विष्णु सखाराम खांडेकर जी द्वारा रचित, ज्ञानपीठ व साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत उपन्यास ‘ ययाति’ की भूमिका में वे लिखते हैं कि महाभारत में ययाति की कहानी में कच संजीवनी विद्या प्राप्त करने के बाद देवलोक चला जाता है और फिर उस कहानी में कभी वापस नहीं आता।
ययाति उपन्यास की कथावस्तु में कच का महत्वपूर्ण स्थान है। कहानी का नेरेटर और मुख्य पात्र ययाति होने पर भी यहाँ नायक कच ही सिद्ध होता है। कच को हटा देने पर यह कामुक व्यक्ति का लिजलिजा आत्मालाप मात्र बचता है। पिता की मरणासन्न अवस्था में एक सेविका से देह सम्बन्ध बनाते पुत्र की कहानी का विवरण कौन कुलीन पाठक पढ़ना चाहेगा? आरम्भ जुगुप्सा जगाता है। कथा आगे बढ़ने पर कच के प्रवेश के साथ उपन्यास का ताना-बाना सुदृढ़ होता जाता है। यदि मैं कहूं कि इस कहानी में कच का आना इसे आध्यात्मिक ऊंचाईयाँ देता है तो अतिशयोक्ति न होगा।
इस कहानी के प्रारंभिक पन्ने पढ़कर मैंने इस किताब को बंद करके रख दिया था। ययाति, ऐसा युवराज जो अपने पिता की मृत्यु के समय सेविका के आगोश में है, मेरे मन को बांध न सका था किंतु ययाति पुस्तक की प्रसिद्धि ने इसे पुनः पढ़ने को बाध्य किया और कच से परिचय कराया।
समय के साथ समाजिक सोच और मूल्यों में आए परिवर्तन कहानी को नई रोशनी में देखने के लिए बाध्य करते हैं। पौराणिक कहानियों में अंतर्निहित पुनर्पाठ व पुनर्मूल्यांकन की अनन्त सम्भावनाएं ही उन्हें समय के आघातों को निरस्त कर हमारे चिंतन में चिरयुवा बने रहने की शक्ति देती हैं।
ययाति की प्रचलित प्राचीन कहानी से हम सभी परिचित हैं। ययाति, देवयानी और शर्मिष्ठा के समय-समय पर चरित्र चित्रण लेखकों ने अपने- अपने दृष्टिकोण से किए हैं। यह सत्य है कि निष्पक्ष रहते हुए भी प्रायः लेखक किसी न किसी पात्र के पक्ष या विपक्ष में खड़ा हो जाता है और हमारी तटस्थता भी हमारे समय और सम्पर्कों के पक्षों के पक्ष में झुकी हुई रहती है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मैंने विष्णु सखाराम खांडेकर जी को पूर्णतः देवयानी के विपक्ष में खड़ा पाया। शर्मिष्ठा को उन्होंने चरित्र की सभी ऊंचाइयां देने की भरपूर कोशिश की है। शर्मिष्ठा को पूर्णतः दोषमुक्त करने की लुकी- छुपी चाहत भी दिखाई देती है। यहां तक की ययाति जैसे कामुक राजा के भी वह विरोध में नहीं दिखते उसके अनैतिक संबंध को गरिमा देने का प्रयास करते हैं तथापि कहानी स्वयं ही लेखक की बांह छुड़ाकर गुपचुप तरीके से चरित्रों का वास्तविक परिचय देती हुई चलती है।
वह राजा जो न केवल अपनी सेविकाओं पर, पत्नी पर, पत्नी की सहेली पर, अपने मित्र की प्रेयसी और भतीजी पर कामुक दृष्टि रखता हो उसे महान साबित करना स्वयं ईश्वर के वश में भी न होगा तब वह दूसरा रास्ता चुनते हैं और उसे आत्मग्लानि की राह पर खड़ा कर देते हैं। बड़े से बड़ा अपराध भी आत्मस्वीकृति के आंसुओं से धुल निर्मल जो हो जाता है।
किताब की भाषा सुंदर, सुगठित है और ‘ क्या सुख के दिन हिरण के पांव लेकर भागते हैं’ जैसी अनेक सूक्तियां लुभाती हैं।
ययाति
