहरा अपने हाथों में भरकर अपने लाल होंठ मेरे होंठो पर रखने चाहे, मैंने चेहरा पीछे को खींच लिया। सस्ती लिपस्टिक की गंध मेरे नथुनों में भर गयी। साथ ही सस्ते बॉडी परफ्यूम की गंध। निकहत ने कहा- “क्या हुआ साहेब, रंडीबाजी का शौक है तो फिर यूँ पीछे क्यों हट रहे? तुम्हें कैसे अच्छा लगता है, सॉफ्ट या हार्ड? जैसे कहोगे मैं …, अपने कस्टमर को खुश रखना मेरा फर्ज है।“ “नहीं…वो… तुम्हारी सस्ती लिपस्टिक और बॉडी परफ्यूम की गंध ने अटैक किया बस।“ “हमारा एजेंट जैसा सामान लाकर देता है, हम उसे ही इस्तेमाल करते हैं, चड्डी-ब्रा से लेकर कपल-किट सब वही लाकर देता है, उसे बस पैसे से मतलब है, खर्च करने में साले की फटती है।“, कहकर वह थोड़ा झेंप गयी। हँसी लेकिन फिर मेरे चेहरे को देखने लगी। किसी लेखक से साथ उसका पहला अनुभव था। “जाओ जाकर शावर ले लो।“- मैं कहता हूँ। “अकेले या आप भी चलेंगे?” “नहीं, तुम अकेले ही…, सस्ता मेकअप उतारकर आओ।“ मेकअप की गंध अब सिरदर्द कर रही थी। “दो मिनट में आती हूँ।”, वह वाशरूम की ओर बढ़ गयी। भूषण अभी भी पैग ले रहा था। निकहत बाहर आई तो टूपीस में थी। “ब्लैक ब्यूटी सस्ते लिबास में?”, अनायास मेरे मुँह से निकला। निकहत ने नजदीक बैठ फिर से मेरा सिर खींचकर अपनी गोद में रख लिया। उसकी उँगलियाँ मेरे बालों में, गले में, सीने पर उत्तेजना के साथ घूमने लगी।
“साहेब! आप लेखक हैं, कहानियाँ लिखते होंगे, कहाँ से लाते हो कहानी का मसाला?”- उसने यकायक सवाल पूछा। कोई और वक़्त होता तो ये सवाल अटपटा न लगता लेकिन किसी कस्टमर को निपटाते समय ऐसा सवाल? सोचकर एक बारगी मेरा माथा ठनका, अगले पल ख्याल आया- हम लेखक भी सवालों पर इतना सब सोचेंगे तो फिर दुनिया से सवाल होने ही बंद हो जायेंगे। “तुम जैसे सैकड़ों लोग हैं, जिनकी कोई न कोई कहानी होती है, लोग साझा करते हैं तो हम लोग लिखते हैं।“ –मैंने जवाब में कहा।
निकहत ख़ामोश बैठ गयी मानो चुपचाप कोई किताब पढ रही हो। मेरे गाल पर उसके आँसू की बूँद गिरने पर मैं चौंका। ”तुम रो रही हो निकहत?” मैं उठकर बैठ गया। उसने आँसू पौंछ लेने का अभिनय किया।
अनीता उस दिन बहुत रोई थी जब उसने अपनी शादी की तारीख तय होने का बताया था। ”ऐसा क्यों होता है, जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो शायद उसी पल बिछड़ने का समय भी तय हो जाता है।“-अनीता के आँसू रुक नहीं रहे थे। निकहत के आँसुओं में मुझे अनीता की सी सच्चाई दिखाई दी। कोई और पल होता तो शायद मैं ऊंघने लगता। लेकिन आँसुओं के साथ कोई ऊँघ भी कैसे सकता है? “रोना ही अब किस्मत है?”- निकहत ने कहा।
