
रीवा जिले के एक कस्बे गोविंदगढ़ में 15 अक्टूबर 1977 को जन्म।
“समय के साखी” साहित्यिक पत्रिका का 2008 से। निरंतर संपादन और केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र, डॉ रामविलास शर्मा, फिदेल कास्त्रो, रविंद्रनाथ टैगोर, लेव तोलस्तोय व रसूल हमजातोव की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक मेरा दागिस्तान पर विशेषांकों का संपादन।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं ‘मीडिया मीमांसा’ एवं ‘मीडिया नवचिंतन’ के कई अंको का संपादन।
रविंद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित वृहद कथाकोश “कथादेश”में के संपादन से संबद्ध।
कविता संग्रह “मायालोक से बाहर” (2014 में “रचना समय” से प्रकाशित) और “मूक बिम्बों से बाहर” अभी हाल ही में “राधाकृष्ण प्रकाशन” से प्रकाशित।
नरेश सक्सेना का व्यक्तित्व एवं कृतित्व पुस्तक का संपादन (साहित्य भंडार से प्रकाशित)। “इस सदी के सामने” (2000 के बाद की कविताओं का संकलन) का संपादन और “राजपाल एंड सन्स” से प्रकाशित।
साहित्य के विभिन्न पहलुओं, स्त्री चिंतन के विभिन्न आयामों, भूमंडलीकरण एवं तमाम समकालीन बिंदुओं पर लेखन और समकालीन पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
आरती जी से शब्द बिरादरी के लिए अनुराधा गुप्ता की बातचीत
1/ अपने बारे में कुछ बताएं। बचपन से लेकर अब तक की यात्रा के वे कुछ हिस्से जो आप हम सबसे साझा करना चाहें।
*** मैंने नन्ना- नानी के साथ ननिहाल में ढाई साल से 14 साल का समय बिताया। वही जीवन मेरा अब तक का हासिल है। नन्ना जिनका मुझ पर सबसे ज्यादा असर है। जो प्रायमरी स्कूल के हेड मास्टर थे और मैं पांचवी तक उनके ही स्कूल में पढ़ती थी। उनका किसी आइडियल की तरह नहीं, एक सामान्य जीवन जी रहे व्यक्ति की तरह का मेरी स्मृतियों पर असर है। वे बराबर अच्छाइयों और कमियों से बने थे। वे जिद्दी, कड़क अनुशासन वाले, जाति और जेंडर के मामले में थोड़े रूढ़िवादी, परंपरावादी थे तो दूसरी तरफ अध्ययन प्रिय, चित्रकला- मूर्ति कला में पारंगत, (दुर्गा की 7 फीट मूर्ति बनाते थे) कवि, गायक, एक ही किस्सा उनसे बार-बार सुनने में ऊब नहीं होती थी। कुछ तो खास था उनमें कि आज उनके जिक्र के बिना मेरी कोई बात पूरी ही नहीं होती। वे पूरे औपन्यासिक चरित्र थे।
मैं, नन्ना और किताबों का एक किस्सा है।
मैं सातवीं कक्षा में पढ़ रही थी। 90- 91 का सत्र था। शिक्षा विभाग में सर्वशिक्षा अभियान आ चुका था। उसके तहत उन्होंने बहुत सारी किताबें प्राइमरी स्कूलों में भिजवाई थीं। चूंकि नन्ना के स्कूल में उन्हें रखने की व्यवस्थित जगह नहीं थी, न ही कोई अलमारी इसलिए उन किताबों को हमारे घर के एक कमरे में रखवा दिया गया। इस हिदायत के साथ कि “इन्हें छूना भी मत”। और जैसा कि हिदायतों के साथ होता है कि उन्हें टूटना ही होता है और फिर किताबों का आकर्षण। मैंने चुपके-चुपके दो बोरे भर की किताबें पढ़ डालीं। अद्भुत किताबें थीं। विज्ञान, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, माइथॉलजी की कहानियां, कविताएं आदि की किताबें। और किताबें मिलती भी नहीं थीं। घर में कल्याण और पलाश आई थीं। मैं उन्हें भी पढ़ डालती थी। अभी सोचती हूं तो लगता है कि उन किताबों ने ही एक मानस तैयार किया जिन्होंने आज इस विस्तृत दुनिया से मिलवाया। हालांकि उस साल मैं सभी विषयों में जैसे तैसे ही पास हुई थी।
2/ अब तक के जीवन का कौन सा दौर आप को सबसे अधिक पसंद है?