“राजवंश में जन्मा इसलिए मैं राजा बना, राजा की हैसियत से जिया इसमें मेरा न तो गुण है न दोष। पिता की राजगद्दी पर सीधा जा बैठा इसमें भी कोई बड़प्पन है।”
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए अनुभव होता है कि ययाति स्वीकार रहा है कि उसमें कोई ऐसा असाधारण गुण नहीं था जो उसे राजगद्दी के लायक बनाता है। केवल राज परिवार में जन्मने के कारण उसे गद्दी मिली। ययाति स्वयं को बार-बार कवि हृदय साबित करने का प्रयास करता है। मानो कवियों की रसिक प्रवृत्ति उनका आभूषण हुआ। वह कहता है-
” शुरू से ही मुझे फूलों से बहुत प्यार रहा। उद्यान के सारे फूल तोड़ कर ले आओ और मेरे पलंग पर बिछा दो तभी मैं सोऊंगा- एक बार मैंने एक दासी को यह आदेश दिया था। मां ने पिताजी के सम्मुख मुझे खड़ा कर उनसे कहा- अजी सुना आपने अवश्य ही हमारा यह लाडला कोई बड़ा कवि बनने वाला है।”
संभवत: माँ नहीं जानती थी कि कवि फूलों की शैया पर नहीं सोते। वह तो ईश्वर को भी डाली पर लगे फूल ही समर्पित कर दिया करते हैं। फूलों को तोड़ उनके सौंदर्य का उपभोग करने की प्रवृत्ति राजसी ही कहलाएगी।
अपने इस कविमन युवराज की कोमल भावनाओं के समाप्त हो जाने का अप्रत्यक्ष दोष लेखक, युवराज की धनुर्विद्या आदि युद्ध प्रशिक्षण को देते हैं जिसमें निपुण होते, निरीह जानवरों पर तीर चलाते उसके भीतर का कवि मर गया।
‘ यह दुनिया आदमी के मन की दया पर नहीं बल्कि उसकी कलाई की ताकत पर चला करती है। आदमी केवल प्रेम पर जीवित नहीं रह सकता वह दूसरों का पराभव करके ही जिया करता है। जीवन कोई मंदिर नहीं वह समर भूमि है। दुनिया शक्ति से चलती है, प्रतियोगिता में जिया करती है और उपभोग के लिए दौड़-धूप किया करती है। क्रूरता और शूरता जुड़वा बहनें हैं।’
यथार्थ इन सभी बातों का अनुमोदन करता है लेकिन अदम्य कामुकता को वीरता और क्रूरता की बहन हरगिज़ नहीं माना जा सकता। ययाति अपनी बहन सरीखी बालसखी अलका को देखते ही पिता की मृत्यु के दुख से बाहर आ, उसके आगोश में समा जाना चाहता है, उसकी वेणी के कुचले हुए फूलों को करीब से सूंघना चाहता है, उसके आगोश में तृप्ति पाना चाहता है। पाषाण मूर्ति के चुंबन ययाति के उन्माद की पराकाष्ठा है। इसी प्रकार दासी मुकुलिका की अदाओं के समक्ष भी वह स्वयं को विवश पाता है। देवयानी से शिकायत है कि उसे रिझाने का कोई प्रयास नहीं करती। ययाति के अनुसार पत्नी का एकमात्र धर्म पति की देह कामनाओं की पूर्ति प्रतीत होता है। यहां तक की अपने मित्र माधव की भांजी तारका और माधव की प्रेयसी माधवी के प्रति भी उनके मन में कोई आत्मीय अभिभावकीय भावना न पनप, भोग की इच्छा ही उपजती है। दासी अलका जिसके दुग्धपान से वह बड़ा हुआ है, उसकी छवि एक बच्ची में पा, उस बच्ची के प्रति भी आसक्त होता है, यह बच्ची उसके पुत्र पुरु की प्रेयसी है। अपने बिछड़े भाई यति से मिलने पर भी वह उसे गले न लगा, अधरपान के सुख के विषय में सोचता है।
यति
