वरिष्ठ आलोचक प्रो. गोपेश्वर सिंह से अनुराधा गुप्ता की बातचीत

साक्षात्कार

‘साहित्य के जनतंत्र में आलोचना प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली विधा है’

गोपेश्वर सिंह हमारे समय के महत्त्वपूर्ण आलोचक व चिन्तक हैं. आधुनिक साहित्य के साथ
भक्ति साहित्य को अलग नजरिए से देखने और उसके महत्त्वपूर्ण आयाम उद्घाटित करने में
उनका विशेष योगदान है.उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं – ‘नलिन विलोचन शर्मा’ (विनिबंध,साहित्य अकादेमी),
‘साहित्य से संवाद’, ‘आलोचना का नया पाठ’ तथा ‘भक्ति आन्दोलन और काव्य’ के अतिरिक्त ‘भक्ति आन्दोलन के
सामाजिक आधार’, ‘नलिन विलोचन शर्मा: संकलित निबंध’(नेशनल बुक ट्रस्ट), ‘शमशेर बहादुर सिंह :संकलित
कविताएं’(नेशनल बुक ट्रस्ट ), “कल्पना’ का ‘उर्वशी’ विवाद” और ‘नलिन विलोचन शर्मा :रचना संचयन’(साहित्य
अकादेमी) . उनके उत्कॄष्ट आलोचना कर्म के लिए उन्हें , केदारनाथ अग्रवाल स्मॄति संस्थान का
प्रतिष्ठित रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान दिया जा रहा है. गोपेश्वर सिंह से उनके लम्बे
लेखकीय और जीवनगत अनुभवों के साथ समकालीन आलोचना से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों
पर बात करने का अवसर मिला. प्रस्तुत हैं बातचीत के कुछ अंश …


प्रश्न- गोपेश्वर जी, सबसे पहले रामविलास शर्मा पुरस्कार मिलने की आपको बहुत-बहुत
बधाई. आप कैसा महसूस कर रहे हैं?


उत्तर-मैं आभारी हूँ ‘रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ देने वाले संस्थान का कि उन्होंने
मुझे इस योग्य माना. रामविलास शर्मा का जीवन और कर्म मेरे लिए हमेशा प्रेरक रहा है.
उनका विशाल ज्ञान, लेखन के प्रति समर्पण, जनपक्षधर रुझान, दुनिया के छल-छंद से
निर्लिप्त, लाभ-लोभ की राजनीति से दूर रहने वाले रामविलास जी के लिए मेरे मन में गहरा
सम्मान है. इस लिए इस सम्मान को दिए जाने की सूचना जब विभूति नारायण राय ने दी
तो मुझे बेहद खुशी हुई. खुशी एक तो अपने आलोचना कर्म के पहचाने जाने की तथा दूसरी,
जिन रामविलास शर्मा को हिंदी आलोचना का मैं शिखर मानता हूँ, उनके नाम पर मिले इस
सम्मान की.


प्रश्न- आलोचना आपकी प्रिय विधा रही है, ऐसा क्यों?

उत्तर- लिखने के लिहाज से आलोचना मेरी प्रिय विधा है. वैसे मेरी सर्वाधिक प्रिय विधा तो
कविता है, लेकिन एक पाठक के तौर पर. मुझे जो बहुत सारे अफ़सोस हैं उनमें से एक कवि
न होने का भी है . बचपन में कुछ कविताएँ लिखी थीं लेकिन अंतत: कविता मुझसे सध न
सकी और कविता से मेरा प्रेम सिर्फ़ पढ़ने तक सीमित हो गया. अच्छी कविता पढ़ने पर मुझे
समाधि में जाने का सुख मिलता है. लेकिन मैं लिखता तो हूँ आलोचना. आलोचना में मैं क्यों
आया मैं कह नहीं सकता, उसकी कोई तैयारी नहीं थी. परिचित सम्पादक मित्रों ने
आलोचना लिखने के काम में लगा दिया और मैं तब से लगा हुआ हूँ. आलोचना अब मैं
इसलिए लिखता हूँ कि साहित्य के जनतंत्र में वह प्रतिपक्ष की भूमिका में है. आलोचना के
बिना ‘ग़लत’ के विरुद्ध सही समय पर सही आवाज़ नहीं उठ सकती. साहित्य के जनतंत्र में
आलोचना प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली विधा है.