प्रॉस्टिट्यूट्स की जिन्दगी की कहानी मिलती-जुलती ही होती है, मैं सोचने लगा। उसके जवाब से मैं चौंका नहीं, चौंकने का भी एक क्षण होता है, यह क्षण वो क्षण नहीं था। रम के नशे ने मेरे शरीर में उत्तेजना भर दी थी, लेकिन निकहत का शरीर ब्रांडी और गर्म पानी में शावर लेने के बावजूद बर्फ की सिल्ली की तरह ठण्डा महसूस हुआ।” मैंने उसे पैरों से चूमना शुरू किया, मन्दम प्रकाश में भी उसका साँवला जिस्म मुझे लगातार उत्तेजित कर रहा था, उसके पैरो की फटी एडियाँ देख होंठ ठहर गए, एक एजीब सी वितृष्णा। मैं कुछ नहीं समझ पाया। निकहत ने पूछा -“क्या हुआ लेखक बाबू? क्यों रुक गए?” “ नहीं… वो फटी एडियाँ देख मन में …. ।“ “दिन भर काम में खटकना, चौक के नल से पानी लाना, इतने लोगों के कपडे, बर्तन, चौका.. इन सबमें शरीर बचा है ये क्या कम है बाबू! आपको फटी एडियों से घिन्न आ गयी।“- वह बुदबुदाई। मेरे मन में 6 हजार में खरीदी औरत की रंगत फ़िल्मी थी, जब नायक एडी से उरोजों तक चूमते हुए होंठो तक का सफ़र तय करता। “अच्छा तो इतना सब काम तुम अकेले क्यों करती हो? और लोग हाथ नहीं बटाते?” “पंजाब से भागकर लाया था मेरा पहला पति, मुस्लिम था, और मैं सिक्खनी… शादी करके सहारनपुर ले गया। उसके घर वालो ने मुझे स्वीकार ही नहीं किया। उसकी नौकरी भी बार-बार लगती, फिर छूट जाती, दारू पीने की लत अलग से, रोज पीता, लोगों से झगड़ा करता, कर्ज लेता। शुरू-शुरू में तो कर्ज मिला भी फिर न लौटा पाने के चलते मिलना बंद हो गया। उसने ही मुझे इस धंधे में धकेला। रोज बेचता, पैसा कमाता, शराब पीता, जुआ खेलता। एक रात तैयार होकर मैं ग्राहक निपटाने निकली, ऑटो का इन्तजार कर रही थी, एक लड़का टुकुर-टुकुर देख रहा था। पास आकर बोला- रोज मार खाती है, घर से भाग क्यों नहीं जाती? लगा मानों किसी ने जख्मों पर मरहम रख दिया।“
वह धारा-प्रवाह में बोल रही थी, मैं एड़ियों से ऊपर का सफ़र तय करने लगा। निकहत ने बोलना बंद किया, फिर मुझे अपने सीने में दुबकाकर बड़बड़ाते हुए वहशियों की तरह चूमने लगी, ”मैं भी कहाँ अपनी राम-कहानी सुनाने लगी, अगर आपको मज़ा नहीं आया तो साला मेरा एजेंट फिफ्टी परसेंट में से भी काटकर पैसा देगा, आप अपना काम निपटाओ, डॉ भूषण दो बार खिड़की से झांक कर जा चुके हैं।“- सुनकर मुझे शर्मिंदगी सी महसूस हुई, भूषण ने ऐसे झाँकने की हिमाकत क्यों की। “एक घंटा कम से कम मुझे चाहिए, इस बीच भूषण को इधर नहीं झाँकना चाहिए था। मेरा मन इस बात से ख़राब हुआ लेकिन मैं फिर उसी तरह से और ऊपर का सफ़र तय करने लगता हूँ। ”तुम बहुत मादक हो निकहत” ”हां! मादक तो मैं हूँ!” उसके गाल अभी भी आँसू से गीले हैं, गमीनत है कि वह फफक कर रोई नहीं। मैं निकहत के सीने पर सिर रख लेट गया, सोफ़े की चौड़ाई इतनी है कि दो लोग