जहां एक छोर पर ययाति का आमोद है वहीं दूसरे छोर पर यति की तपस्या। यति उन आदर्शों और विरक्त जीवन के प्रतिपादन का प्रतीक है जहां देह कामनाओं की दास नहीं बचती,अपनी सभी लालसाओं को त्याग, स्वयं को मिटा, एक जाग्रत आत्म में शेष रह जाती है, लेकिन यह जीवन से पलायन भी हैं। उससे जूझने की कोई प्रेरणा, कोई उपाय नहीं देता यह मार्ग। दुनिया की सभी नारियों को पुरुषों में बदल डालने की उसकी विलक्षण महत्वकांक्षा भी सृष्टि के विरुद्ध जाती है। निश्चित ही यति अपने आप से लड़ रहा था और अपनी इंद्रियों को जीतने में असफल रहने पर मानसिक रूप से विचलित हो जाता है और अपनी इस अवचेतन स्थिति में भरे दरबार में देवयानी से शर्मिष्ठा की मांग भी कर बैठता है।
इसे देवयानी के शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है, वह कहती है- “इस खानदान को केवल पागलपन का ही शाप नहीं है, कामुकता भी सवार है। सब पर नारी मोह अनुवांशिक ही लगता है। कहते हैं मेरे ससुर जी ने इंद्र का भी पराभाव किया था, किया होगा किंतु इंद्राणी के सौंदर्य पर बुरी तरह से मोहित हो गए थे।”
कच
स्वयं विष्णु जी ने इस उपन्यास में कच को महत्वपूर्ण माना है। उसके व्यक्तित्व में ठहराव और गंभीरता है। वह त्याग करना, रिश्तों को मान देना जानता है। अन्य सभी पात्रों के विपरीत आत्मसुख उसकी प्राथमिकता नहीं है। वह मानता है कि उपभोग से अधिक आनंद त्याग में है। वह देवगुरु बृहस्पति का पुत्र है। वह ययाति को एक रंगीन पक्षी को मारने से रोकता है।
ययाति कहता है – “मैं क्षत्रिय हूं, हिंसा मेरा धर्म है।”
वह कहता है – “हिंसा धर्म तब बनती है जब वह आत्मरक्षार्थ या दुर्जनों का विनाश करने के लिए की गई हो। इस बेचारे गूंगे प्राणी ने तुम्हें कौन सा कष्ट दिया था?”
कच विश्वशांति का पक्षधर है-
“युद्ध को मैंने हमेशा निंदनीय और निषिद्ध माना है, चाहे वह दो व्यक्तियों में हो या दो जातियों में हो या दो शक्तियों में। आदिशक्ति द्वारा रचा गया यह संसार कितना सुंदर और समृद्ध है। क्या प्रत्येक व्यक्ति यहां सुख से जी नहीं सकता? मुझ जैसे बावले का तो यही स्वप्न रहा है! पता नहीं वह कभी सच होने वाला भी है या नहीं! आज तो यह सोचना एक ख्याली पुलाव ही है।”
(और 1959 में प्रकाशित ययाति के 66 वर्ष पश्चात यह सपना अब और धुंधला हो चला है।)
‘ देव विलासिता के अंधे उपासक हैं। दैत्य शक्ति की अंधी उपासना करते हैं यह दोनों उपासक जगत को सुखी बनाने में असमर्थ हैं। यह युद्ध भी कर लें, तब भी उस युद्ध से कोई निष्पन्न नहीं होगा।
प्रत्येक वर्ण यदि अन्य वर्णों के गुणों को आत्मसात कर लेता है तो क्या हानि हो सकती है? अनेक नदियों का जल मिलाकर ही तो हम अपने आराध्य देवता का अभिषेक किया करते हैं।
मेरे मन में तो प्रबल इच्छा है कि कठोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लूं और उनके चरणों में एक ही जिद कर बैठूं कि भगवान मुझे कोई वरदान मत देना बस एक यही मंत्र दे देना जिससे इस विश्व में शांति का साम्राज्य फैला सकूं।’
कच मन मृग को नियंत्रण में रखने, तृष्णाओं का शिकार करने में विश्वास करता है। वह संजीवनी विद्या पा उसका उपयोग मुरझा गए फूलों के लिए चाहता है।
वह अन्य के दोषों के प्रति भी क्षमा से भरा है उसका लक्ष्य मनुष्यतर होना है। वह स्वीकारता है –
