साक्षात्कार

युवा लेखिकाओं से साक्षात्कार श्रृंखला कड़ी – 5

पेशे से चिकत्सक निधि अग्रवाल की रचनाएँ समालोचन, हंस, आदि प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। कुछ कहानियों का पंजाबी, गुजराती और बांग्ला अनुवाद हुआ है। वे अपने लेखन में सूक्ष्म मनोभावों के चित्रण के लिए जानी जाती हैं। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पंडित बद्री प्रसाद शिंगलू सम्मान सहित अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। कहानी संग्रह ‘अपेक्षाओं के बियाबान’,उपन्यास ‘अप्रवीणा’ कविता संग्रह ‘ कोई फ्लेमिंगो नीला नहीं होता ‘ व ‘ गिल्लू की नई कहानी’ उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं।

निधि जी से शब्द बिरादरी के लिए अनुराधा गुप्ता की बातचीत

1/ अपने बारे में कुछ बताएं। बचपन से लेकर अब तक की यात्रा के वे कुछ हिस्से जो आप हम सबसे साझा करना चाहें।

बचपन गाजियाबाद में बीता। लगभग वैसा ही था जैसा हमारे समय के अधिकतर मध्यमवर्गीय घरों के बच्चों का रहा। सीमित आय, सीमित संसाधन, कोई रोक – टोक नहीं थी लेकिन सीमाओं का अहसास था। ऐसी ख्वाहिशें नहीं थी कि कोई बंधन महसूस हो। पापा – मम्मी दोनों जॉब में थे जो सदा पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए सुरक्षित कल के लिए संघर्षरत थे। इस संघर्ष से अधिक उस तनाव के अंधेरों ने हमें गढ़ा जो माता- पिता के परस्पर संबंधों में निरंतर बना रहा। इन सबके बावजूद मन में विश्वास बहुत था कि जो चाहूंगी वो पा लूंगी। पढ़ाई में अच्छी रही। टीचर्स से बहुत प्यार मिला। इंडियन पब्लिक स्कूल ने बड़ी आत्मीयता और आत्मबल दिया। मेडिकल में सिलेक्शन के बाद घर से जब पहली बार बाहर औरंगाबाद हॉस्टल गई तब बहुत होम सिकनेस महसूस हुई पर उस शहर से मेरा जुड़ाव था। सेकंड काउंसलिंग में झांसी मेडिकल कॉलेज ले लिया। वहां पहुंचकर बहुत निराशा हुई। कुछ भी मेरे मन का नहीं था। लाइब्रेरी में साहित्यिक किताबें नहीं थी, हरियाली नहीं थी,  बहुत गर्मी थी और सुविधाएं तो नहीं ही थी। बचपन में मैं जब भी साहित्यिक किताबों के विषय में पूछती थी पापा कहते थे कॉलेज की लाइब्रेरी में सब मिलेंगी तुम्हें। कॉलेज की जो छवि बचपन से मेरे मन में थी वहां वैसा कुछ भी न था।  मैं सबसे पूछती थी कि ट्रांसफ़र कैसे हो सकता है?एक साल बीतते अहसास हुआ कि अब यही रहना होगा। हंसकर रहो या रोकर रहो। सोच बदली तो मन भी बदलने लगा। कुछ ही समय बाद यही प्रेम हुआ और विवाह भी। मेरे पापा वह पत्र दिखाते हैं जिसमें मैंने उन्हें लिख रखा है कि बस एक बार डिग्री पूरी हो जाए मैंने झांसी की ओर मुड़कर भी नहीं देखना है। कोई- कोई बात  ईश्वर दिल पर ले लेता है और कहता है, अब लो मजा बेटा।

2/ अब तक के जीवन का कौन सा दौर आप को सबसे अधिक पसंद है?