सटकर लेट सकते हैं। मेरा चेहरा उसके उरोजों के बेहद नजदीक है। फ्लैट के पास के पार्क से गुलमोहर के फूलों की महक मादकता को बढ़ा रही है। ”जानती हो, पहली बार किसी रण्डी से मिला हूँ और पहली बार में ही इतनी आत्मीयता का भाव भी जगा है।” ”लेखक बाबू! सुना था लेखक ज्यादा संवेदनशील होते हैं, उम्मीद करती हूँ दोबारा रंडी नहीं कहोगे।” ‘अपने संवेदनशील होने के बेमानीपन को पहली बार किसी ने चुनौती दी। अपने अस्तित्व की निरर्थकता को पहचानने का ये पहला अवसर था। “अच्छा उस लड़के ने जब कहा भाग क्यों नहीं जाती तब तुमने क्या किया?” “उस रात मैं ग्राहक के पते पर नहीं पहुँची, जिसने भागने की सलाह दी”, उससे सवाल किया – “भागकर जाऊँगी कहाँ?” “चार बजे एनडीएस जाती है दिल्ली के लिए, स्टेशन पर मिलना”, जाने क्या सोच मैंने भागने का निर्णय कर लिया। उस रात अमावस थी लेकिन मुझे पूर्णिमा का अहसास हुआ, सुबह आठ बजे दिल्ली के तिलक ब्रिज स्टेशन पर हम उतर गये, उसने मंदिर ले जाकर मुझसे शादी कर ली। कुछ दिन उसके दोस्त के यहाँ रहे फिर खुद का कमरा लिया। उसके पास जो रूपया-पैसा था, वह ख़त्म हो गया। हम दोनों एक-दूसरे के कन्धों पर सिर रखकर रोते। एक-दूसरे को सांत्वना देते। वह दिन भर काम खोजता, शाम को लुटा-पिटा वापिस आता, महीने भर बाद कमरे का किराया देने तक को पैसे न रहे, वह पढ़ा-लिखा न था, मेरे पास भी कोई हुनर न था, हम दोनों अपने-अपने अकेलेपन को चुपचाप सहते रहते। हम दोनों एक-दूसरे से मिलकर भी मिलते नहीं थे।” वह मेरा हाथ अपने हाथों में ले लेता और रोने लगता, उसका खुरदुरा हाथ उस दिन कुछ ज्यादा ही खुरदुरा और सख्त लगा। ”तुम्हारा हाथ रोज से अलग क्यों है?” मैंने उससे पूछा। जवाब में उसकी आँख के आँसू की बूँद मेरी हथेली पर चू पड़ी। मुझे उसके प्यार का अहसास बड़ी शिद्दत से था। उस दिन मैंने अंदाजा लगाया कि उसने कहीं मजदूरी की या फिर पत्थर तोड़े। मैं बस एक ही काम जानती थी जिससे घर चला सकती थी। मैंने वही किया भी।“-कहकर निकहत रुक गयी।
“वो जानता है कि तुम क्या काम करती हो?”- मैं काम-पिपाषा निपटाने से ज्यादा किसी रंडी की जिन्दगी की कहानी जानने को उत्सुक हुआ। उसके जवाब देने से पहले ही डॉ भूषण ने दरवाजा खड़खड़ाया, उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी-“सोमेश यार, तुम बहुत बड़े किलर हो सकते हो, ये मैं जानता हूँ लेकिन तुम फारिग नहीं होंगे तो मेरा नशा उतर जायेगा, यार कुछ दूसरे राउंड के लिए भी छोड़ दो, चार राउंड तय हैं, यार मेरी बारी तो आने दे न।“ “सब्र करो डॉ.।