बात सन 1920 – 21 की रही होगी मेरे दादा( ग्रैंड फ़ादर) मरहूम हर सहाय हितकारी, पेशे से वक़ील, फतेहपुर कचेहरी में अपने वकालत ख़ाने में बैठे किसी मुवक्किल का केस सुन रहे थे उनके मुंशी वज़ीर हसन उनके साथ बस्ते पर बैठे कोई मिसिल तैयार कर रहे थे कि उनके पास एक लकड़ी के बक्से के साथ एक सेल्स मैन आया। बक्से में नज़र के चश्मे भरे थे। सेल्स मैन ने मुंशी वज़ीर हसन से मुख़ातिब होकर कहा, ‘मुंशी साहेबान लगता है आपकी पास की नज़र कमज़ोर है!’ मुंशी वज़ीर हसन ने जवाब दिया, ‘जी बिल्कुल नहीं। मैं बड़ी आसानी से लिख पढ़ सकता हूं।’ फिर उस सेल्स मैन ने कहा, ‘तो फिर वक़ील साहब की नज़र कमज़ोर होगी?’ मुंशी ने जवाब दिया, ‘लाहौल, आप क्या बात कर रहें हैं? वक़ील साहब अभी नौजवान हैं। उनकी नज़र कैसे कमज़ोर हो सकती है!’ सेल्स मैन ने बताया वो कानपुर से सीधे फ़तेहपुर कचेहरी तशरीफ़ लाए हैं और अगर इजाज़त हो तो उनके बस्ते पर कुछ वक़्त आराम कर लें। मुंशी ने कहा ज़रूर और उन्हें पानी वगैरह पिलवाया। यूं ही बैठे बैठे सेल्स मैन कुछ गुनगुनाने लगे। मेरे दादा मरहूम ने सुना तो बोल पड़े, ‘बहुत ख़ूब!’ सेल्स मैन ने सलाम कर लिया। दादा ने उनका फ़तेहपुर आने का सबब पूछा तो सेल्स मैन ने बताया कि वो पेशे से बी एन बैजल चश्मे वाले के सेल्स मैन हैं। और उनका इस्में शरीफ़ ‘जिगर मुरादाबादी’ है। दादा मरहूम शाम को कचेहरी से लौटते वक़्त उन्हें अपने बंगले ले आए और उनसे तीन चार रोज़ साथ ठहरने की इल्तिजा की। फिर ये तय हुआ कि दादा उन्हें इसी जुम्मे को अपने साथ कानपुर लिवाते जाएंगे और इस बीच फतेहपुर कचेहरी में उनके कुछ चश्मे भी बिकवा देंगे। हमारे दादा चार भाई थे । पेशे से सभी वक़ील थे। सभी फतेहपुर में रहते थे। अबतक सभी भाइयों ने अपने वालिद मरहूम , जो एक वक़्त में फ़तेहपुर के पुलिस कोतवाल थे, के घर के इर्द गिर्द अपने अपने बंगले बनवा लिए थे। तबतक दादा के सबसे बड़े भाई कृष्ण सहाय हितकारी कानपुर जा चुके थे। कानपुर में मैट्रिक और वक़ालत की पढ़ाई के बाद वहीं कानपुर कचेहरी में वक़ालत जमा चुके थे। कानपुर के मेस्टन रोड पर ही उन्होंने किराए का एक मकान लिया था जिसमें हफ़्ते दो हफ़्ते में उनके सभी भाई और उनकी फैमलीज़ दो एक रोज़ के लिए कानपुर साथ ठहरने के ज़रूर इकट्ठा होते थे। दादा के वालिद एक वक़्त में पुलिस में बड़े ओहदे पर ज़रूर थे लेकिन एक केस के सिलसिले में वो मुअत्तल कर दिए गए जब एक बरहमन की नाबालिग़ लड़की ने हमल हो जाने पर ज़हर खा कर जान दे दी और बरहमन ने कोतवाल की रजामंदी पर उसका अंतिम संस्कार कर दिया। अंग्रेज़ एस.पी. को ये नागवार लगा और उसने कोतवाल को मुअत्तल कर इंक्वायरी बिठा दी। ये वक़्त दादा और उनके भाइयों के लिए बड़ा मुश्किल भरा था। लिहाज़ा सबसे बड़े भाई कृष्ण सहाय हितकारी ने अपने ख़ानदान ख़ास कर अपने भाईयों की ज़िम्मेदारी ओढ़ते हुए कानपुर में पढ़ने और वहीं वक़ालत का फ़ैसला किया। कृष्ण सहाय हितकारी को शेरो शायरी का बड़ा शौक़ था और वो बड़े शोरा परवर इंसान थे। कानपुर मेस्टन रोड पर उनके घर की बैठक में शायरों का जमघट लगा रहता था। कृष्ण सहाय हितकारी ‘वहशी कानपुरी’ के तख़ल्लुस से शायरी करते थे। वो दौर रवायती शायरी का दौर हुआ करता था। वहशी कानपुरी सहाब का एक शेर देखें:-