प्रश्न- आज के समय में आलोचना की वास्तविक भूमिका क्या है और ये क्यों जरूरी है?


उत्तर- आलोचना का जो आधुनिक रूप है उसका गहरा संबंध लोकतंत्र, लोकतांत्रिक आकांक्षा
और लोकतांत्रिक मिजाज़ से है. मैं अगर कह रहा हूँ कि आलोचना साहित्य के जनतंत्र का
प्रतिपक्ष है तो उसके पीछे यह भाव निहित है कि उसका जन्म लोकतंत्र के उदय से जुड़ा हुआ
है. पहले जब राजतंत्र था तब जिसे साहित्य शास्त्र कहते हैं उसका ज़माना था. चूंकि हम
राजतंत्र में राजा की अलोचना नहीं कर सकते क्योंकि आलोचना का अधिकार जनता को
नहीं है इसलिए उस ज़माने की आलोचना यानी साहित्य शास्त्र, रस, छन्द, अलंकार ,
वक्रोक्ति आदि, के माध्यम से तैयार हुआ. वहाँ साहित्य के कंटेट पर जोर कम और रूप
विधान पर अधिक है लेकिन जब लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ तब सत्ता पक्ष
के साथ प्रतिपक्ष का भी जन्म हुआ. संसद में जो भूमिका प्रतिपक्ष की है साहित्य में वही
भूमिका आलोचना की है. प्रतिपक्ष के बिना आधुनिक साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती
. आलोचना समाज और साहित्य को जन आकांक्षाओं के अनुरूप बनाए रखने का सबसे बड़ा
हथियार है.

प्रश्न- आप हिन्दी के किन आलोचकों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और क्यों?


उत्तर- मेरे प्रिय आलोचक हैं जो हमेशा मेरी आँखों में रहते हैं, वे हैं रामचंद्र शुक्ल,
रामविलास शर्मा, नलिन विलोचन शर्मा, विजयदेव नारायण साही और नामवर सिंह .और
भी बहुत से आलोचक हैं जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है लेकिन बहुधा जिन्हें मैं उद्धॄत करता
हूँ और जो मेरे दॄष्टि पथ में प्राय: रहते हैं वे यही हैं. सीखने के लिए तो हमने अंग्रेजी के और
दूसरी भाषा के आलोचकों से भी बहुत कुछ सीखा है लेकिन हिंदी का होने के नाते मेरे दॄष्टि
पथ में यही आलोचक रहते हैं.


प्रश्न- जिन आलोचकों का आपने जिक्र किया उनकी कौन सी बात आपको अच्छी लगती है?


