कविता

पांच कवितायेँ

तुम और कवितायें

चट्टान पर जो आज कुछ नम सी लगी मुझे ।
तुम अनदेखा करते रहे दो आँखें, जो तुम्हें देखने के लिए निर्निमेष थक गयी थी।
मै यकीन ना करती तो क्या करती!
यकीन करना हमेशा मुश्किल होता है!
तुम मशगूल थे कविता लिखने और मैं
तुम्हारें कंधे पर सिर रखकर
बहती रही कविताओं के भंवर में,
तुम लिखते रहे कागजों पर ,मैं पढती रही तुम्हारे रोम रोम में बसी कविताएँ,,
मेरी कवितायें चिपकी रह गयी तुम्हारी शर्ट पर,
जरा देखना अब भी वहीं होगी मेरी मासूम मुस्कान भरी कविता, तुम कहीं
कुचल ना देना,,, किसी आवारा सिर से उन्हें!
बड़ी नाजुक होती हैं कवितायें आंखों से जो निकली!
तुमने सही वक्त पर समेट ली अपनी कविता
तुम्हारी पहली मोहब्बत जो हैं
पर मैं एक पल भी जाया नहीं कर
सकती थी तेरे मेरे बीच
तुम्हारी कितनी प्रेमिकाओं में मैने
ये दिन पाया था जो रख
सकी तुम्हारे कंधे तक कवितायें !
कल जब नहीं होगा ये कंधा मेरे पास
मैं कोरूगीं कविता कागजों पर
बहने नहीं दुगीं कोई कविता किसी कंधे पर!

गाँव

पुरखो की धरोहर को अपने में समेटे
जाने कितने झगड़े, खून, नफरतो के दौर
प्यार, खुशहाली, मोहब्बतों के गीत
एक पूरी सभ्यता का अस्तित्व और
फिर उसको मिटते देखने का दर्द
इन ठिकरियों में भरा है
और बिखरा है इस इस थेहड़ से
उस थेहड़
अच्छा किया नहीं खोदा गया इतिहासकारों द्वारा
वरना उधड़ आते कितने दर्द
कतर कतर बिखर जाते !
मैं जो दफन किये बैठा हूँ
मेरे सीने में हजारों हजारों कहानियाँ
उन कहानियों के पात्र तुम्हारे ही पूर्वज थे
खेले थे उन्होने भी खेल तुम्हारी ही तरह
खून, नफरतों और साजिशों के
सब दफन हो गये
रह गयी जमीने यहीं जिसके लिए खेले गये युद्ध अपने ही घरों में
अपनों की ही छातियाँ चीरने के लिए
फिर दोहरा रहे हो इतिहास तुम
और फिर खाली पड़ी है जमीन थेहड़ हो जाने को!!

माँ

धरती से पूछो
धरती होने का दुःख
उसी तरह
जैसे
औरत से पूछो औरत होने की पीड़ा !
धरती से पूछो धरती होने का सुख
उसी तरह
जैसे
माँ से पूछो माँ होने का सुख !

औरत
आजकल मुझे
हर औरत नजर आती है
एक जैसी ,
एक सा हो गया है चेहरे का रंग
एक ही दर्द लिए होंठ ,
बुझी सी आँखें
पतियों से ठगी ,
प्रेमियों की लुटी
हर औरत पर
लगता है मेरा चेहरा आ चिपका हो जैसे
दुनिया की सभी टूटी हुई औरतें
एक जैसी होती हैं?

मुझ से छोटे प्रेमी

उम्र के साथ
सिर्फ यौवन ही नहीं जाता
बीत जाता है बहुत कुछ
मन का वो अल्हड़पन
फिर से नहीं लौटता !
मेरी
उठकर फिर ढलती उम्र में
तुम मिल गये हो मुझे
बेइंतेहा चाहने के लिए
तुम जाने कब और कहाँ से
शामिल हो गये ….!

जब मैं अकेले काट रही थी
अपनी बेरंग उम्र को
तुम नयी उम्र के लड़के
अभी – अभी समझने लगे हो
कविताओं को …!

अपनी दुनिया की तरह
खूबसूरत
मैं प्रेम में तुम्हारा मचलना देखती हूँ
और देखती हूँ
मुझसे दूर होने के नाम से ही
भर आना तुम्हारी आँखों में पानी!

तुम अभी
प्रेम की शुरूआत में हो
तुम जानते हो प्रेम में पूरा डूबना!

कुछ वर्ष पहले ही
हुए है अंकुरित ये बीज तुम में,
जिसे मुहब्बत कहते हैं
मेरे गुजरे दौर में अब ये शब्द मात्र हैं।

तुम जिंदा रखना
अपनी कच्ची उम्र
तुम मुहब्बत में ऐसे ही रहना
तुम चाहते रहना मुझ जैसी
चढ़ती और ढलती उम्र के बीच
उलझी औरतों को !
तुम रखना
एक कच्ची उम्र अपनी दायीं जेब में
ताकी अगली बार जब मुझसे मिलो तो
रख सको एक धड़कता दिल
मेरे मरे दिल के ऊपर
मेरे छोटी उम्र के प्रेमी !

प्रियंका भारद्वाज
सम्प्रति – मधुमती, समर्था, कादम्बनी, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, राजस्थली , साहित्य बीकानेर, कथेसर, हथाई, राजस्थान डायरी, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविता, कहानी प्रकाशित !

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