कविता

शीर्षक – तुम आओगी क्या?

आज फिर से मक्के की रोटी बनाई है
उसके साथ साग तीसी और हरी मिर्च,
मां लाई है
तुम खाने आओगी क्या?
एक बार फिर से
मुझे मेरे वर्तमान से
अतीत में बुलाओगी क्या?

ये जो नेटफ्लिक्स और इंस्टा का ज़माना है
शायद मैंने भी इसे इस ज़माने का
गुनहगार माना है

कहानी सुनने और सुनाने वाले,
न जाने कहां खो गए
इस प्यार के अकाल में
तुम फिर से परियों की कहानी सुनाने आओगी क्या?
माना कि ये हेडफोन, ब्लूटूथ और एलेक्सा का
जमाना है
सबको भी शायद पिज्जा,बर्गर और कोल्डड्रिंक ही
भाता है

इस कोल्डड्रिंक के जमाने में तुम
माखन– रोटी,
मिट्टी के खिलौने–गोटी,
सरसों का साग– मकई की रोटी,
सत्तू की लिट्टी
और अपना दुलार
दुबारा लेकर आ पाओगी क्या?

तुम तकनीकी की इस होड़ वाली दुनिया में
फिर उन पुराने शब्दों को,
कहानी को,
गीत को,
उन सभी प्रीत को,
सदाबहार रख पाओगी क्या?

मां ने कहा था तुम तारा बन गईं
अतः आज भी मेरी खोज आकाश में जारी है

इस प्रदूषण की ओझल चादर,
चीड़ के ही सही

तारे के रूप में ही सही
तुम मेरी पुकार सुन कर
एक बार फिर से

उन पुराने भावों का
प्रेम का
पुनः संचार कर पाओगी क्या?
एक बार फिर मुझसे मिलने , तुम आओगी क्या?

– विष्णु प्रिया

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