उत्तर- रामचंद्र शुक्ल मुझे इसलिए अच्छे लगते हैं कि उनकी आलोचना में सिद्धांत और
व्यवहार का मणि कांचन संयोग है. उनके यहाँ दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे रचना के
मर्म को पहचानने वाले आलोचक हैं. शुक्ल जी ने कहा कि महाकवि वह होता है जिसे
जीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान हो. इसी वजन पर मैं कहना चाहूँगा कि आलोचक भी
बड़ा वह होता है जो रचना के मर्म को पहचानता है. शुक्ल जी ने यदि कह दिया कि केशव
को कवि हॄदय नहीं मिला था तो साहित्य के आचार्य अज्ञेय और विश्वविद्यालय के आचार्य
विजयपाल सिंह के कलम तोड़ लिखने पर भी उन्हें कवि हॄदय नहीं मिला. शुक्ल जी की ही
तरह रचना के मर्म को उद्घाटित करने में नामवर सिंह की आलोचक प्रतिभा कमाल करती
रही है. रामविलास शर्मा इसलिए प्रिय हैं कि आज हिन्दी पाठक का जो कामनसेंस है उसका
अधिकांश उन्हीं का बनाया हुआ है. भारतेन्दु, प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, हिन्दी
नवजागरण, हिन्दी जाति, लोकजागरण का जो बोध हिन्दी पाठक के पास है वह रामविलास
शर्मा का निर्मित किया हुआ है, यह कोई सामान्य बात नहीं. यह काम कोई असाधारण मेधा
वाला आलोचक ही कर सकता है. इनके अलावा नलिन विलोचन शर्मा बहुत प्रिय रहे हैं. वे
मानते थे कि आलोचना वही अच्छी है जो किसी कॄति का निर्माण करे. रचना के रूप पक्ष की
घनघोर सराहना करने वाले नलिन जी ने विज्ञान सम्मत साहित्य दॄष्टि पर जोर दिया और

किसी भी तरह की चमत्कार प्रियता, वह चाहे धर्म की हो या साहित्य की, का विरोध किया.
विजय देव नारायण साही ने समाज सापेक्ष जिस आलोचना की प्रस्तावना लिखी वह समाज
सापेक्षता बहुत हद तक भारतीय ज़मीन से जुड़ी हुई है. इन्हीं सब कारणों से ये आलोचक
मुझे प्रिय लगते हैं. लेकिन इनमें से किसी एक को चुनने की मज़बूरी हो तो मैं रामचंद्र शुक्ल
को चुनूँगा.


प्रश्न- आपकी आलोचना और भाषा में कोई उलझाव नहीं. वह बेहद सम्प्रेषणीय और साफ़
है. यह गुण आपने किस आलोचक से अर्जित किया?

उतर – हाँ, यह कहना आपका सही है कि मेरी भाषा और मेरे कहन में सफ़ाई है.न सफ़ाई का
सीधा संबंध आपकी साफ़ समझ और साफ़ दॄष्टि और साफ़ मन से है. मैं वही लिखता हूँ
जिसके बारे में मेरी समझ साफ़ है और जो मेरी समझ का हिस्सा है. मैं मानता हूँ कि हमारे
कहने में उलझाव तब पैदा होता है जब हमारी दॄष्टि और हमारी समझ में उलझाव हो.
उलझी समझ और उलझी दॄष्टि के साथ मैं नहीं लिखता. मैं उन्हीं विषयों और व्यक्तियों के
बारे में लिखता हूँ जिनके बारे में दॄष्टि और समझ साफ़ हो. साफ़गोई मेरे जीवन व्यवहार में
भी है और आलोचना व्यवहार में भी. जहाँ तक भाषा की सफ़ाई की बात है तो वह गुण मैंने
हिन्दी के दो कवियों से लेने की कोशिश की. लोगों को आश्चर्य तो होगा लेकिन मेरे लिए यह
सत्य है कि साफ़-सुथरा गद्य लिखने की कला मैंने बच्चन और दिनकर से सीखी. इन दोनों का
गद्य हिन्दी प्रकॄति का है, कर्ता कर्म और क्रिया वाला गद्य. उस पर अंग्रेजी वाक्य रचना का
प्रभाव बिल्कुल नहीं. यह गुण रामविलास शर्मा के गद्य में भी है. तो कहने की सफ़ाई मैंने
इन्हीं लोगों से सीखी. यों सीखने के लिए तो हम बहुतों से बहुत कुछ सीखते रहते हैं. साही
की बहसधर्मी भाषा और नामवर सिंह की काव्यात्मक भाषा मुझे अच्छी लगती रही है. इसी
के साथ ही मैं यह भी कह दूँ कि जब मैं आलोचना लिखता हूँ तो अपने आप को मंच पर खड़े
वक्ता के रूप में देखता हूँ और मुझे लगता है कि मेरे पाठक जो हैं वो मेरे श्रोता की तरह हैं जो
मेरे कथन के उलझाव को समझने की जगह साफ़-साफ़ कहते-लिखते देखना चाहते हैं
इसलिए मेरी कोशिश होती है कि जो मैं कहूँ वह पढ़ने वाले की समझ से सीधे टकराए. मेरा