इसके लिए मुझे सबसे अधिक संघर्ष के दौर को बताना होगा। विवाह के बाद मेरे जीवन में बड़े बदलाव आए मुझे आगे की पढ़ाई से ब्रेक लेना पड़ा। बिटिया के दो साल के होने पर मैंने अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया। इसी वक्त विक्रम की भी पढ़ाई चल रही थी। अलग अलग शहरों में होने से खर्चे बहुत थे और स्टाइपेंड कम। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद विक्रम ने सफदरजंग हॉस्पिटल में सीनियर रेजिडेंसी की। उसी समय मेरी भी डिग्री पूरी हुई। परिवार साथ हुआ। तनाव के नजरिए से यह सबसे हल्का आश्वस्ति भरा समय था जब लगता था कि जीवन की बागडोर वापस हमारे हाथ में आ गई है। जीवन की पूर्णता में देखूं तो मेरी बड़ी बिटिया के होने के बाद का, पढ़ाई से ब्रेक का समय आर्थिक तंगी के बावजूद भी बड़ा सुंदर था। एक बच्चे के कोमल निर्दोष स्पर्श, उसकी आप पर पूर्ण निर्भरता… इस अनुभूति को शब्दों में कहना मुश्किल है। शेख सराय में मेरी दोस्ती रूमी से हो गई थी उसकी बिटिया भी शुभी जितनी थी। हमारा लगभग पूरा दिन साथ बीतता था। अभावों में भी मित्रों का साथ कैसे जीवन में रंग भर देता है, यह इस सच को परिभाषित करता समय था।

3/ आप की पहली कौन सी रचना थी जो पब्लिक फोरम में आई?

प्रिंट पत्रिका में सबसे पहले लमही पत्रिका में नीला दरवाजा कहानी प्रकाशित हुई लेकिन इससे पहले कई साहित्यिक मंचों पर अपेक्षाओं के बियाबान और पगफेरा ने मुझे कुछ पहचान दी थी।

4/ आप को क्या कभी ये लगा कि आप अपने साथ की बाकी लड़कियों से कुछ अलग सोचती हैं?

बाकी लड़कियों से नहीं बाकी बच्चों से कहूंगी। अभी मुड़कर देखती हूं तो पाती हूं कि माता पिता के रिश्ते का बोझ शायद उन पर उतना नहीं था जितना मेरे बालमन ने ढ़ोये रखा। मेरे भीतर समानता और न्याय की अनिवार्यता हर स्तर हर क्षेत्र में बनी रहती थी। मात्र एक कमरा नहीं मुझे पूरे घर पर अपनी मां का समान अधिकार चाहिए था।

उनकी समूची पीढ़ी में पति पत्नी के बीच पारिवारिक दखल बहुत थी। बचपन से बांग्ला साहित्य और फिल्मों के प्रभाव में होने के कारण मैंने अपने माता पिता को जिस स्नेह सूत्र में बंधा देखना चाहा, मेरे बचपन का बड़ा भाग उसकी राह तलाशते बीता। अपनी मां को पूर्ण प्रेम और मान दिलाने की अदम्य चाह ने ही मुझे तमाम स्त्रियों के अंतर्मन में बैठे अंधेरों तक पहुंचने की दृष्टि दी। हमारे घर के पास एक स्त्री रहती थी जिनका पति किसी अन्य स्त्री के साथ दिल्ली रहता था और वीकेंड पर ही उनके पास आता था। उन्हें देखते हुए मुझे अहसास हुआ कि किसी भी व्यक्ति के लिए प्रेम से अधिक महत्व आत्मसम्मान का होना चाहिए और यह भी अहसास हुआ कि बिना आर्थिक स्वतंत्रता के स्त्रियों के लिए अपने आत्म सम्मान को बचाए रखना मुश्किल है। आर्थिक मजबूती ही सदियों से हम पर लाद दी गई भावनात्मक निर्भरता और पितृसत्तात्मक अनुकूलन में भी सहज सेंध लगा देती है। दो बच्चों को पालते हुए मैं समझ सकी कि जब तक गर्भवती महिलाओं के हितों के रक्षा और बच्चों के उचित पालन पोषण के लिए सुरक्षित स्नेहिल सामाजिक व्यवस्था नहीं बनेगी तब तक पढ़ाई और नौकरी के बाद भी स्त्री स्वतंत्रता और अधिकारों की मुहिम अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकेगी।

और यह समानता हर क्षेत्र हर स्तर पर प्रत्येक प्राणी के लिए तलाशती थी और न पाकर निराश होती थी। मेरे बचपन का एक बड़ा भाग उन कैदियों के लिए सोचते बीता है जिन्हें गुनाहगार न होने पर भी सजा दे दी गई। वे कहां से शक्ति पाते हैं, कैसे जीवट बचाते हैं इस तलाश ने मेरे जीवन की कई अंधेरी राहों से गुजरते मुझे थामे रखा।

5/ आज के समय में जब आप एक आधुनिक और प्रगतिशील परिवेश और समय से जुड़ी हुईं हैं तब आपको अपने आस पास क्या चीज़ सबसे अधिक तनाव देती है?

