आलेखसंस्मरण

जौन एलिया

“जी ही लेना चाहिये था यार, मरते मरते ख़याल आया मुझे”

– जौन (जॉन) एलिया

गए 8 नवंबर को जौन एलिया की पुण्यतिथि पर उनके बारे में काफी कुछ पढ़ने मिला. कही किसी का लिखा पढ़ा कि “जौन एलिया शायरों की दुनिया में जगजीत सिंह जैसे हैं”. ये पढ़कर एकबारगी कोई भी चौंक जाएगा, मैं भी चौंका. क्योंकि दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व नितांत जुदा हैं. पर कहने वाले ने आगे इसे स्पष्ट किया है, ये कहते हुए कि जिस तरह बॉलीबुड गाने सुनने वालों को गजल का श्रोता बनाने का काम जगजीत ने किया है उसी तरह का काम जान एलिया ने किया है. एलिया ने रोजमर्रा की भाषा में बहुत ही गहरे शेर कहे हैं जो सामान्य लोगो को भी समझ आते हैं. जैसे

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम

बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम

ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी

कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम

ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं

वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम

मेरा लेखक के इस नज़रिए से इत्तेफ़ाक़ है और इस बात से भी, जो कहीं किसी और ने कही है, कि जौन एलिया, उस्ताद नुसरत फतेह अली खान और जगजीत सिंह जिनकी पसंद हो, फिर उनके दिल का इलाज मुमकिन नहीं!

गर ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयाँ ‘और’ है तो जौन एलिया के अंदाज़-ए-बयाँ और भी ‘और’ है. तभी जौन जब ग़ालिब को ये कह ख़ारिज करते हैं कि “मेरी नज़र उन्‍होंने बमुश्किल 25 शे’र ठीक से कहे होंगे”, उन्हें सुन लिया जाता है.

सबसे अधिक पढ़े जाने वाले शायरों की फेहरिस्त में शीर्ष पर बैठे जौन वो महबूब हैं जिसकी शे’रो-शायरी की महक से सोशल मिडिया का हर प्लेटफॉर्म पुरनूर है.

जौन एलिया (सैयद सिब्त-ए-असगर नकवी) 14 दिसंबर 1931 को अमरोहा (यूपी) में जन्मे. फ़न लहू में था. पिता (अल्लामा शफीक हसन एलिया) और भाई (रईस अमरोही) ख्यात दानिशवर, अदीब, आलिम और शायर थे. बड़े भाई (चचेरे) कमाल अमरोही भी शायर और मशहूर फिल्मकार हुए. लिहाज़ा जमीं माकूल थी. ज़हीन जौन का उर्दू के अलावा अरबी, अंग्रेजी, फारसी, संस्कृत और हिब्रू में भी अच्छा दखल था. भाषा में उन्हें हद की रुचि थी. जब युवा जौन का ब्रिटिश शासन के प्रति रोष दिमाग़ में साम्यवादी बीज बो रहा था वहीं दिल में सोफिया (ख़्याली माशूका) काबिज़ हो रही थी. ऐसे शख़्स की सुबह शराब से शुरु होती और शाम शायरी में ढलती.

जाँ-निसारों पे वार क्या करना मैंने बस हाथ में सिपर ली है

मेरा कश्कोल कब से ख़ाली था मैंने इस में शराब भर ली है

जो जौन पाकिस्तान बनाने के विरोध में थे उन्हें 1956 में पाकिस्तान जाना पड़ा.  पाकिस्तान के जन्म पर उनकी प्रसिद्ध टिप्पणी है कि “यह अलीगढ़ के लड़कों की शरारत थी.” पर जैसे वो ख़ुद भी विभाजित होकर गये. कहा कि

“पाकिस्तान आकर मैं हिंदुस्तानी हो गया.”

अब हमारा मकान किस का है, हम तो अपने मकान के थे ही नहीं

उस गली ने सुन के ये सब्र किया, जाने वाले इस गली के थे ही नहीं

लम्बी घुंघराली ज़ुल्फ़ें, काला चश्मा और नशे के आगोश में दुबला-पतला शरीर उनकी पहचान बनी. अपरंपरागत तरीकों के लिए मशहूर जौन के ज़िगर से उठी आग अदब की रौशनी बनी. वो ऐसा बच्चा थे जो नया खिलौना पाकर उसे तोड़कर कुछ नया बनाने का शगल रखता है. सरल, सपाट लेकिन तीखा और हद तक तराशा लह्ज़ा था उनका.