‘ज़मीं पे ज़लज़ला है आसमानों को भी है जुम्बिश
ये किस ‘वहशी’ ने सिर टकरा दिया दीवार ए ज़िन्दां से’
तो आलम ये था कि उस वक़्त जो कोई भी थोड़ा बहुत शेर कहनें का सलीक़ा रखता ‘वहशी’ साहब उसके सरबराह हो जाते। कमोबेश यही आलम मेरे वालिद यानि वहशी साहब के भतीजे का था। कानपुर शहर में जो भी थोड़ी बहुत शेरो शायरी कर लेता वो बीआईसी की किसी ना किसी फैक्ट्री में मुलाज़मत पा जाता।
तो जिगर मुरादाबादी को मेरे दादा अपने साथ कानपुर लेते आए और उनका तार्रुफ़ अपने बड़े भाई वहशी कानपुरी साहब से करवाया। वहशी साहब की रिहाइश मेस्टन रोड की थी और जिगर साहब की मुलाज़मत यानि बी.एन. बैजल चश्मे वाले की एक ब्रांच भी मेस्टन रोड पर ही थी। लिहाज़ा जिगर साहब जब भी कानपुर में क़याम फ़रमाते उनका ठौर ठिकाना वहशी साहब के यहां ही होता।
कुछ ही सालों में वहशी कानपुरी साहब ने कानपुर में स्वरूप नगर में एक बड़ा और आलीशान बंगला बनवाया। ये वक़्त जॉइंट फैमिलीज़ का था तो वहशी साहब ने अपने दो छोटे भाइयों और उनकी फैमिलीज़ को फ़तेहपुर से अपने पास कानपुर में स्वरूप नगर के बंगले में बुलवा लिया। स्वरूप नगर के बंगले में बाहर की ओर दो बड़ी बैठकें थीं जिनमें एक शायरों के नाम हो गई। कानपुर में जब भी किसी शायर का आना होता तो वो वहशी साहब से मिले और उनके यहां ठहरे बग़ैर नहीं जाता। मेरे वालिद बताते थे कि जिगर साहब उनके बड़े भाई यानि मेरे ताऊ लक्ष्मी सहाय हितकारी के दोस्त हो गए थे और दोनों कानपुर के हर मुशायरे में साथ साथ ही शिरक़त फ़रमाते। जिगर साहब ही ने मेरे ताऊ को शायरी के लिए इंस्पायर किया और उन्हीने उनका तख़ल्लुस ‘नसीम कानपुरी’ रखा।
नसीम कानपुरी के कुछ शेर देखिए:-
‘मुझे छेड़ने चला है ग़म ए फ़ित्नए ज़माना
मेरे दिलनवाज़ साक़ी ज़रा जाम तो उठाना’
‘कभी तुम जो थे मुख़ातिब तो दिलों में थीं बहारें
जो निगाह तुमनें बदली तो बदल गया ज़माना’
‘वो सामनें जो आएं क्या हाल-ए दिल दिखाएं
आंसू पनाह ढूंढें आंखें करें बहाना’
वालिद बताते थे कि जिगर साहब और मेरे ताऊ रात रात भर शेरो शायरी में मशग़ूल रहते। जिगर साहब चाय के शौक़ीन थे तो गई रात बाहर बरामदे में ईंटों की अगींठी में अख़बार जला जला कर चाय बनाते रहते। मेरे वालिद भी इनलोगों के साथ मुशायरों में जाते रहते। एक बार जिगर साहब ने एक ग़ज़ल लिख कर वालिद से कानपुर के मुशायरे में ‘शमीम कानपुरी’ तख़ल्लुस से पढ़वाई। मेरे वालिद की मुशायरे की वो पहली और आखिरी ग़ज़ल थी। कानपुर के लोगों को इल्म हो गया था कि वो जिगर की कही ग़ज़ल है। उसमें जिगर का पूरा रंग जो था।
वालिद कहते थे कि वो ज़माना जिगर का ज़माना था और उस दौर में उर्दू अदब जिगर के पीछे पीछे चलता था। जिगर साहब ग़ज़ल के बादशाह माने जाते थे और उनका तरन्नुम लाजवाब था!