“- निकहत ने कहा। मुझे अंदाजा हुआ कि उसके लिए भी आज का काम मात्र एक कस्टमर निपटाना भर नहीं है। क़दमों की आहट से समझ आ गया कि भूषण पैर पटकते हुए चला गया। मुझे अंदाजा हुआ कि किसी रंडी की देह मात्र रति सुख के लिए ही नहीं होती। कोई और वक़्त होता तो मेरे हाथ लगातार फोर्प्ले के लिए यंत्रचलित रहते लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरा हाथ कांप गया। होठ भी कंपकपाने लगे। ये कम्पन ठहराव का था, काम-क्रिया से विरक्ति हुई। कानों में आवाज गूँजी, लगा जैसे निकहत कह रही हो-”डरपोक!” शायद वह खिलखिला कर हँस पड़ेगी।
“लेखक बाबू कहाँ खो गए, पहला राउंड निपटाओ तो डॉ. साहब को सेवा दूँ।“ “निकहत तुम भूषण के कमरे में जा सकती हो, मैं तुम्हारा इन्तजार करूँगा।“- निकहत उठकर भूषण के कमरे की ओर चल दी। मेरे मुँह से फिर निकला-“ब्लैक ब्यूटी।“
लगभग एक घंटे विचारों की उधेड़बुन चलती रही। वह आई तो थकी-थकी सी थी। मैंने कहा- “आराम कर लो।“ “इस पेशे में आराम दिन में होता है लेखक बाबू।“-एक संक्षिप्त सा उत्तर। वह वाशरूम की ओर बढ़ गयी। शावर की आवाज से अंदाजा हुआ कि वह खुद को फिर से तरोताज़ा करना चाहती है। दस मिनट बाद वह मेरे पास थी, मेरे साथ। आते ही उसने कहा-“आप मेरे इस पापकर्म पर ही सोच रहे थे?” “पाप-पुण्य का कोई अस्तित्व मेरी नजरों में नहीं है। सुख की नित्यता निश्चित ही है, इसलिये पाप-पुण्य जैसा कुछ भी नहीं होता। हम अलग-अलग चक्रों में जीवन को बाँट लेते हैं, रिश्तों के नाम पर जीवन को सीमित कर लेते हैं, या फिर उस गधे की तरह हो जाते हैं जिसके मुँह से दो फुट की दूरी पर घास बांध दी गयी है, जो सिर्फ इस आशा में चलता जाता है कि दो कदम चलने पर वह घास के पास पहुँच जायेगा, लेकिन पूरे सफ़र में उसे घास के दर्शन मात्र होते हैं। एक ही बार में मनुष्य सब रिश्तों का उपभोग नहीं कर सकता। हम सब कुछ टुकड़ों में करते हैं, जीवन भी टुकड़ों में जीते हैं, परिणति कुछ भी हो।“ नहीं पता उसे मेरी बात कितनी समझ आई होगी, वह बोली-“मेरा पति आज तक नहीं जानता कि मैं क्या काम करती हूँ, उसने मुझसे वादा लिया था कि फिर से इस पेशे में नहीं आऊँ। लेकिन जीवन जीने के लिए मुझे फिर से इस रास्ते पर आना पड़ा।“
“अभी आता हूँ।“- कहकर मैं वाशरूम की ओर बढ़ गया। कड़ाके की ठण्ड में भी चेहरे पर ठण्डे पानी के छींटे मारता रहा। पेट में मरोड़ा उठा तो कमोड पर बैठ गया। इस जगह बैठकर विचारों का प्रवाह बढ़ जाता है, जीवन-दर्शन अधिक स्पस्ट हो समझ आने लगता है। हम अपने जीवन के सारे मूल्यों का आधार अलग-अलग तरीके से बनाते हैं। निकहत की बातों से अचानक उसका जीवन मुझे कितना बड़ा जान पड़ा। कितना उनमुक्त, व्यापक और स्पष्ट! हर एक दृष्टान्त स्वयं में जीवन-दर्शन ही है। उसकी दृष्टि कितनी निर्भीक और विस्तृत है। जीवन के छोटे-छोटे