कहा हुआ या तो मेरे पाठक को बदल देगा या वह उसे अस्वीकार करके मुँह पर दे मारेगा. मैं
अपने लिखे शब्दों की ताकत इसी रूप में आजमाना चाहता हूँ.


प्रश्न- आलोचना के लिए जिस समाज दॄष्टि की जरूरत की बात की जाती है, वह आपने किस
तरह अर्जित की?


उत्तर-दॄष्टि और समझ के निर्माण में बहुत सारे दार्शनिकों, विचारकों, समाज-सुधारकों
नेताओं लेखकों आदि का योगदान होता है. किसका कौन सा योगदान हमारे चेतन अवचेतन
में किस रूप में बैठा हुआ है कहना मुश्किल है. मेरी चेतना के निर्माण में सचेत रूप से जिनका
योगदान मैं महसूस करता हूँ वे हैं बुद्ध, विवेकानंद और गाँधी और राममनोहर लोहिया.
जे०पी० आंदोलन में मैं रहा हूँ अपने छात्र जीवन के दो वर्ष मैंने धरना प्रदर्शन, लाठी खाने,
जेल जाने, नारे लगाने आदि में बिताए हैं तो जयप्रकाश जी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का भी
असर है. बाद में मैने मार्क्सवाद का अध्ययन किया. जयप्रकाश जी की प्रेरणा से मार्क्सवाद
का भी असर मेरे सोच-विचार पर है. अम्बेडकर के लेखन से भी बहुत कुछ सीखा है.
समाजवादी नेताओं में मैं स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर के करीब रहा हूँ. इन सबका मिला-जुला असर
मेरी चेतना पर होगा. लेकिन बुद्ध, विवेकानन्द और गाँधी मेरी चेतना के तीन नेत्र हैं.
जिनका विस्तार अन्य लोगों के जरिए भी हुआ है.


प्रश्न- प्राय: यह शिकायत सुनने को मिलती है कि आलोचना वह दायित्व नहीं निभा रही है
जो पहले की आलोचना निभाती रही है. दूसरे शब्दों में यह आरोप लगता है कि नामवर सिंह
के बाद आज हिन्दी में कोई बड़ा आलोचक नहीं है.


उत्तर- नामवर सिंह निश्चित रूप से पिछले दौर के महत्त्वपूर्ण आलोचक रहे हैं लेकिन यह
सही नहीं है कि आज सार्थक आलोचना नहीं लिखी जा रही. नामवर सिंह के बाद लिखी गई
आलोचना पर आप नज़र डालें तो पाएंगे कि आलोचनात्मक विवेक का विस्तार हुआ है और
उसके कई नए आयाम उद्घाटित हुए हैं. पिछले दौर की, रामविलास शर्मा, साही, नामवर
सिंह आदि की आलोचना अच्छी रही है. लेकिन इधर लिखी जा रही आलोचना पर यदि