*** अपने जीवन में मुझे ऐसा कुछ खास नहीं लगता सिवाय यही पढ़ने- लिखने का दौर ही सबसे ठीक है।
जो विस्तृत अनुभव पूरी दुनिया घूमकर भी नहीं पा सकते थे, वह सब किताबों के जरिए हासिल हुआ। अभी बहुत कुछ है जिसे हासिल किया जाना है।
3/ आप की पहली कौन सी रचना थी जो पब्लिक फोरम में आई?
**” थोड़ी बहुत कविताएं अखबार और कुछ पत्रिकाओं में छपती रहीं लेकिन “सुनो बसंत* और भी तीन कविताएं हरिशंकर अग्रवाल जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका “आकंठ” में पहली बार व्यवस्थित रूप में छपकर सामने आई थीं। और उस पर जो प्रतिक्रियाएं आईं उससे विश्वास हुआ कि लिख सकती हूं।
4/ आप को क्या कभी ये लगा कि आप अपने साथ की बाकी लड़कियों से कुछ अलग सोचती हैं?
*** मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि लेखक बनूंगी। लेखक, वैज्ञानिक ये सब दूसरी दुनिया के लोग लगते थे लेकिन आकर्षित करते थे। मेरे बचपन से लेकर किशोर होने तक मुझे सभी अपने से बेहतर लगते थे।
पहले तो नहीं लगा कि कुछ अलग सोचती हूं पर अब महसूस होता है कि स्कूल कॉलेज के दोस्तों के और मेरे सोचने- समझने- चाहने के बीच सोच की एक गहरी खाई बन गई है।
5/ आज के समय में जब आप एक आधुनिक और प्रगतिशील परिवेश और समय से जुड़ी हुईं हैं तब आपको अपने आसपास क्या चीज़ सबसे अधिक तनाव देती है?
*** संस्कृत में एक कहावत की तरह है “पुनः मूसको भव”; यह पूरी कहानी है लेकिन इस वाक्य को सूक्ति की तरह प्रयोग किया जाता है। इस कहानी की तरह ही फिर से अतीत की ओर दौड़ लगाता हुआ समाज बहुत तकलीफ देता है। जहां हमें वैज्ञानिक चेतना से लैस होकर अपने समाज को प्रगतिशील बनाना था, वहीं हम अतीतजीवी बन रहे हैं और इस पर गर्व करने का भी अभियान चलाया जा रहा है।
6/ आप के लिए स्त्री – पुरुष का सम्बन्ध किस रूप में और क्या मायने रखता है? ऐसे में विवाह संस्था को आप कैसे देखती हैं?
*** पुरुष स्त्री का सहयोगी हो, किसी भी रिश्ते के फ्रेम में तभी समाज का ढांचा सही आकार पा सकता है। वरना वह “दो पहिये वाली गाड़ी” जिसे कहावत में बार-बार दोहराया जाता है लेकिन असलियत में वह लड़खड़ाती जैसे तैसे जीवन का सफर पार करती है। ऐसे में विवाह संस्था सिर्फ एक कैद है। और इसीलिए नयी पीढ़ी विवाह नहीं करना चाहती – जो इस बात का प्रतीक है कि विवाह संस्था का समय के साथ उचित विकास नहीं हुआ। यही इस संस्था की सबसे बड़ी असफलता है।
फैमिली वेजेज, मैरिटल रेप जैसे बिंदुओं पर पर्याप्त बहस होनी चाहिए और कानून बनना चाहिए तभी आधुनिक विवाह संस्था कायम रह सकती है।
7/ क्या आपको लगता है कि आज के समय का स्त्री विमर्श भटक गया है या ये स्थिति शुरू से ऐसे ही रही है?