‘ गुरुजी की यह सीख कि सत्य बोलो किंतु सुनने वाले को प्रिय लगे ऐसा बोलो, अभी मैं ठीक तरह से आत्मसात नहीं कर पाया हूं मन का घोड़ा कब और किस विवशता से सहम कर बेकाबू हो जाएगा, कोई भरोसा नहीं। मुझे क्षमा कीजिए।’
वह गुणी मनुष्यों को शक्ति के दुरुपयोग और दंभ से आगाह करता है –
इस संसार में मीठे फलों को ही कीड़ा लगने का अधिक खतरा रहता है उन सबको जिन्हें वृत्ति की उत्कटता मिली है और जिनमें कुछ विशेष योग्यता होती है इन मीठे फलों से सबक सीखना चाहिए अपने आप की सुरक्षा करनी चाहिए।
प्रेम के संबंध में भी कच का मानना है कि प्रेम मनुष्य को अपने से परे देखने की शक्ति देता है। प्रेम किसी से भी हो गया हो, मनुष्य से अथवा वस्तु से; किंतु वह प्रेम सत्य होना चाहिए। अंत:करण की तह से उठता हुआ आना चाहिए। वह स्वार्थी, लोभी या धोखेबाज नहीं होना चाहिए। और कच का उत्कट प्रेम! जिसके चलते वह देवयानी के स्वभाव में कोमलता लाने कठिन तप करने को उद्यत है।
आगे कथा में पुरु का प्रवेश कच के प्रतिरूप में होता है। वह उसी जैसे गुणों से भरा- पूरा है।
देवयानी
देवयानी यहां दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री के रूप में आती है जिसे अपने पिता की प्रतिष्ठा और ज्ञान का अभिमान है। अपने इस अभिमान के चलते ही वह शर्मिष्ठा द्वारा अपने कपड़े पहन लेने से क्रुद्ध हो उसे अपशब्द कहती है। विष्णु जी ने दिखाया है कि ययाति द्वारा उसे कुएं से बाहर निकालने पर उन्हें राजा जान, वह उनसे विवाह का अनुरोध करती है जबकि प्रचलित कथा के अनुसार स्वयं को एक पुरुष द्वारा निर्वस्त्र देखे जाने के कारण वह उस समय प्रचलित संस्कारों और लज्जा के कारण और इस अपमान और कुंठा से बचने के लिए ययाति से विवाह निवेदन करती है।
विष्णु प्रभाकर जी ने देवयानी को एक ऐसी स्त्री के रूप में चित्रित किया है जिसके लिए उसके जीवन का केंद्र बिंदु उसके पिता है। पति के रणभूमि में जाने के समय वह उसके लिए मंगलकामना करने के स्थान पर अपने पिता के पत्र पढ़ने को प्राथमिकता देती है। देवयानी का पूरा उच्चताबोध ही पिता की ख्याति और प्रतिष्ठा से उपजा हुआ प्रतीत होता है तथापि वह एक स्वतंत्रचेता स्त्री के रूप में उभर कर आती है।
प्रथम रात्रि पर पति द्वारा सुरापान करके आने पर वह उसे कक्ष से बाहर निकाल देती है और आगे भी ऐसे अनेक अवसरों पर जब वह नशे में उसके करीब जाता है तो वह उसका तिरस्कार कर देती है। यहां देवयानी की यह दृढ़ता मुझे भाती है। निश्चित ही नारी पुरुष के उन्मादी क्षणों का कोई निर्जीव खिलौना नहीं है यदि वे उसका प्रेम, उसका मन , उसका तन पाना चाहता है तो अपने संपूर्ण विवेक और चेतना के साथ ही पुरुष को स्त्री के समीप आना होगा। नृत्य और अभिनय में पारंगत देवयानी अपने रूप, गुण और पिता के प्रतिष्ठा के कारण एक आत्ममुग्ध और अभिमानी स्त्री के रूप में चित्रित तो होती है किंतु रीढ़विहीन होने से बेहतर है स्वाभिमानी होना और देवयानी का यह स्वाभिमान खलनायिका के रूप में चित्रित किए जाने पर भी उसके चरित्र को दृढ़ता देता है। अपने निर्णयों के प्रति, अपनी भावनाओं के प्रति वह सचेत है। यही नहीं अपने प्रेम को पाने की हिम्मत भी देवयानी में है। कच के प्रति आकर्षण होने पर वह प्रेम निवेदन करने में हिचकती नहीं है।