टुकड़ों में वह महान है। मैं कमोड से उठता हूँ, सिस्टर्न का बटन दबा सब विचार फ्लश कर देना चाहता हूँ। पानी का शोर भी मुझे अखरता है। मैं वापिस निकहत के पास आकर बैठ गया हूँ। कुछ पल दोनों ओर चुप्पी है। “कितने ही ग्राहकों से रोज मिलना होता है, किसी-किसी दिन तो चार-चार कनसाईनमेंट होती हैं लेकिन कभी किसी से अपनी पर्सनल बातें शेयर नहीं की, केवल आपसे ही पहली बार इतना सब शेयर किया। मुझे लगा आप सत्य के अन्वेषी और तटस्थ दृष्टि रखने वाले हैं।“ “ऐसा तुमने मेरे बारे में सोचा, समझा, उसके लिए आभारी रहूँगा।“ ”लेकिन जारकर्म?” “अगर पाप और पुण्य सत्य हैं तो भी जारकर्म ख़राब नहीं होता!” “ओह।” “हाँ! ये भी तो सत्य ही है कि हम जैसी लड़कियों की बदौलत ही कितनी मासूमों की आबरू महफूज है।“ “मैं इस बात को भी ज्यादा महत्व नहीं देता, उसका कारण है कि जिन्हें ये सब अपनाना पड़ा वह भी मासूम ही थी, अधिकांश तो जबर ही इधर धकेली गयी, खुद की मर्जी से शरीर बेचना मैं अन्य पेशे की तरह ही देखता हूँ, अगर सुख सत्य है तो यौन सुख परम सत्य।” मन किया कि उसकी हथेली चूम लूँ। ऐसा अहसास हुआ कि वह कह रही है- ‘आप मेरे रक्षक हो, मेरे कल्याण-पुरुष, मेरे अराध्य।” मैं कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन मेरी आवाज क़ांपने लगती है। निकहत मेरी निगाहों में बहुत ऊपर उठ गयी। भोली, गंभीर, वक़्त की सताई। वह देह बेच रही है लेकिन देह का कोई अस्तित्व ही नहीं है, है भी तो क्षण भर का। ”अच्छा लेखक बाबू, एक बात बताओ क्या आप फिल्मों के लिए भी कहानियाँ लिखते हो?” “हाँ! लिखता हूँ लेकिन तुम ये सब क्यों पूछ रही हो?” “तंग आ गयी हूँ, ग्राहकों के अलग-अलग प्रयोगों और संतुष्टि के पैमानों से? कुछ फिल्म निर्माता आपके दोस्त भी होंगे तो आप मुझे कोई छोटा-मोटा रोल नहीं दिलवा सकते?” ”कोशिश करूँगा शायद कहीं बात बन जाए।” इंसान कितने ही ख़्वाब देखता है, ख्वाबों में से कोई ख्वाब करवट लेता है तो आँखों में चमक बढ़ती है। निकहत की आँखों में ऐसी ही चमक है। मुझे लगा कि निकहत के शरीर का हर अंग हर वक्त अपने ग्राहकों से लड़ रहा होता है, अनगिनत मरे हुए सपनों के बीच उसके ग्राहक उसमें काम-पूर्ति का स्थान खोजते हैं। अचानक मेरी निगाहें पेंटी के इलास्टिक के ठीक पास जाती है, कुछ स्ट्रेस मार्क्स हैं, मेरी उत्सुकता इन मार्क्स के बारे में जानने की होती है, मेरी अंगुलियाँ इलास्टिक को नीचे कर देती हैं, मानों तंत्रिका-तन्त्र ने कोई संदेश मस्तिष्क को दिया और बदलें में मस्तिष्क ने ही अँगुलियों को ऐसा करने का आदेश दिया। शायद ये किसी ऑपरेशन के बाद के स्टिचिंग के मार्क्स हैं। “ये मार्क्स कैसे हैं, क्या कोई सर्जरी हुई है?” “ग्राहकों की संतुष्टि के लिए एजेंट ने ही वी टाइटनिंग के लिए सर्जरी करायी।“ उसके बाद मैंने और कुछ नहीं पूछा। रूम हीटर चलने के बावजूद निकहत का शरीर सर्दी से कांप रहा था। “काम निपटाएं?” उसने कहा। ”नहीं।” कहते हुए मैंने अपने पास पड़ा शॉल उसकी ओर बढ़ा दिया।