*** स्त्री विमर्श शब्द से मुझे भी थोड़ी आपत्ति है। दरअसल यह एक स्त्री आंदोलन है। लैंगिक असमानता को खत्म करने का आंदोलन। इंसानियत के हक को हासिल करने का आंदोलन। यह इतनी समाज में और व्यक्ति के मानस में जड़ जमाई हुई व्यवस्था है कि आईडियोलॉजिकल इसकी व्याख्या करने में समय लगा। यूरोप में जहां से यह आंदोलन शुरू हुआ वहीं थोड़े ही समय बाद कई टुकड़ों में बंट गया। कारण यह भी था कि शुरुआत से ही इस पर चौतरफ हमले होने शुरू हो गए थे। दुनिया भर का पुरुष प्रधान समाज कभी भी स्त्रियों को समानता का हक देने के लिए तैयार ही नहीं था। बुद्धिजीवी भी तैयार नहीं हुए। प्रारंभिक सिद्धांतकार जैसे- सिमोन द बोउआ, बेट्टी फ्रीडेन, जान स्टुअर्ट मिल, रोजा लम्सबर्ग, क्लारा जेटकिन आदि के बाद भारत में आते-आते तक वह अपने मूल से यानी लैंगिक संघर्ष से भटक कर पूंजीवाद की छत्रछाया में जा बैठा था।
भारत में दो तरह की स्थिति नजर आ रही है, एक- जो स्त्री संघर्ष की जड़ों को अतीत में खोजने की कोशिश कर रहे हैं। नवजागरण के समय की नायिकाओं को खोज-खोज कर सामने ला रहे हैं। और दूसरा देह, यौनिकता, सेक्स, खूबसूरती को बाजार का प्रोडक्ट बनाने की कोशिश में लगे हैं। बेसिक संघर्ष यानी अधिकारों की जमीन को मजबूत बनाने और शोषण के कारकों की तलाश के साथ-साथ उसके निदान की तरफ भारतीय स्त्रीवाद का ध्यान बिल्कुल भी नहीं है। यह काम सैद्धांतिक रूप से मजबूत होने पर ही किया जा सकता है और उसके लिए मुझे समाजवादी स्त्रीवाद की भूमिका हमेशा से ज्यादा जरूरी लगी है जो निजी संपत्ति के स्वामित्व का हकदार स्त्री को भी उतना ही मानती है। अभी के हालत में पूंजीवाद के हमलों को स्त्री की चेतना पर समझना होगा। बाजारवाद के आने के साथ ही स्त्री बाजार का सबसे बड़ा प्रोडक्ट रही। अभी टेक्नोलॉजी उसको और धारदार बना रही है।
8/ एक स्त्री होने के नाते आपको क्या लगता है कि स्त्री को सबसे अधिक किसने ठगा है?
*** स्त्री को सबसे अधिक धर्म ने ठगा है। बल्कि धोखा दिया है। उसे दो भागों में बांटकर (एक देवी और दूसरी दासी) देखने का नजरिया समाज को, पुरुष को और यह भ्रम स्त्री के दिमाग में भी धर्म ने ही बैठाया है। और आश्चर्य यह भी कि धर्म का सबसे ज्यादा पोषण स्त्रियां ही करती हैं।
धर्म जो अपने पुरातन -पिछड़े रूप में चला आ रहा है, इसका सबसे मजबूत स्तंभ स्त्रियां हैं। यह बिल्कुल गलतफहमी होगी कि हम किसी मंदिर-मस्जिद- मठ या मौलवी-पुरोहित-पंडों या गीता-कुरान-बाइबल आदि चीजों को धर्म के बने रहने का श्रेय दें।
9/ प्रेम और स्त्री के विवाहेतर प्रेम संबंधों को आप कैसे देखती हैं?
*** प्रेम तो आदिम समय से ही मानवीय स्वभाव है। वह विवाह से पहले और बाद में कभी भी हो सकता है। बस उसे क्रिमिनल नहीं होना चाहिए।
10/ एक स्त्री की सबसे बड़ी ताकत और कमजोरी क्या लगती है?
*** खुद को पहचान सकता कि वह सेकंड सेक्स नहीं है। जिस दिन उसने अपनी ताकत और अब तक की व्यवस्थाओं के छल छद्म को पहचान लिया, धार्मिक संस्थाओं द्वारा बनाई गई संस्कृतिकता के कैद से बाहर निकल आई, उसके बाद वह कतई कमजोर नहीं हो सकती।
उसे दिन जिसे अभी तक कमजोरी कहा जा रहा है या वह साबित हो रही है, वह उसकी सबसे बड़ी ताकत हो जाएगी।
हालांकि यह इतना आसान नहीं है। इस रास्ते में बहुत मुश्किलें हैं लेकिन उन्हें पार करना ही होगा।
11/ क्या मातृत्व स्त्री के कैरियर के विकास का अवरोधक है?
