डॉक्टर गिरिराज किशोर
यह कहानी डॉक्टर गिरिराज किशोर की समसामयिक कहानियों में से एक है। साहित्य अकादमी और पद्म विभूषित डॉक्टर गिरिराज किशोर एक सशक्त कथाकार रहे हैं और वे प्रतिभा सम्पन्न लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं। सन् 1991 में इनका उपन्यास ‘ढ़ाई घर’ अत्यन्त लोकप्रिय रहा जिसे सन् 1992 में एक साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया और साथ ही इनके उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ से उन्हें एक नई पहचान भी मिली। इसके अतिरिक्त ‘शहर- दर-शहर’, ‘पेपरवेट’, ‘दावेदार’, ‘यातनाघर’, ‘जुगलबंदी’, ‘नीम के फूल’, ‘हम प्यार कर ले’, ‘लोग’, ‘चिड़ियाघर’, ‘यात्राएं’ आदि इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। डॉक्टर किशोर कानपुर के निवासी थे। कानपुर से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘अकार’ के संपादक भी रहे हैं। इस पत्रिका के अतिरिक्त उनकी कहानियाँ , निबंध, नाटक आदि कई समसामयिक लेख विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होते रहे हैं। इन्हीं कहानियों में से एक है ‘पांचवा पराठा’ ।
यह 71 के दौर की एक त्रासदीपूर्ण कहानी है, जिसमें कानपुर के आसपास के परिवेश का चित्रण किया गया है । इस कहानी के मूल में है भूख और केंद्र में है माँ । यह भीषण तंगहाली से जूझ रहे एक ऐसे परिवार के कहानी है, जिसके लिए एक पहर का भोजन भी दुर्लभ है। इस परिवार में कुल चार सदस्य हैं। जहाँ घर का मुखिया बेरोजगार हैं, माँ घरों में काम करती है और दो बच्चे —- बिट्टी जो स्कूल जाती है और बिट्टु जिसका अभी दाखिला भी नहीं हुआ। कहानी में केवल माँ ही एक ऐसी पात्र हैं जिसका संबंध कहानी के सभी पहलू और पात्रो से है। कथाकार कहानी में कानपुर शहर के छोटे से परिवार की स्थिति को प्रस्तुत करते हैं। इस परिवार के माध्यम से देश की गरीबी, कानपुर में मील बंद हो जाने से मील मज़दूरों की दयनीय अवस्था, इससे उपजी भूख तथा भूख की चिंगारी का आग बनकर, सब कुछ खत्म कर देने तक की स्थिति, सभी बयां करते हैं। यह कहानी स्पष्ट कर देता है कि आग की ज्वाला से अधिक भयानक पेट की ज्वाला है।
डॉक्टर किशोर की इस कहानी के निर्देशक संजय गुप्ता और निर्माता शिवा सिंह हैं। उन्होंने इस कहानी को पन्नों से निकालकर मंच पर प्रस्तुत किया है। यह लगभग आधे घंटे की लघु फ़िल्म है जो अपने आप में ही संवेदनात्मकता प्रस्तुत करती है। इसमें प्रमुख पात्र के साथ-साथ बहुत से गौण पात्र भी है और सभी पात्र अपनी भूमिका में रम चूके हैं। इसमें माँ का किरदार स्नेहलता सिद्धार्थ टागडे, पिता का एन.के. पंत, बिट्टी का रोल कस्तूरी जनगम और बिट्टू की भूमिका यूवान मिश्रा ने अदा की है। इन सभी कलाकारों का मंचन अप्रतिम है। एक दर्शक के रूप में बिट्टी (कस्तूरी जंगम) की भूमिका मुझे बेहद पसंद आई । उसकी भूमिका फ़िल्म के असली तथ्यों को स्पष्ट करने में सफल है। उसके हावभाव, वेशभूषा, क्रिया-प्रतिक्रियाएं , उसकी उम्र और पारिवारिक स्थिति के अनुरूप है। अतः मेरे अनुसार इस कहानी का केंद्र बिट्टी और पाँचवा पराठा ही है ।
प्रस्तुत फ़िल्म का आरंभ बिट्टी के स्कूल से होता है , जिसे देख दर्शक पूरी मूवी का अनुमान लगा सकते हैं। इस दृश्य में हुई घटनाओं इसका प्रभाव बिट्टी पर पूरी मूवी में बना रहता है। फ़िल्म का आरंभ जहाँ बिट्टी के आक्रोश से होता है वही उसका अंत दर्शक के मन में एक द्वंद की स्थिति उत्पन्न करने वाला है। यह स्थिति का मुख्य कारण है माँ, बिट्टी और पांचवा पराठा।
इस फ़िल्म का अंत एक प्रश्न पर अटक जाता है की क्या बिट्टी की प्रवृत्ति क्रोधी है या लोभी। मेरे विचार से तो वह ना तो लोभी है और ना ही क्रोधी , वह केवल मजबूर हैं —- अपनी अंतर्ज्वाला से मजबूर।
डॉक्टर किशोर और निर्देशक संजय गुप्ता ने इस फ़िल्म के माध्यम से देश की विभिन्न समस्याओं को भी उजागर किया है, माता- पिता की मजबूरी, बच्चों के पेट की उथल-पुथल, धनाठ लोगों की विचारधारा, सभी का मंचन इस तरह किया गया है जिसे देख दर्शक उसमें डूब जाते हैं। इसके अलावा पात्रो की वेशभूषा , स्थिति और परिवेश के अनुकूल है। संवाद तथा बीच-बीच में आने वाले संवेदनशील धुन फ़िल्म को वास्तविकता से जोड़ रहे हैं , जिससे दर्शकों का ध्यान इसकी ओर खींचा जा रहा है।
सोशल प्लैटफॉर्म पर यह मर्मभेदी फ़िल्म दर्शक के मानस पटल पर एक गहरी छाप छोड़ती है, इस बात का प्रमाण है लोगों द्वारा दी गई सकारात्मक प्रतिक्रियाएं। इसके साथ ही निर्देशक संजय गुप्ता ने भी अपने सोशल मीडिया पर यह बात कही है की अभी तक इस फिल्म को 2,00,000 घंटे तक और 1.6 मिलियन लोगों ने देखा है । इसके साथ ही इस फिल्म को 27 से 30 जून 2024 को होने वाले हिमाचल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल और महाराज चित्रपट महोत्सव मे भी चयन किया गया । हिमाचल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 2024 मे इसे बेस्ट स्टोरी इन शॉर्ट फिल्म का अवॉर्ड भी मिला ।
इस कहानी के लेखक ,निर्देशक तथा अन्य सहायक दर्शकों को फिल्म से जोरने मे सफल रहे है । इसकी भाषा की करें भी बहुत सरल और स्पष्ट है । फ़िल्म के संवाद कहानी के साथ बह रहे हैं। लेखक और निर्देशक की भाषा एक जैसी किसी प्रकार का कोई द्वंद्व इनमें दिखाई नहीं देता। यदि कहानी का आरंभ से अंत तक का आकलन किया जाए तो यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि इस लघु फ़िल्म ने कहानी को सजीवता दी है।
निर्देशक संजय गुप्ता द्वारा सांझा की गई तस्वीर
विशाखा