मैं तुमसे बातें करना चाहता हूं
जब एकांत में तुम्हे पाता हूं
तुम बहुत कुछ मुझे समझा जाती हो,
मगर पलकें तक न उठाती हो
मैं सिर झुकाए तुममे डूबा रहता हूं,
तुममें ही तुम्हारी खोज करता हूं
मगर समय बहुत जल्दी बीत जाता है
मैं तुम्हे पूरा नहीं, कुछ हद तक ही,
अपने पास रख पाता हूं
तुम बिना देखे ही मुझे,
मेरा सबकुछ जान जाती हो
मैं तुम्हे रोकना चाहता हूं
पर सात दिन ही हम साथ रह पाते हैं
सात दिनों बाद फिर से तुम उस लाइब्रेरी में,
सजाई जाती हो,
मैं फिर तुम्हे खोजने आता हूं
तुम कहीं खो जाती हो
खुश मैं तब भी होता हूं
जब तुम मेरे सहपाठी के बस्ते में भी
आती हो,
मैं पी.डी.एफ तुम्हारा बनाकर बस
यह प्रतिबिंब आंखों में समाता हूं
फिर से हम पढ़ने में डूब जाते हैं
और तुम टेबल पर मेरे,
बैठ शांत,
मुझे ज्ञान का भंडार दे जाती हो।
–विष्णु प्रिया