दो चीजें, सबसे पहली तो घर के भीतर और बाहर लड़कियों से होने वाले दुष्कर्म। क्योंकि ऐसी खबरें ही हमारे भीतर इतना भय भर देती हैं कि लड़कियों को पंख मिलने के बाद भी उनमें उड़ान का साहस नहीं बचता।

दूसरा मानवीय मूल्यों का क्षरण। हमारा समाज बड़ी तेजी से भ्रष्ट और स्वार्थी होता जा रहा है। कहीं कोई जमीर की लकीर नहीं है। ऐसे में अविश्वास और असुरक्षा भरे तनावग्रस्त माहौल में दम घुटता प्रतीत होता है। प्रकृति और पशु पक्षियों का विनाश भी इसी असंवेदनशीलता और लालच का नतीजा हैं

6/ आप के लिए स्त्री – पुरुष का सम्बन्ध किस रूप में और क्या मायने रखता है? ऐसे में विवाह संस्था को आप कैसे देखती हैं?

स्त्री और पुरुष एक सुंदर यात्रा के सहयात्री है, पूरक हैं। अन्य रिश्तों की तरह इस संबंध में भी परस्पर विश्वास और मान होना जरूरी है। मैं विवाह को किसी संस्था के रूप में नहीं देखती। इसका संस्था के रूप में स्थापित हो जाना ही शोषण का कारण बना। दो लोग मिलते हैं, उन्हें लगता है एक दूजे के साथ से हमारा जीवन अधिक सुखकर होगा। वे माला की अदला बदली करें न करें, कोर्ट में नामांकित हो न हो, आगे रिश्ता उनकी सच्चाई और विश्वास से ही निर्धारित होगा लेकिन दोनों का साथ सच्चा होना चाहिए। इसकी नींव छल पर न टिकी हो।

7/ क्या आपको लगता है कि आज के समय का स्त्री विमर्श भटक गया है.या ये स्थिति शुरू से ऐसे ही रही है?

स्त्री  संघर्ष की लंबी यात्रा रही है, लंबी यात्रा में कुछ भटकाव अपेक्षित ही है। अभी मैंने एक रील देखी थी जिसमें लड़की ने अपने बायो में लिखा था इंडिपेंडेंट वीक वूमेन।

यह किसी कॉमेडी शो का हिस्सा थी लेकिन इस शब्द से मेरे जेहन में कई स्ट्रांग डिपेंडेंट स्त्रियां चली आई जो फेमिनिज्म की माला उन्हीं पुरुषों के सहारे खड़े होकर जप रही हैं जिनके लिए स्त्री महज एक देह और बाजारू प्रोडक्ट है। आज के समय भले ही वे पुरस्कृत होती दिखाई दें लेकिन समान अधिकार पाने की इस यात्रा की दिशा, अपनी राह खुद बनाने वाली स्त्रियां ही निर्धारित करेंगी।

8/ एक स्त्री होने के नाते आपको क्या  लगता है कि स्त्री को सबसे अधिक किसने ठगा है?

स्त्री स्वभाव से कोमल होती है मुझे लगता है उसके करुणामयी होने से उसको मैनिपुलेट करना आसान हो जाता है। मैंने कभी लिखा भी था –

हर स्त्री,

भावनात्मक स्तर पर

अनपढ़ ही होती है,

वह नहीं जानती

प्रेम और दया के

अलग मायने।

9/ प्रेम और स्त्री के विवाहेतर प्रेम संबंधों को आप कैसे देखती हैं?

विवाहेत्तर संबंध के लिए केवल स्त्री की ओर ही क्यों देखा जाए। सहभागी पुरुष को भी शामिल करके कहती हूं। देखिए हमारे यहां अरेंज्ड मैरिज की एक सबसे बड़ी समस्या यही है कि शिक्षा, परिवार, खानदान सबका मिलान किया जाता है लेकिन स्त्री पुरुष संबंधों के सबसे महत्वपूर्ण और खूबसूरत यौनिक पक्ष पर कोई विचार नहीं होता। मुझे कृष्णा सोबती जी की मित्रों मरजानी याद आती है उसकी दैहिक इच्छाएं अधिक प्रबल होना उसे दोषी नहीं बना देता। उसे एक ऐसा साथी चाहिए था जिसकी प्यास उस जैसी ही हो। कई दफा इस कारण भी लोग खुशी बाहर तलाशने लगते हैं। यूं इन दिनों देखती हूं अवसर और सुविधा से साथी बना लेने, बदल लेने का चलन है। स्त्री हो या पुरुष स्वार्थ प्राप्ति के लिए बनाए गए रिश्तों को प्रेम नहीं कहा जा सकता। यह जरूर कि my life my choices की राह चलते अगर आप किसी को साथी बनाते हैं तो अपने विचारों को उसे ईमानदारी से बता जरूर दें। दोनों पक्ष इस सामाजिक नैतिकता के परे हैं तो ठीक है वरना पीछे छूटा व्यक्ति बहुत टूट जाता है।

