कविता

सर्द रात का आदमी

सुनाई देती है मुझे सर्द रातों में ठंड से
कड़कड़ाते हुए लोगों की आहटें ,
और देखता हूँ थरथराते हुए
उनके नंगे बदन को ।
उनकी साँसों की गति जैसे
किसी बुलेट ट्रैन का पीछा कर रही हो।

वह वही मजदूर है जो पेट भरने के लिए
दिन में मेहनत कर पसीना बहाता है ,
और सर्द रातों के सन्नाटे में
कहीं सड़क के किनारे , फूटपाथ पर ,
या किसी पेड़ के नीचे अपने बदन को
सिकुड़कर कर सो जाता है ।

क्यों कोई देखने वाला नहीं होता इन्हें ,
क्यों कोई नहीं सुनता इनके कंपकंपाते
बदन की आवाजें , इनका घर कहाँ है ,
क्या यह भारत के नागरिक नहीं है ,
यह सब सवाल उठते है मेरे अंतर्मन में ,
जब मैं इन्हें देखता हूँ ।

महसूस होती है मुझे वह ठंडी शिला ,
जिस पर सोया हुआ है यह मजदूर ,
और काँप उठता है मेरा बदन
जब भी उनके साये में जाता हूँ ।
सोचने पर मजबूर कर देता है ,
मुझे यह सवाल कैसे काटता होगा
वह आदमी इन सर्द रातों को ?

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