ध्यान दे तो आप को आश्चर्यजनक रूप से हमारे इन महान आलोचकों की आलोचना दॄष्टि की
सीमाएं नज़र आएंगी. अब यथार्थवाद, लघुमानव या व्यंग्य विडंबना और तनाव तक ही
हिंदी आलोचना सीमित नहीं है. उसमें स्त्री दॄष्टि, दलित दॄष्टि और हाशिए के समाज को
मुख्यधारा में लाने की संघर्ष करती हुई दॄष्टि भी शामिल है. उपन्यास और लोकतंत्र को लेकर
मैनेजर पांडेय की चिंता, हिन्दी नवजागरण की बहस को आगे ले जाने वाली शम्भूनाथ और
वीरभारत तलवार की चिंता, कथा साहित्य को स्त्री नज़रिए से देखने वाली रोहिणी अग्रवाल
की चिंता और दलित नज़रिए से हिन्दी साहित्य को देखने वाले धर्मवीर, कंवल भारती या
बजरंग बिहारी तिवारी की दॄष्टि को देखते हुए कैसे कहा जा सकता है कि हिन्दी आलोचना
कहीं से भी पिछड़ी हुई है. आज भक्ति काल, रीति काल आदि के बारे में हमारी वही धारणा
नहीं जो ३०-४० साल पहले थी.


प्रश्न- हिन्दी आलोचना में भी क्या आप उतनी ही निर्भीकता और ईमानदारी देखते हैं? क्या
वर्तमान हिन्दी आलोचना अभिव्यक्ति के खतरे उठाती दिखती है?


उत्तर- आपकी चिंता वाज़िब है. रचनाकारों और आलोचकों के चरित्र, ईमानदारी आदि को
लेकर आज तरह-तरह की बातें की जाती हैं. अवसरवादी प्रवॄत्ति भी आज, पहले की तुलना
में, लेखकों में ज़्यादा है. किसी बड़े आदर्श, किसी बड़े नेता या कहें किसी महास्वप्न के अभाव
का यह दौर है.बाजारवादी प्रवृत्तियां और लाभ-लोभ की प्रवृत्ति अपने विकॄत और विकराल
रूप में हमारे चारों ओर फैली हुई है. स्वाभाविक रूप से इसका असर जीवन और समाज के
सभी क्षेत्रों पर पड़ा है. मुक्तिबोध का यह शताब्दी वर्ष है और वे ऐसे कवि-आलोचक हैं
जिनका असर लेफ्ट-राइट सभी पर है. उनकी एक बात ध्यान देने लायक है वे रचनाकार की
ईमानदारी और आलोचक के चरित्र पर बहुत जोर देते हैं. उसके अभाव में रचना और
आलोचना दोनों की चमक थोड़ी मद्धिम पड़ेगी. जो अपने को आलोचक मानते हैं और
जिनकी प्रतिबद्धता इस विधा से है वे अवश्य ही अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं. आप के प्रश्न में
जो आपकी आशंका है वह निर्मूल नहीं है. हमारे समय ने जिस तरह रचना के सामने संकट
उपस्थित किए हैं उसी तरह आलोचना के मार्ग में भी बाधाएं उपस्थित की हैं. लेखक संगठनों

की गुटबाजी, लेखकों के अपने गुट, लाभ-लोभ और पुरस्कारों की राजनीति में आलोचना ने
अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने की प्रवॄत्ति को कमजोर किया है. नई पीढ़ी के रचनाकारों की
आकांक्षा भी निर्भीक और तटस्थ आलोचना के मार्ग की बाधक हैं. रचनाकार आलोचना का
अर्थ सिर्फ़ अपनी प्रशंसा मानने लगे हैं वे आलोचकों से प्रतिकूल टिप्पणी सुनना नहीं चाहते.
मेरा ख़्याल है कि इन सबका असर आलोचना पर कहीं न कहीं तो पड़ता ही है. दलित लेखक
तो अपनी आलोचना हरगिज़ नहीं सुनना चाहते. स्वस्थ आलोचना के लिए स्वस्थ
लोकतांत्रिक माहौल और स्वस्थ संवाद की जरूरत है. दुर्भाग्य से जिसका हिंदी में कुछ क्षरण
हुआ है.