*** मातृत्व अवरोध नहीं है। व्यवस्थाएं अवरोधक हैं जो मातृत्व का पूरा भार सिर्फ स्त्री के ऊपर डाल देती हैं और बदले में उसे थोड़ा सा महिमामंडित करती हैं। मातृत्व की जिम्मेदारियां बंट जाएं तो वह जीवन का खूबसूरत रचनात्मक अवधि होगी।
12/ पुरुष की स्त्री के जीवन में कितनी और क्या भागीदारी दिखती है?
***एक साथी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका है।
दोनों के सहयोग से एक नई और खूबसूरत दुनिया बनती है।
और यह साथी सिर्फ प्रेमी या पति नहीं है, यह दोस्त, पिता, भाई, बेटा या अन्य किसी भी रूप में हो सकता है।
13 / स्त्रियों की दृष्टि क्या संकुचित और एकांगी है? यदि नहीं तो उनकी भागीदारी, रुचि और हस्तक्षेप पुरुषों की अपेक्षा राजनीति, समाज , देश दुनिया आर्थिक मामलों आदि में क्यों न के बराबर है?
*** स्त्रियों की दृष्टि और दिमाग दोनों को लेकर के गलतफहमियां पितृसत्ता का बनाया फाल्स नॉरेटिव है। ऐसा मानना वैज्ञानिक चेतना के भी खिलाफ है। रही बात उनके बराबर न होने की तो, जो व्यवस्थाएं हजारों सालों से गहराई से चेतन में और समाज में बैठी हुई हैं कि स्त्री पुरुष बराबर नहीं है, हालांकि वे आधुनिकता के साथ खारिज की गईं लेकिन भागीदारी के आठ दशकों केभीतर कैसे वे पुरुषों के बराबर पहुंच जाएंगी। (स्त्रियों के लिए आंशिक आजादी का काल भारत में आजादी के बाद, जब उन्हें कुछ कानूनी हक मिले और दुनिया भर में भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही देखना चाहिए) हर क्षेत्र में उनका प्रवेश अभी-अभी ही हुआ है। अपने भीतर की मानसिक और बाहर की सामाजिक- सांस्थानिक लड़ाई के तौर तरीके सीखने और सामंजस्य बिठाने में समय लगेगा।
14 / सोशल मीडिया ने स्त्रियों को कितना प्रभावित किया है?
*** घर बैठे एक स्पेस दिया है। बहुत सारे खिड़की दरवाजे खोल दिए जहां से वे अपने को अभिव्यक्त कर सकती हैं। हजारों नकारात्मकताएं गिनाई जा सकती हैं/ वे हैं भी लेकिन अभी कविता का जो उठान सामने आया है और खासकर स्त्री कविता का, उसमें सोशल मीडिया का बड़ा हाथ है।
15 / आप की पसंदीदा फिल्म और पुस्तक।
***शॉर्ट फिल्में मुझे अच्छी लगती हैं। एक तो इन्हें एक बैठ कर देख सकना संभव होता है और वे कंटेंट और क्रिएटिविटी दोनों में आर्ट और पॉपुलर सिनेमा से बेहतर होती हैं, जैसे “द ग्रेट इंडियन किचन”।
मेरी प्रिय पुस्तक तो मुझे रसूल हमजातोव की “मेरा दागिस्तान” और यशपाल की “दिव्या” बेहद पसंद है।
16 / आपकी निकट भविष्य की योजना।
*** अभी तक के जीवन में देखे और स्मृतियों को परेशान करने वाले बहुत ही साधारण किस्म की स्त्रियों पर एक संस्मरणात्मक स्कैचनुमा लेखन करना है।
17 / आपके लिए मित्र।
***मित्रता तो बहुत जरूरी चीज है लेकिन उससे भी ज्यादा दुर्लभ है। कुछ लोग आसपास है जिन्हें मित्र मान सकते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि यह मानना गलतफहमी में कभी भी बदल सकता है।
स्त्री मित्रों के ऊपर जिम्मेदारियां ज्यादा होती हैं। वे अपनी इच्छाओं के लिए स्वतंत्र भी कम होती हैं। इसलिए साहित्य की दुनिया में भी स्त्रियां में गाढ़ी मैत्रियों के उदाहरण न के बराबर मिलेंगे।
पुरुष मित्र हैं लेकिन हमारा सामाजिक वातावरण स्त्री- पुरुष मैत्री के लिए अभी भी तैयार नहीं है। लेकिन नई पीढ़ी में यह स्पेस अधिक बन रहा है। जैसे-जैसे समानता बोध बढ़ेगा, स्त्री पुरुष के बीच मित्रता की संभावनाएं भी बढ़ेंगी।
18 / परिवार से अलग एक व्यक्ति और एक स्त्री के तौर पर आप अपने को कितना समय दे पाती हैं?