10/ एक स्त्री की सबसे बड़ी ताकत और कमजोरी क्या लगती है?

अपने आस पास की स्त्रियों को देखूं तो पाती हूं कि उनकी  सबसे बड़ी ताकत मौन रहकर राह बनाना रही। उन्होंने युद्ध नहीं लड़े, झंडे नहीं लहराए  लेकिन बहुत कुछ खुद सहते हुए भी चुपचाप आगामी पीढ़ी की स्त्रियों की राह के कांटे बुहारते गईं। कमजोरी स्त्रियों में नहीं मुझे अपने सामाजिक तंत्र में लगती है। लड़कियों को बैंक, टैक्स, लोन , यात्रा हैंडल करने का अवसर बचपन से ही दिया जाना चाहिए। लड़ने के, छलांगे लगाने के, लड़कों से दौड़ लगाने के। परवरिश का अंतर जितना कम होता जाएगा उतनी ही समाज में समानता आती जाएगी।

11/ क्या मातृत्व स्त्री के कैरियर के विकास का अवरोधक है?

इस तथ्य से तो इनकार किया ही नहीं जा सकता। वे कपल जो समान पोस्ट समान तनख्वाह पर भी साथ जिंदगी शुरू करते हैं, वहां भी मातृत्व के दायित्व के कारण लड़की पिछड़ जाती है। अगर कोई स्त्री अपने बच्चे को प्री स्कूल भेजकर दुबारा नौकरी की सोचती है तो उसे पुनः शून्य से शुरुआत करनी पड़ती है। डिजिटल होने से इतना बदलाव जरूर आया है कि पहले जहां बहुत सी स्त्रियां जॉब छोड़ ही देती थी अब ऑनलाइन कुछ काम कर पा रही है। पर इसे समानता नहीं कह सकते। इसी भय से बहुत सारे युवा दंपति बच्चे नहीं चाहते उन्हें लगता है कि इस दायित्व के कारण हम अपना जीवन नहीं जी पाएंगे, जॉब में पिछड़ जाएंगे। मैं उन्हें सही गलत नहीं कह रही। जब तक मानसिक रूप से तैयार न हो बच्चा न करना बेहतर विकल्प है पर हमें इस पर विचार करना चाहिए कि कैसे मातृत्व को बाधक बनने से रोका जा सकता है क्योंकि समान शिक्षा समान नौकरी से शुरुआत करने के बाद भी शीर्ष स्थलों पर  स्त्रियों का अनुपात बेहद कम होने का यह एक बड़ा कारण है । शीर्ष पर बैठा पुरुष पितृसत्तात्मकता को मजबूत करता है।

 12 स्त्रियों की दृष्टि क्या संकुचित और एकांगी है? यदि नहीं तो उनकी भागीदारी, रुचि और हस्तक्षेप पुरुषों की अपेक्षा राजनीति, समाज , देश दुनिया आर्थिक मामलों  आदि में क्यों न के बराबर है?

दृष्टि संकुचित होती तो कोई भी स्त्री आगे नहीं बढ़ पाती। एक भी मछली उड़ नहीं सकती। यहां तो स्त्रियां पिंजरे में बंद पंछियों जैसी हैं। जिन्हें पिंजरे से बाहर आने का मौका मिलता है वे देर सवेर उड़ान भर ही लेती हैं। पिंजरे खोलते चलिए भागीदारी समान होती जाएगी।

13/ सोशल मीडिया ने स्त्रियों को कितना प्रभावित किया है?