प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में सोशल मीडिया की क्या कोई भूमिका है? यदि है तो आप उसे कैसे
देखते हैं? आपने अपने एक लेख में वर्तमान पुस्तक समीक्षा के चलते ‘ट्रैंड’ को देखते हुए
आलोचना के गिरते स्तर की बात की थी उसी परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया का जिक्र भी
आया था. क्या सोशल मीडिया में तुरत-फुरत आती प्रतिक्रियाएँ और आम आदमी की
सहभागिता आलोचना का अच्छा संकेत है या फिर इसने आलोचना का बिगाड़ ही किया है?


उत्तर- सोशल मीडिया नि:संदेह एक ऐसा माध्यम या मंच है जिसके जरिए बेजुबानों को
ज़ुबान मिली है. वैसे लोग जिनकी अभिव्यक्ति की भूख मर जाया करती थी वे इस माध्यम के
जरिए अपनी रचनात्मक क्षमता की अभिव्यक्ति कर रहे हैं. लेकिन यह बहुत तेज़ी से भागता
तुरंता माध्यम है इसका न कोई सम्पादक है, न एक-दूसरे को जानने- समझने का कोई
उपाय हैं यहाँ . इसलिए सोशल साइट्स पर बेतहाशा रचनाएं आ रही हैं और जा रही हैं
उससे कोई गम्भीर साहित्यिक कॄति सामने आ रही हो ऐसा मुझे नहीं लगता. वहाँ विचार
की उपस्थिति और गंभीर रचनाकर्म की संभावना अभी कम है. मुझे फेसबुक के माध्यम से
नीलिमा चौहान की किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ पढ़ने का मौका मिला. मुझे खुशी
हुई कि स्त्री-विमर्श की सैद्धान्तिकता के बोझ से परे बहुत ही खिलंदड़ी भाषा और अंदाज़ में
स्त्री जीवन की विभिन्न समस्याओं को लेखिका ने उठाया है. लेकिन हिंदी सोशल साइट्स पर
मिलने वाले ऐसे उदाहरण बहुत कम ही देखने को मिले हैं. इसी के साथ एक बात और

जोड़ना बहुत जरूरी है कि यह अब बहुत तेज़ी से भागता हुआ ओवर क्राउडेड माध्यम है.
यहाँ अच्छी से अच्छी सामग्री को ठहर कर इत्मीनान से पढ़ने का अवकाश नहीं है. फिर भी
सोशल साइट्स की भूमिका लोकमत के निर्माण और साहित्य के प्रचार-प्रसार में तो है
ही.लेकिन उससे आलोचना की कोई गंभीर ज़मीन नहीं बनती. ….आप ने मेरे जिस लेख
‘आभासी दुनिया के राग रंग’ पर उठे बवाल की चर्चा की तो सुन लीजिए कि उसके बाद
सोशल साइट्स पर मुझे कितनी गालियाँ पड़ीं, मेरा चरित्र हनन किया गया और अपने
व्यक्तिगत स्वार्थ के मुद्दों को भी उससे जोड़ दिया गया. निश्चित रूप से इन प्रतिक्रियाओं को
वहीं छपना चाहिए जहाँ मेरा लेख छपा है . लेकिन चूंकि वहाँ एक सम्पादक बैठा है और वह
गाली गलौज नहीं छपने देगा. ऐसी स्थिति में सोशल साइट्स ने कुछ अलेखकों या कुलेखकों
को यह सुविधा तो दे ही रखी है कि वे जिस पर चाहें हमले करें या गालियाँ दें. फिर भी मैं
सोशल साइट्स के महत्त्व से इंकार नहीं कर रहा. यह नए ज़माने की नई तकनीक है, जो
समता और स्वतंत्रता की हमारी आकांक्षा को उड़ने का नया प्लेटफार्म देती है.