कच द्वारा कहे गए यह शब्द भी बताते हैं कि कच और देवयानी के मध्य स्नेहसेतु निश्चित ही बने हुए थे। वह कहता है,
“शर्मिष्ठा! मेरा और देवयानी का प्रेम सफल न रहा। इसका तुम दुख न करना। मुझे प्रेम न मिला न सही किंतु प्रेम क्या होता है इसे मैंने अनुभव तो किया ही है। उसकी स्मृति मैं जीवन भर संजो कर रखूंगा। देवयानी जिद्दी है, गुस्सेबाज है, अहंकारी भी है। उसके इन सभी दोषों को मैं अच्छी तरह से जानता हूं। मैंने उसके सौंदर्य पर मोहित होकर उससे केवल अंधा प्रेम कभी नहीं किया है। व्यक्ति को उसके दोषों के साथ स्वीकार करने की शक्ति सच्चे प्रेम में होती है, होनी चाहिए। देवयानी से मैंने ऐसा ही प्रेम करने का प्रयास किया किंतु अपने सिद्धांतों के लिए मुझे देवयानी का दिल तोड़ना पड़ा। मैं भी क्या करता! प्रेम जीवन की एक उच्च भावना है किंतु कर्तव्य उससे भी श्रेष्ठ भावना है। कर्तव्य कठोर ही होता है। उसे कठोर बनना ही पड़ता है किंतु कर्तव्य ही धर्म का मुख्य आधार है। कभी देर सवेर देवयानी तुमसे दिल खोल कर बोली, तो उससे इतना ही कह देना – कच के हृदय पर हमेशा कर्तव्य का ही स्वामित्व है किंतु उसका एक छोटा सा कोना केवल देवयानी का ही था वह सदा उसका ही रहेगा।”
यह कहा जा सकता है कि देवयानी के चरित्र में दया और संवेदनशीलता की कमी होने पर भी सच्चाई है। वह विनम्रता का छद्म आवरण ओढ़ कर सामने नहीं आती। अंत में इस अभिमानिनी को ययाति के पैर दबाते देखना मन दुखाता है।
शर्मिष्ठा
शर्मिष्ठा इस उपन्यास का सबसे कमजोर पात्र प्रतीत होती है। दैत्यों के राजा की पुत्री देवयानी द्वारा अपशब्द सुनकर वह बौखला जाती है और उसे कुएं में धकेल देती है हालांकि प्रचलित कथा के विपरीत विष्णु जी उसे संदेह का लाभ देते हैं कि संभवत: आपसी लड़ाई की धक्का-मुक्की में वह अनायास कुएं में गिर गई किंतु यह तो स्वीकारना ही होगा कि देवयानी के कुएं में गिर जाने के पश्चात वह न तो स्वयं उसे निकालने का कोई प्रयास करती है और न ही महल जाकर उसे कुएं में से निकालने के लिए कोई व्यवस्था करती है। अपनी सहेली के प्राण ले लेना उसे कोई अनुताप नहीं देता, व्यथित नहीं करता।
इस क्रूरता के पश्चात शर्मिष्ठा के चरित्र को मुलायमियत देने की तमाम कोशिशों के पश्चात भी शर्मिष्ठा को क्लीन चिट देने में विष्णु जी सफल होते नहीं दिखते।
‘ महाराज वृषपर्वा के दानों पर पल रहे एक भिक्षुक की बेटी हो तुम!’ जैसे कथन उसे भी देवयानी जैसा ही अशिष्ट और दंभी सिद्ध करते हैं। निम्न पंक्तियों में भी राजसी अभिमान और सुख की लालसा स्पष्ट दिखलाई देती है –
“आज तक मैं दूसरों से अपने पैर धुलवाती रही अब क्या दूसरों के पैर धोती रहूं? हीरे जड़े माणिक मोतियों के आभूषण उतार कर एक भिखारिन सी रहने लगूं। दिन-रात सेवकों को आज्ञा देने वाली मैं राजकन्या, अब क्या दूसरों की डांट- डपट खाऊं? मालकिन जो भी दे दे, उसी अन्न वस्त्र पर चूं तक न करते हुए जीवन बिताती रहूं? प्रणय, प्रीति, पति-सुख, वात्सल्य सबके आनंद से वंचित रह जाऊं?