प्रभावित तो बहुत किया है किंतु यह अच्छा और बुरा दोनों ही तरह है। बहुत सारी स्त्रियों ने यहां से अपने विचार आगे बढ़ाए। एक दूसरे को जाना समझा। अपनी प्रतिभा को पहचाना, निखारा, आगे बढ़ाया। उनके लिए यह मात्र एंटरटेनमेंट नहीं एनरिचमेंट का भी साधन है। वहीं बहुत सारी स्त्रियों बल्कि पुरुष भी लाइक कमेंट के प्रलोभन में विचित्र बेढब  तस्वीरें, रील भी पोस्ट करते दिखते हैं जिनपर लाखों लाइक भी होते हैं। मुझे लगता है हमारे देश के एक बहुत बड़े तबके की समझ अभी सोशल मीडिया के लायक नहीं है। विशेषकर युवा वर्ग को बिना कोई शिक्षा, बिना कोई रोजगार रील , यू  ट्यूब चैनल बनाते हुए फिर लोगों से आर्थिक मदद मांगते हुए, अवसाद में जाते हुए देखती हूं तो दुख होता है।

14/ आप की पसंदीदा फिल्म और पुस्तक।

अब सोचती हूं तो जाने भी दो यारों कमाल मूवी लगती है। विशेषकर उसके कंटेंट और ट्रीटमेंट को लेकर। पुरानी फिल्मों में जया भादुड़ी, रेखा, स्मिता, शबाना, दीप्ति नवल की फिल्में खूब मन से देखते थे। शशि कपूर और संजीव कपूर अच्छे लगते थे। एक फिल्म का नाम लेना मुश्किल है। बहुत सारी कमर्शियल फिल्में जो उस उम्र में बहुत पसंद आई थी अब देखने पर हंसी आती है, आश्चर्य होता है कि कैसे ही देख ली थीं। अभी नई फिल्मों में पीकू, लुटेरा, कला अच्छी लगी, इन्हें कभी दुबारा देख सकती हूं। Atonement, eternal sunshine of spotles mind, beautiful mind, Midnight in Paris ..  Room, Parasite ….  Atonement… the lovely bones बहुत परफेक्ट नहीं है लेकिन अभी सूरजमुखी अंधेरे के पढ़ने के बाद मैं इसे नई दृष्टि से देख सकी और समझ सकी।

किताबों में मैने मांडू नहीं देखा, दीवार में एक खिड़की रहती थी, अंतिम अरण्य, एक चिथड़ा सुख, शेखर एक जीवनी का पहला भाग….. लंबी लिस्ट है।

15/ आपकी निकट भविष्य की योजना।

दो उपन्यास शुरू किए हूं, कुछ कहानियां चक्कर लगा रही हैं दिमाग में। चाहती हूं उन्हें लिख पाऊं लेकिन लिखने लायक समय निकालने की योजना रोज असफल हो जा रही है।

16/ आपके लिए मित्र।

मुझे लगता है एक भी अच्छा मित्र हो आपके पास तो सुख की रंगत गहरा जाती  है दुख कुछ सहनीय हो जाता है।

17 / परिवार से अलग एक व्यक्ति और एक स्त्री के तौर पर आप अपने को कितना समय दे पाती हैं?

मेरे मम्मी पापा दोनों जॉब में रहे। हम दोनों बहनों की क्लासेज भी अलग अलग समय होती तो ऐसे में लंबे समय हम घर में अकेले रहते। अकेलापन केवल भाता ही नहीं, जरूरत सी बन गया है। न मिले तो बैचैनी होने लगती है। विक्रम के क्लीनिक और बच्चों के स्कूल जाने के बाद सुव्यवस्थित घर को निहारना, महसूस करना मुझे सुकून देता है। मरीज कम होने पर कभी घंटा दो घंटा का me time मिल जाता है। कभी नहीं भी। यह जरूर जोड़ना चाहूंगी कि परिवार में me time से ज्यादा जरूरी परस्पर समझ और सहयोग है।

18/ऐसी कौन सी चीज़ या अवस्था है जो आपको दम घोंटती प्रतीत हो?

हर क्षेत्र में कम प्रतिभाशाली, अधिक भ्रष्ट लोगों का वर्चस्व।  अच्छे  लोग सही होकर भी गलत सिद्ध हो जाने के डर में जीते हैं।

19 /यौनिक शुचिता को लेकर लंबे समय से बहसें चली आ रही हैं..आप उसे कैसे देखती हैं?