प्रश्न- भक्ति आन्दोलन पर आपका विशेष कार्य रहा है. आपने इस युग को बहुआयामी दृष्टि से न
सिर्फ देखा, बल्कि दूसरों को देखने का भिन्न दृष्टिकोण भी दिया . आपकी दृष्टि में क्या कारण हो
सकते हैं कि आज के विद्यार्थी/शोधार्थी इस ओर नए अनुसंधान करने की ओर न अग्रसर होते हैं, न
अध्ययन में बहुत रूचि रखते हैं? क्या नई पीढी ये मान चुकी है कि इस ओर उत्खनन की नई
सम्भानाएँ समाप्त हो चुकी हैं ?


उत्तर- मेरे अध्ययन और लेखन का एक क्षेत्र भक्ति साहित्य भी है. मैंने आधुनिक साहित्य,
समकालीन कविता- कहानी आदि पर भी लिखा है लेकिन चूंकि आपका सवाल भक्ति साहित्य से
सम्बंधित है तो मैं उस के बारे में कुछ कहना चाहूंगा. यह सही है भक्ति साहित्य में नई पीढी की
रूचि उस तरह से नहीं है. इसका मुख्य कारण एक तो ब्रजभाषा, अवधी ,राजस्थानी ,भोजपुरी और
मैथिली जैसी लोक भाषाओ से नई पीढी का अपरिचय है. दूसरा कारण रोजी रोजगार के लिए आसान
से विषय पर आसान- सा कोई काम जल्दी-जल्दी कर लेने का तात्कालिक दबाव भी है. भक्ति काव्य
जीवन के विस्तार और उदात्तता का काव्य है. उसके लिए जिस धीरज और गहरी दृष्टि की जरूरत है

उसकी थोड़ी कमी नई पीढी में आई है. लेकिन इसी के साथ यह भी कहना चाहूंगा कि कबीर को
लेकर इधर जो नई-नई किताबें आई हैं, भक्त कवियों पर आलोचना के अतिरिक्त जिस तरह कविता
और उपन्यास लिखे गए हैं, इनसे पता चलता है कि भक्ति साहित्य में हमारी दिलचस्पी बनी हुई है.


प्रश्न- जे०पी० आन्दोलन में आपकी सक्रिय भूमिका रही. पटना विश्विद्यालय, हैदराबाद
विश्वविद्यालय से दिल्ली विश्वविद्यालय तक की आपकी यात्रा निश्चय ही कठिनाइयों से भरी किन्तु
अंतत: सफल यात्रा रही है. इसका श्रेय किसे देना चाहेंगे? और साथ ही सफलता का क्या कोई बीज
मन्त्र हो सकता है? यदि हां तो क्या?


उत्तर- जे० पी० आन्दोलन में भागीदारी निश्चय रूप से मेरे युवा गुस्से की अभिव्यक्ति थी. उसी के
साथ जे० पी० के साथ एक भावात्मक और वैचारिक लगाव भी था. मैं मानता हूँ कि साहित्यकार और
बुद्धिजीवी को जरूरत पड़ने पर जनांदोलनों का हिस्सा भी बनना चाहिए. जे० पी० आन्दोलन ने मेरे
भीतर जिस सामाजिक चेतना का विकास किया वह मेरे जीवन की अनमोल पूंजी है. उसके जरिए मैंने
जाना कि भारतीय जनता को आंदोलित करने के लिए अपनी भाषा, अपने मुहावरे, अपने तौर-तरीके
कितने आवश्यक हैं. मैं साहित्य में सामाजिकता का पक्षधर हूँ तो विशेष रूप से उसी सामाजिकता का
जो भारतीय चिन्तकों, नेताओं और कार्यकर्ताओं के संघर्षमय जीवन की आग से पैदा हुई है…..जहां
तक सफ़लता की बात है तो अगर नौकरी करना या किसी बड़े विश्वविद्यालय के विभाग का अध्यक्ष
होना सफ़लता है तो वो मुझे प्राप्त है. मैं पढने में तेज़ था और कुछ संयोग ऐसा रहा कि मैंने जहाँ-
जहाँ इंटरव्यू दिए, पहली बार में चुन लिया गया. दो- दो बार विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भी
चुना गया, जहां मैं निजी कारणों से नहीं जा सका. ये मेरा सौभाग्य रहा कि किसी भी इंटरव्यू में मैं
रिजेक्ट नहीं हुआ. इस सफलता का श्रेय मैं अपनी प्रतिभा, अपनी मेहनत को तो देता ही हूँ, अपने
माता-पिता, अपने गुरुओं की दुआओं को भी देता हूँ. लेकिन सफलता से अधिक सार्थकता मुझे प्रिय
है. साहित्य में लेखन कार्य उसी सार्थकता की खोज का प्रयास है. मैं अपनी सफ़लता पर चाहे भले
खुश हो लूं लेकिन मुझे वास्तविक खुशी तब मिलती है जब कोई मेरे लिखे को सार्थक बताता है. मैं
जीवन में दो-चार अच्छी किताबें लिख कर मरना चाहता हूँ. इसके अलावा मेरी दूसरी कोई
महत्वाकांक्षा नहीं है .