उसके भीतर चाह हैं, भावनाएं हैं, दर्प भी है लेकिन प्रतिरोध का साहस नहीं है। कच के संदर्भ में वह उसे सखा या भाई की तरह देखती है किंतु भावनाएं गढ़मढ होती रहती हैं यही विरोधाभास कच और देवयानी के रिश्ते में भी परिलक्षित होता है। देवयानी के प्रति अपना प्रेम स्वीकारने के बाद वह उसे बहन भी कहता है। इसके पश्चात भी जहां-जहां लेखकीय प्रवेश होता है या अन्य पात्रों के माध्यम से विष्णु सखाराम जी शर्मिष्ठा के पक्ष में दिखाई देते हैं
क्रोधित देवयानी ययाति से अपने विवाह के पश्चात दंड स्वरूप शर्मिष्ठा को अपनी दासी बनाकर अपने साथ लेकर जाती है। नशे में धुत जिस ययाति को देवयानी ठुकरा देती है उसी ययाति की प्रतिमा बनाकर उसे पूजने का शर्मिष्ठा का कारण समझ नहीं आता। एक कामी और शराबी पुरुष के प्रेम में होना या उसके द्वारा दिए गए संकेतों को समझ उसके निवेदन को स्वीकार करना इन परिस्थितियों में चेतन से अधिक अवचेतन का फैसला प्रतीत होता है जो कि देवयानी की दशा और क्रोध के चलते उसके पति को अपने अधिकार में लेकर, सखी को सबक सिखाने के भाव से प्रेरित है।
देवयानी के कहने पर, पिता द्वारा निर्धारित दंड को स्वीकार किए जाने पर, शर्मिष्ठा उसे अस्वीकार करने, प्रतिरोध करने की हिम्मत नहीं करती और न ही ययाति द्वारा लंबे समय तक मिलने न आने पर या उसे पुत्र सहित जंगल में छुड़वा देने पर भी उसके मन में कोई क्रोध ययाति के प्रति नहीं उठता है।
यह सही है कि किसी भी कृति का आकलन उसके कालखंड के अनुसार होगा और उस समय की कथाओं में स्त्रियों का यह समर्पित रूप पूजनीय था किंतु पुनर्पाठ करते हुए अगर आज के युग से हम तुलना करें तो ऐसी समर्पित स्त्रियों के लिए मन में कोई दया नहीं अपितु आक्रोश ही उपजता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कल खलनायिका के रूप में रच दिए गए स्त्री पात्र आज नायिका के रूप में हमारे सामने उभर रहे हैं।

परिचय
लेखिका -डॉ निधि अग्रवाल
पेशे से चिकत्सक निधि अग्रवाल की रचनाएँ समालोचन, हंस, आदि प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। कुछ कहानियों का पंजाबी, गुजराती और बांग्ला अनुवाद हुआ है। वे अपने लेखन में सूक्ष्म मनोभावों के चित्रण के लिए जानी जाती हैं। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पंडित बद्री प्रसाद शिंगलू सम्मान सहित अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। कहानी संग्रह ‘अपेक्षाओं के बियाबान’,उपन्यास ‘अप्रवीणा’ कविता संग्रह ‘ कोई फ्लेमिंगो नीला नहीं होता ‘ व ‘ गिल्लू की नई कहानी’ उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं।
संपर्क :
ई-मेल: nidhiagarwal510@gmail.com