क़ैद में क़िताब

समीक्षा (review)

अंधकारपूर्ण समय का सबसे मधुर गीत-क़ैद में किताब!

बीसवीं शताब्दी के विश्व प्रसिद्ध जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की एक कविता है-अंधेरे ज़मानो में, गाया भी जाएगा? हां, गाया भी जाएगा, अंधेरे ज़मानों के बारे में। यह कविता दूसरे विश्व युद्ध के पहले वर्ष में लिखी गई। ज़ाहिर है लेखक का काम अपने समय के अंधेरों को पहचानना और उनके ख़िलाफ़ लिखना है। ये अंधेरे राजनीतिक हो सकते हैं, सामाजिक हो सकते हैं और निजी भी हो सकते हैं। लेखक इन अंधेरों को चिन्हित करता है और उनके ख़िलाफ समाज को जागृत करता है। फिल्मकार, फोटोग्राफर सुरेन्द्र मनन का कुछ समय पहले एक कहानी संग्रह आया-क़ैद में किताब (प्रेलक प्रकाशन)। इससे पहले वह अपने कहानी कहानी संग्रह ‘उठो लक्ष्मीनारायण’ और संस्मरणों की ‘पुस्तक-अहमद अल-हलो कहां हो?’ से अपनी लेखकीय प्रतिभा को ज़ाहिर कर चुके हैं। लेकिन ‘क़ैद में किताब’ संग्रह की कहानियों में जिस तरह मनन सामने आते हैं, वह चकित करता है। माइन्यूट डिटेलिंग उनकी कहानियों में ख़ास है। कुप्रिन के बाद कुछ अन्य हिन्दी लेखकों के अलावा इतनी महीन डिटेलिंग मनन के यहां मिलती है। वह अपनी कहानियों के लिए अलग-अलग टूल्स का प्रयोग करते हैं। वह स्वयं यह मानते हैं कि कथा और घटना के अलावा वह सब कुछ जिससे कोई कथा बनती है, या जो किसी घटना का कारण बनता है, कहानी है। समाज में चारों तरफ फैले या फैल रहे अंधेरों पर उनकी ‘फोटोग्राफिक नज़र’ रहती है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘क़ैद में किताब’ ह्यूमन बुक बने नायक के माध्यम से खुलती है। मिसटेकन आइड़ेंटिटी, देशद्रोही, राष्ट्रविरोधी और षड्यंत्रकारी जिस तरह की उपाधियां समाज में आज  बांटी जा रही हैं, उसने चारों तरफ शक का माहौल पैदा कर दिया है। कहानी के नायक को ग़लत पहचान के चलते एक साल की जेल हो जाती है। जब वह जेल से बाहर आता है तो उसे लगता है कि उसकी असली पहचान कहीं गुम हो गई है। वह आयोजकों के ‘ह्यूमन बुक’ बनने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। देश का पूरा राजनीतिक माहौल इस कहानी में चित्रित होता है। एक स्त्री उसे एक ह्यूमन बुक के रूप में पढ़ना स्वीकार करती है। वही स्त्री पूछती है, क्या अंधकारपूर्ण समय में भी गीत गाये जाएंगे और वह ख़ुद ही जवाब देती है, हां, तब गीत अंधकारपूर्ण समय के बारे में गाए जाएंगे। इस अंधकारपूर्ण समय का सबसे ख़ूबसूरत गीत है-क़ैद में किताब।

सुरेन्द्र मनन की नज़र राजनीतिक अंधेरों पर ही नहीं है। वह समाज के अन्य अंधेरों पर भी बाक़ायदगी के साथ लिखते हैं। ‘काया परकाया’ एक 12 साल की बच्ची के साथ हुए बलात्कार    की कहानी है। यह कहानी अपनी भाषा से नहीं अपने दृश्यों से आगे बढ़ती है। बलात्कार के बाद अपनी काया में आ रहे बदलावों से नायिका हताश होती है और वह अपनी पुरानी काया में लौटना चाहती है। मनन ने प्रतीकात्मक अर्थों में नायिका को अपनी पुरानी काया में लौटाने का जो इंतज़ाम किया है, वह पाठक की सोच को उद्वेलित कर देता है। बलात्कार जैसे विषय पर इस भाषा और इस संवेदनशीलता के साथ हिन्दी में बहुत कम कहानियां लिखी गई हैं।