“वाकई अजीब हो, पैसा खर्च करके भी कुछ करना नहीं चाहते।“ –मुझे याद आया एक बार अनीता ने कहा था, “सोमेश तुम कभी किसी लड़की के साथ सेक्स मत करना।“ “क्यों?” मैंने पूछा था, जवाब में उसने कहा था-“किलर हो, जिसके साथ सेक्स करोगे, वह दीवानी हो जाएगी, मैं नहीं चाहती मेरे अलावा कोई तुम्हारी दीवानी हो।“
“सुनो! निकहत तुम बेहद थकी लग रही हो, डॉ भूषण से इजाजत लो और वापिस चली जाओ।“ मोबाइल निकाल उसने कोई नंबर मिलाने के लिए खोजा, मैं बैठा हुआ चुपचाप उसे देख रहा था।
लेखक : सन्दीप तोमर
4 कविता संग्रह , 4 उपन्यास, 2 कहानी संग्रह , एक लघुकथा संग्रह, एक आलेख संग्रह सहित आत्मकथा प्रकाशित।
पत्र-पत्रिकाओं में सतत लेखन।
ईमेल आईडी: gangdhari.sandy@gmail.com
अनुराधा जी रचना जब संपादक, फिर पाठक और अन्ततः आलोचकों के सुपुर्द हो जाती है तो रचनाकार की राय, रचना पर पक्ष इत्यादि पर उसका अधिकार खत्म हो जाता है।
रचना प्रकाशन से अभिभूत अवश्य हूँ। टिप्पणियों का स्वागत है।
समाज के एक स्याह पक्ष पर लिखा गया सच। कितनी ही निकहत है समाज में जिनका जीवन नरक बन जाता है। लेखक ने अलग तरह के ट्रीटमेंट के साथ कहानी को रचा है। नायक का संयम् और उसके अंदर का मानवीय रूप निखर कर आता है। कहानी ढर्रे पर न चलकर अलग ट्रैक पकड़ती है। भाषा की बोल्डनेस पर लेखक की आलोचना हो सकती है लेकिन अंत तक आते आते लगता है कि यह लेखक की ईमानदारी है कि कहानी अपने गंतव्य तक पहुंच जाती है। सन्दीप तोमर बड़े कमाल के किस्सागो हैं, उनकी कहानियों में अंत तक रोचकता और उत्सुकता बनी रहती हैं। मण्टो के आधुनिक रूप को बधाई।🙏😊💐
समाज के एक स्याह पक्ष पर लिखा गया सच। कितनी ही निकहत है समाज में जिनका जीवन नरक बन जाता है। लेखक ने अलग तरह के ट्रीटमेंट के साथ कहानी को रचा है। नायक का संयम् और उसके अंदर का मानवीय रूप निखर कर आता है। कहानी ढर्रे पर न चलकर अलग ट्रैक पकड़ती है। भाषा की बोल्डनेस पर लेखक की आलोचना हो सकती है लेकिन अंत तक आते आते लगता है कि यह लेखक की ईमानदारी है कि कहानी अपने गंतव्य तक पहुंच जाती है। सन्दीप तोमर बड़े कमाल के किस्सागो हैं, उनकी कहानियों में अंत तक रोचकता और उत्सुकता बनी रहती हैं। मण्टो के आधुनिक रूप को बधाई।🙏💐😊
अच्छी कहानी। लेखक की संवेदनशीलता, ईमानदारी के साथ साथ महिला की मजबूरियों को साफ़ साफ़ प्रस्तुत करती हुई।