मुझे तो बहसें बेमानी लगती हैं। इधर हिन्दी साहित्य दलीलों और फतवों में उलझा है उधर युवा पीढ़ी अपने एक्स संग बिताए समय के सुख दुख अपने साथी को सहज भाव सुना रही है। समाज की नैतिकता समय निर्धारित करता है। फैशन की तरह ही नैतिकता लौटती है। आदि मानव समूह में रहता था। परिवार संस्था नहीं थी तब। फिर लिव इन जैसी परिस्थितियां बनी होंगी फिर उस निर्णय का उत्सव मनाते विवाह अस्तित्व में आया होगा। इन दिनों  लिव इन का प्रचलन है फिर लोग स्थायित्व और एकनिष्ठता तलाशेंगे। विवाह बंधन ठहरे पानी सा गांधियाने लगेगा तो पुनः मुक्त जीवन की चाह बढ़ेगी।

20/ हिंदी साहित्य के स्त्री लेखन ने आपको कितना प्रभावित किया और वर्तमान समय में आप उसे कहां पाती हैं?

स्त्री लेखिकाओं में बचपन में महादेवी जी को अधिक पढ़ा। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि शिवानी जी को पढ़ना मेरा बिल्कुल नहीं हुआ। पिछले दो सालों में कोशिश की कि अधिक से अधिक हिन्दी लेखिकाओं की कम से कम एक किताब तो जरूर पढ़ सकूं। उनकी दृष्टि और रचनात्मकता को जान समझ सकूं।

वर्तमान में बड़े संकट हैं। सोशल मीडिया ने बहुत सारे लेखक कतार में खड़े किए हैं जिनमें से अधिकतर के पास मौलिकता नहीं है, अपना कोई विचार नहीं है। भाषा भी नहीं है। कहानी सामने रखकर कहानी लिखी जा रही है।

भाषा आप प्रयास से अर्जित कर सकते है लेकिन विचार या तो आपके पास होता है या नहीं होता है। विचार चिड़िया का एक नवजात शिशु है जब इस पर शिल्प और भाषा के रोएं उगते हैं तब इसका सौंदर्य बढ़ता है। लेकिन घोंसले में केवल रोएं ही हो तो तात्कालिक आकर्षण भले ही जगा दें आगे बात नहीं बनेगी। साहित्य में कुछ नया जोड़ने के लिए धड़कता हुआ उष्मित तन तो चाहिए ही चाहिए। शिल्पगत प्रयोगों के लिए भी ‘ विचार ‘ आवश्यक तत्व है। यह रचनात्मकता, चिंतनशीलता आप परिमार्जित तो कर सकते हैं भीतर जगा नहीं सकते। यह ईश्वरीय देन होती है। अपने साथ के कहानीकारों में योगिता यादव उपासना, अनुकृति उपाध्याय, उषा दशोरा , प्रकृति करगेती जोखिम उठाती दिखती हैं। बहुत सुंदर भाषा के साथ लोग लिख रहे हैं लेकिन कुछ नया तलाशते नहीं दिखते।

21/ आपकी सबसे बड़ी ख्वाहिश?

किसी ठंडी हरी भरी जगह नदी किनारे अपना घर होना।

22/क्या कभी ये ख्याल आता है कि काश ऐसा न होता तो कुछ यूं होता?

बहुत बार लगता है कि जीवन फिर से जीने को मिले तो इस मर्तबा कम तनाव, कम संशयों के साथ जीने का प्रयास करूं।

23/आज स्त्री शोषण के तरीके बदले हैं..शोषण आज भी है..आपको क्या लगता है एक आत्मनिर्भर शिक्षित युवती के शोषण की सबसे बड़ी वज़ह क्या होगी?

आत्मनिर्भर शिक्षित युवती का शोषण का सबसे बड़ा कारण अभी भी हर क्षेत्र में पुरुषों का शीर्ष पर होना है। लड़कियों को बहुत कुछ चुप रह झेलना पड़ता है। नाकाबिले बर्दाश्त होने पर जॉब छोड़नी पड़ती है या पीछे हटना पड़ता है। जो लड़कियां उनका दिल बहलाव बनने के लिए राजी हो जाती हैं वे भले ही तरक्की पा जाएं लेकिन स्त्रियों के शोषण की खाई और गहरी कर देती हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि कहीं कोई स्त्री शीर्ष पर पहुंच जाती है तो वह भी वैसे ही अहम से भर जाती है। दैहिक शोषण भले ही न करे लेकिन मानसिक शोषण करने में वह भी पीछे नहीं रहती। वह खुद को अन्य स्त्रियों से बहुत ऊंचा मानने लगती है। सत्ता छोटी हो या बड़ी उसका शिकंजा बहुत मजबूत होता है।

निधि अग्रवाल

nidhiagarwal510@gmail.com

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