जिगर साहब के हुक़्म पर वालिद ने कानपुर और उन्नाव के कुछ मुशायरों की निज़ामत की और, ‘यारों जिगर थाम के बैठो अब मेरी बारी आई है’ कह कर जिगर साहब को पढ़ने के लिए मदूं किया जो बाद में मुशायरों में आम हो चला।
आज जब जिगर मुरादाबादी के यौमे पैदाइश पर हम उनको याद कर रहें तो बड़ा फ़ख्र महसूस हो रहा है कि हम उसी ख़ानदान से हैं जिसने जिगर मुरादाबादी जैसे शोरा हज़रात के साथ बेहतरीन वक़्त गुज़ारा है।
बस अपने बुजुर्गों से सुनी कुछ माज़ी की यादें हैं जिन्हें साझा कर रहें हैं!
जिगर साहब के यूं तो सैकड़ों बेहतरीन अशआर हैं लेकिन जो मुझे सबसे पसंद है वो हमारे मआशरे के हर दौर की हक़ीक़त से रूबरू कराता है! सच तो ये है कि ईश्वर का यही निज़ाम है-
‘कोई मस्त है कोई तिश्नालब तो किसी के हाथ में जाम है,
मगर इसको कोई करे भी क्या ये तो मैक़दे का निज़ाम है’
अब जिगर मुरादाबादी की कुछ और हमारी पसंदीदा ग़ज़लें :-
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हम से या हम हैं ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है
या
‘हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं’
मेरी ज़बाँ पे शिकवा-ए-अहल-ए-सितम नहीं
मुझ को जगा दिया यही एहसान कम नहीं
शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं
मर्ग-ए-‘जिगर’ पे क्यूँ तिरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही मगर इतना अहम नहीं
या
दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
ऐसी भी इक निगाह किए जा रहा हूँ मैं
ज़र्रों को मेहर-ओ-माह किए जा रहा हूँ मैं
उठती नहीं है आँख मगर उस के रू-ब-रू
नादीदा इक निगाह किए जा रहा हूँ मैं
गुलशन-परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं
यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
या
कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन
क़ातिल रहबर क़ातिल रहज़न
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन
इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कार-ए-शीशा-ओ-आहन
आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन
उम्रें बीतीं सदियाँ गुज़रीं
है वही अब तक इश्क़ का बचपन
तू ने सुलझ कर गेसू-ए-जानाँ
और बढ़ा दी शौक़ की उलझन
बैठे हम हर बज़्म में लेकिन
झाड़ के उट्ठे अपना दामन
काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर
कौन छुड़ाए अपना दामन
उनके कुछ और शेर देखिए:-
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
तिरे जमाल की तस्वीर खींच दूँ लेकिन
ज़बाँ में आँख नहीं आँख में ज़बान नहीं
आतिश-ए-इश्क़ वो जहन्नम है
जिस में फ़िरदौस के नज़ारे हैं
दोनों हाथों से लूटती है हमें
कितनी ज़ालिम है तेरी अंगड़ाई
न ग़रज़ किसी से न वास्ता मुझे काम अपने ही काम से
तिरे ज़िक्र से तिरी फ़िक्र से तिरी याद से तिरे नाम से
कुछ खटकता तो है पहलू में मिरे रह रह कर
अब ख़ुदा जाने तिरी याद है या दिल मेरा
उस ने अपना बना के छोड़ दिया
क्या असीरी है क्या रिहाई है
रमन हितकारी
क्राइस्ट चर्च कालेज, कानपुर और जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एम.ए., एम.फिल. की शिक्षा. प्रतिष्ठित उप्पसाला यूनिवर्सिटी, स्वीडन से कन्फ्लिक्ट रिज़ोल्यूशन में डिप्लोमा.
संघ लोक सेवा आयोग से भारतीय प्रसारण (कार्यक्रम) सेवा में चयनित. डीडी न्यूज़ और डीडी इंडिया चैनलों के कार्यक्रम प्रमुख रहे. 38 वर्षों का प्रिंट और टी.वी. पत्रकारिता / प्रोडक्शन का अनुभव. हाल ही में संस्मरण ‘आशियाना, मैकराबर्टगज’ प्रकाशित.
Email:-ramanhitkari@gmail.com