विजय राही की कविताएँ
चाह—१ मैंने चाहा था कि उसकी आँखों में ख़ुद को देखूँ उसके घर में रहूँ अपना घर समझकर लेकिन उसने आँखें नहीं खोली उसने गले से लगाया मुझे लेकिन अपना मुख नहीं खोला आँखें झुकाए बैठी रही सामने दिन भर सिर्फ़ सर हिलाकर हामी भरी कि वह मुझसे प्रेम करती है उसकी जिन कस्तूरी आँखों […]
Continue Reading