*** जन्म से ही अपने आसपास देखा हुआ वातावरण इस कदर भीतर जकड़ा हुआ रहता है कि चेतना के विस्तार के बाद आप खुद के लिए सोचते जरूर हो लेकिन कुछ कर नहीं पाते। बहुत ज्यादा सतर्कता और चिंतन के बाद जो कुछ हो पाता है वह लेखन ही है।
अकेले रहने के बाद भी आप अकेले नहीं रह पाते। परिवार आपकी सोच में हर समय बैठा हुआ होता है।
19 / ऐसी कौन सी चीज़ या अवस्था है जो आपको दम घोंटती प्रतीत होती हो?
*** जातिवाद और बाल भिक्षावृत्ति।
इन दोनों चीजों को मैं थोड़ा स्पष्ट करूंगी।
जाति के भीतर सफाई कर्मियों की स्थिति। टेक्नोलॉजी के इतना आगे बढ़ जाने के बाद भी हमारे देश में सफाई से संबंधित कोई भी टेक्नोलॉजी का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। यह पूरी व्यवस्था एक जाति विशेष के ऊपर थोप दी गई है और आधुनिक लोकतंत्र में भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया। आप हर साल खबरें और आंकड़े पाते हैं की सैंकड़ों सफाईकर्मी सीवर में दम घुटने से मर गए।
दूसरी तरफ छोटी-छोटी नई आधुनिक चीजों को बेचने के लिए गरीब घूमंतू बच्चों का इस्तेमाल करता हुआ बाजार भी बहुत व्यथित करता है। इन नौनिहालों के पुनर्वास का कोई भी उपाय हमारा शासन तंत्र नहीं कर रहा। लगातार कई पीढ़ियां अशिक्षित बनी हुई हैं।
20/यौनिक शुचिता को लेकर लंबे समय से बहसें चली चल रही हैं। आप उसे कैसे देखती हैं?
***संपत्ति पर स्वामित्व और उसे मजबूत बनाने के लिए ही रक्त शुद्धता की परिकल्पना की गई। और यह काम स्त्री को यौनिक रूप से नियंत्रण में रखकर ही किया जा सकता था।
और हां, कार्ल मार्क्स का इकोनॉमिकल पॉलिटिक्स का सिद्धांत जिसे “कैपिटल” में बहुत अच्छे से विश्लेषित किया गया है, वह विशेष रूप से योनिक सुचिता की व्यवस्था के पीछे काम करता है। इस तरह से देखा जाए तो यह एक समय विशेष का कानून था जिसने स्त्री की दासता को कालजयी बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। इसे अधिक टिकाऊ बनाए रखने के लिए धार्मिक नियमों से बांधा गया। यहां शुचिता केवल विवाह के भीतर की मांग नहीं है बल्कि वह सिर्फ स्त्री के चरित्र का सर्टिफिकेट हो गई। यौनिक शुचिता स्त्री के लिए निजी मामला होना चाहिए जैसाकि पुरुष के लिए है। वे कोई भी आग्रह जो स्त्री के लिए अलग और पुरूष के लिए अलग हैं, मेरी नजरों में गलत हैं।
इस एक अतिरिक्त के आग्रह ने कितनी सारी समस्याओं को जन्म दिया है- प्रताड़ना, शोषण, बलात्कार, खाप पंचायत के फैसले, देह व्यापार और विज्ञापनों में होने वाला देह प्रदर्शन भी। शुचिता की परिकल्पना और उसे लागू करने के लिए बनाए गए सामाजिक, धार्मिक नियम, पाप- पुण्य की अवधारणा सिर्फ स्त्री की योनि पर पहरा देने के तरीके हैं जिन्हें समाज और धर्म मिलकर करते हैं।
21 / हिंदी साहित्य के स्त्री लेखन ने आपको कितना प्रभावित किया और वर्तमान समय में आप उसे कहां पाती हैं?