उपभोक्तावादी संस्कृति में एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ ने इंसान को बहुत पीछे धकेल दिया है। ‘गठरी’, ‘बाँसुरी’ इसी दौड़ से पैदा हुई कहानियां हैं। ‘पहाड़’ कहानी समाज के उस हिस्से की कहानी है जो अपनी सोसायटी के सामने ही कूड़े का ढेर जमा करते हैं। एक दिन इस कूड़े के भीतर से ही भयंकर विस्फोट होता है और समूचा पहाड़ भरभराकर गिर पड़ा। गंदगी की उमड़ती चिंघाड़ती लहरें आसपास के सभी इलाकों को लील लेती हैं। पता चलता है कि वहां किसी ऐसे सभ्यता के प्राणी बसते थे जो अत्यंत विकसित थे। इस कहानी को पढ़कर हम शहरों में रहने वाले इस तरह के पहाड़ों को अपनी सोसायटी में देख सकते हैं। इस कहानी में ‘सटायर’ भी दिखाई देता है।

सुरेन्द्र मनन अपनी कहानियों में मनुष्यता को बचाने की लगातार कोशिश करते हैं। शहर में गोल्टू, ऑपरेशन ब्लैक बर्ड्स, लाश-बेशिनाख्त नंबर-9 इसी मनुष्यता की वकालत करती कहानियां हैं। ‘भूख’ कहानी को पढ़कर बर्बस काफ्का की एक कहानी ‘कलाकार का उपवास’ याद आ गई। दोनों निश्चित रूप से अलग धरातल पर लिखी कहानियां हैं। काफ्का ने अपनी कहानी  में दिखाया है कि किस तरह एक कलाकार लोगों के लिए मनोरंजन का ज़रिया बना दिया जाता है। वहीं मनन अपनी कहानी में दिखाते हैं कि किस तरह एक संवेदनशील और असफल चित्रकार तंगहाली के आलम में एक बेकरी में काम करने लगता है। हार कर वह बेकरी में मानव अंगों की आकृति में चीजें बनाता है। दुकान ख़ूब चलती है। दुकानदार की नज़र में चित्रकार फरिश्ता बन जाता है। लेकिन चित्रकार गायब हो जाता है। कला और बाजार की दुनिया का यही रिश्ता बचा है शायद!

क्या व्यक्ति धोखे से ही सही अपनी इच्छाओं को दूसरों के माध्यम से पूरा होता देख सकता है? ‘वंचना’ कहानी एक ऐसे ही व्यक्ति की कहानी है। इस व्यक्ति की एक अजीबोगरीब आदत है। वह हर समय अपनी जेबें टटोलता है। सारी जेबें। जैसे वह जेबों में कुछ रख कर भूल गया हो। इस आदत से छुटकारा पाने के लिए उसने बिना जेबों वाले कपड़े पहनने शुरू कर दिए। इसी तरह एक दिन वह भटकते हुए एक पार्क में पहुंच जाता है। वहां देखता है कि एक बच्चा जमीन पर गिर गए अलग-अलग रंगों और खुश्बू के फूल देख रहा है। उसे फूलों में बच्चों की किलकारियां सुनाई पड़ती है। लेकिन वह बच्चा डर कर भाग जाता है। जाने से पहले वह अपनी जेबें उलट देता है। ज़ाहिर है जेबों में बच्चे ने फूल भरे होंगे। कुछ देर बाद वह व्यक्ति भी पार्क से बाहर आ जाता है। वह व्यक्ति पगडंडी की ओर जाता है। तभी उसे रास्ते में गुमसुम-सा वही बच्चा दिखाई पड़ता है। वह इधर-उधर देख रहा था और बार बार अपनी जेबें टटोल रहा था, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि उसकी आदत थी। क्या नायक भी इसीलिए जेबें टटोलता था कि उसकी जेब से किसी दिन कुछ खो गया था। यह इस संग्रह की एक ख़ूबसूरत कहानी है।

सुरेन्द्र मनन का यह संग्रह पढ़ते हुए बराबर यह याद आता रहा कि कहानी के इस मिज़ाज को हिन्दी का लेखक कहां भूल गया है? कहानी का यह टेंपरामेंट अब क्यों नहीं मिलता? ‘भाषा के वैभव’ पर इतराने वाले लेखक का कंटेंट कहां खो गया है? मनन की कहानियों में कृत्रिमता तिल भर नहीं है। एकदम सहज़ होते हुए भी ये कहानियां अलग कथ्य लिए हैं। ये कहानियां घटनाओं की धुरी पर नहीं खड़ी बल्कि इनमें विचार और परिवेश पूरी शिद्दत से दिखाई पड़ता है। ‘क़ैद में किताब’ पढ़ने के बाद सचमुच लगता है कि अंधेरे ज़मानों में भी गाया जाएगा, अंधेरे ज़मानों के बारे में।

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