बे-करारी सी बे-करारी है, वस्ल है और फ़िराक़ तारी है

जो गुजारी न जा सकी हमसे, हमने वो जिंदगी गुजारी है

जो मोहब्बत जौन के लिए लज्ज़त-ए-हयात थी वही उन पर क़यामत बनकर बरसी. एक लड़की थी, जो उनकी शायरी में ‘फरेहा’ है, उसे बेपनाह इश्क़ हुआ जौन से. जौन उससे मोहब्बत नहीं, दिखावा कर रहे थे. ऐसा जानने पर उसने जौन को खून से सने ख़त में लिखा.

“जौन, एक लड़की के दिल को दुखाकर तुम खुश हो? महकते-चहकते ज़ज़्बातों का खून किया है तुमने.” इस ख़ूँ-रेज़ दर्द की चुभन से निकले खून को थूकते, टीबी की मर्ज़ के साथ वो इस दुनिया से फ़ना हो गई!

अब जौन की ज़िन्दगी जैसे ‘फरेहा’ हो गई, उससे बेपनाह मोहब्बत हो गई. शराब और कभी तन्हाई के सहारे उसमें ही खोते चले गए.

अब मैं कोई शख़्स नहीं, उसका साया लगता हूं.

ताउम्र उसके लिए तड़पने रहे. मुशायरों के मंचों से कहते रहे.

ये मुझे चैन क्यों नहीं पड़ता, एक ही शख्स था जहान में क्या

और अपने को तबाह करते चले गये.

एक ही तो हवस रही है हमें, अपनी हालत तबाह की जाए

उदासी के इस मंज़र में जाहिदा हिना (पत्रकार) से मुलाकात हुई. शादी हुई (1970) और तीन बच्चे भी हुए. पर जल्द ही तलाक़ हो गया. आज़ाद ख्याल को कोई बांध पाया है!

इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊँ वगरना यूँ तो

किसी की नहीं सुनी मैंने

गहरे प्रेम में भी मौत जीस्त का दर खटखटाती है. अब बस ज़हन में एक तमन्ना सी पलती कि वो किसी तरह उस लड़की की दर्द जी सकें. ये हसरत पूरी भी हुई और वो भी खून थूकते हुए ही गुज़रे.

नींद से कई शिकायतें रखने वाला, 8 नवंबर 2002 को, न जागने के लिये सो गया, उस कराची की जमीं में, जिसके लिये उन्होंने कहा था कि “कराची…जहां के मच्‍छर डीटीटी से नहीं मरते, कव्‍वालों की तालियों से मरते हैं”

जौन के शे’र, शायरी, फलसफ़े समझने का आसान तरीका है, खुद को जौन की जगह रख लिया जाये.

ये हैं एक जब्र, कोई इत्तेहाक नहीं,

जौन होना कोई मज़ाक नहीं.

8 साल की उम्र में लिखना शुरू करने वाले जौन का पहला संग्रह 60 साल की उम्र प्रकाशित हुआ. जौन एलिया का शायर इतना बड़ा था कि ये सब मसले छोटे थे.

काम की बात मैंने की ही नहीं, ये मेरा तौर-ए-ज़िंदगी ही

नहीं

पुनश्च: उनका ही शे’र है …

क्या कहा आज जन्मदिन है मेरा,

जौन तो यार मर गया कब का.

पुण्यतिथि स्मरण

राजीव लखेरा

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परिचय

राजीव लखेरा

जबलपुर (म. प्र.) से, संप्रति नई दिल्ली में रहवास. मैकेनिकल इंजीनियर. पेशेगत सेवाएं (नौकरी) इंडियन रेलवेज़ को दी हैं. लेखन पेशा नहीं, व्यक्तिगत रुचि का मसला है.

Email: rajeevlakhera@gmail.com

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