प्रश्न- भविष्य में आलोचना के क्षेत्र आपकी क्या योजना है?


उत्तर- मेरी अनेक योजनाए हैं. समकालीन कविता को लेकर मुक्तिबोध और उनके बाद की पचास वर्षों
की हिन्दी कविता पर एक पुस्तक के बारे में सोच रहा हूँ जिसे एक साल के भीतर लाने की योजना
है. उसके बाद मैं समकालीन कहानी पर भी एक पुस्तक लिखना चाहता हूँ. भक्ति आन्दोलन के
अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य को समझने- समझाने के लिए मैं एक पुस्तक की तैयारी में लगा हूँ. मेरी
एक योजना जे० पी० और समाजवादी आन्दोलन पर किताब लिखने की भी है जिसमें समाजवाद के
भारतीय संस्करण को निर्मित करने में नरेंद्र देव, जे० पी० और लोहिया की भूमिका का आकलन
होगा. फिलहाल तो इतना ही. हाँ, लगे हाथ यह भी बता दूँ कि अड्डेबाजी मुझे बहुत प्रिय है .
विभिन्न गाँव –शहरों के तरह–तरह के अड्डेबाजों के अनुभव मेरे पास हैं. उसके आधार पर मैं ‘अथ
श्री अड्डा पुराण’ नाम से किताब लिखना चाहता हूँ. मेरी एक योजना जानकीवल्लभ शास्त्री, केसरी
कुमार, कुमारेन्द्र, वेणु गोपाल आदि पर एक संस्मरणात्मक किताब लिखने की भी है. फिलहाल तो
यही कह सकता हूँ.


प्रश्न – अब अंतिम प्रश्न, इन दिनों आप ऐसा कुछ विशेष पढ़ रहे हों , जिसका उल्लेख करना चाहें ?


उत्तर –इन दिनों मैंने कुछ दिलचस्प किताबें खत्म की हैं –बेगमात के आंसू’(ख्वाज़ा हसन निजामी ),वह सफर
था कि मुकाम था’(मैत्रेयी पुष्पा) ,नींद क्यों रात भर नहीं आती’ (सूर्यनाथ सिंह),गन्दी बात’(क्षितिज राय),
पतनशील पत्नियों के नोट्स’(नीलिमा चौहान) आदि . अभी अपने एक प्रिय चिंतक- आलोचक टेरी इगल्टन की हाउ टू रीड अ पोयम’ पुस्तक मैंने पढ़नी शुरू की है. इस पुस्तक में इगल्टन अपने को ‘अ पोलिटकली मांइडेड
लिटरेरी थियरिस्ट’ मानते हैं. वे साहित्य की ‘क्लोज़ रीडिंग’ पर जोर देते हैं.. किताब ख़त्म नहीं हुई है. अभी पढ़
रहा हूँ .

मार्च 2017 मे लिया गया साक्षात्कार













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