*** मेरे विधिवत अध्ययन की शुरुआत स्त्री लेखन से ही हुई। पी.एच-डी. में मेरा विषय “समकालीन कविताओं में स्त्री जीवन की विविध छवियां” था तो शुरुआत में मैंने सबसे ज्यादा स्त्री अध्ययन से संबंधित किताबें ही पढ़ीं। राजेंद्र यादव, अरविंद जैन, प्रभा खेतान, कात्यायनी तो दूसरी तरफ- जाॅन स्टुअर्ट मिल, सिमोन द बोउआ, बेट्टी फ्रीडेन, देवेन्द्र इस्सर। इन सबके अलग-अलग असर थे। चीजों को समझने की खासकर हमारी अपनी सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं को पहचानने का शऊर मुझे इन्हीं किताबों से मिला। इसके बाद मार्क्सवादी स्त्री अध्ययन जिसमें क्लारा जेटकिन, रोजा लम्जबर्ग की स्त्री चिंतन पर स्थापनाएं पूरा नींव बनाती हैं।
22 / आपकी सबसे बड़ी ख्वाहिश?
*** एक अच्छा अध्यापक बनने की थी लेकिन उसका रास्ता बहुत पीछे छूट गया। अब मुझे जो चीज सबसे ज्यादा अपनी तरफ खींचती है वह “मेरा दागिस्तान” जैसी किताबें हैं। अद्भुत किताब है। कितने बड़े-बड़े पहलुओं को एक मुहावरे में ढाल कर हल कर देती है।
23 / क्या कभी ये ख्याल आता है कि काश ऐसा न होता तो कुछ यूं होता?
** हां बहुत सारे पल ऐसे हैं ऐसे। खासकर जीवन में जब गलतियां हुईं। लोगों को उनके सही व्यक्तित्व के साथ नहीं पहचाना। धोखा मिला, तब तक लगा कि काश ऐसा न होता। यह क्रम आज भी घर और बाहर बराबर है।
24 / स्त्रियों को कमज़ोर क्यों कहा जाता है?
*** पितृसत्ता अपनी सत्ता और व्यवस्था बनाए रखने के लिए अलग-अलग तरीकों से ऐसा साबित करने की कोशिश करती है लेकिन यह सच नहीं है। यह कूटनीतिक चाल है जो सारी वैज्ञानिकता को सिरे से खारिज करती है। अब यह समाज पर निर्भर है कि वह फाल्स नॉरेटिव से चले या विज्ञान को तरजीह दे।
25 / आज स्त्री शोषण के तरीके बदले हैं कि किंतु शोषण आज भी है. आपको क्या लगता है एक आत्मनिर्भर शिक्षित युवती के शोषण की सबसे बड़ी वज़ह क्या होगी?
*** धर्म, सत्ता और परिवार जैसी पितृसत्तात्मक संस्थाओं के बारे में तो बात निश्चित है ही।
आज के संदर्भ में स्त्री के वजूद पर पूंजीवादी संस्थानों की जकड़बंदी को न पहचानना या उसे अपना सहयोगी समझना, सबसे बड़ी गलती होगी। आज की नई स्त्री के शोषण की सबसे बड़ी वजह पूंजीवादी राज्य की संरचना है।
यह बात पहले भी दोहराई जाती रही है कि पूंजीवाद के रास्ते फासिज्म आता है जो अतीत की देहरियों के भीतर सबसे पहले स्त्री को धकेलता है। तो जो बाजार, मीडिया, सिनेमा एक चमक पैदा कर रहे हैं, समानता की धुंध फैला रहे हैं, उसमें सबसे बड़ी शिकार स्त्री है। देह अब पीछे छूट गई। अभी तक आधुनिकता के क्रम में उसने जो चेतना विकसित की है, सबसे बड़ी मार उस चेतना पर पड़ने वाली है या पड़ रही है।
आरती
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