विश्व मानचित्र पर एशिया महादेश में स्थित भारत और दक्षिण कोरिया के बीच सांस्कृतिक, ऐतिहासिक,भौगोलिक व सामरिक दृष्टि से खास तरह का साम्य मौजूद है। सुदूर पूर्व दक्षिण पूर्व एशिया की स्वर्णिम गोद में तीन ओर समुद्र से घिरा कोरिया एक छोटा लेकिन प्राकृतिक सौंदर्य से सम्पन्न देश है, इसी प्रकार भारत सुदूर दक्षिण एशिया में स्थित एक प्रायद्वीप (तीन ओर से समुद्र )के रूप में प्राकृतिक विविधता से परिपूर्ण राष्ट्र है। भौगोलिक समरूपता के साथ ही सांस्कृतिक साम्य के अनेक तत्व भारत और कोरिया के बीच रहे हैं जिसका संदर्भ बौद्ध धर्म से जुड़ा है। सभ्यता के आरम्भ में भारत की तरह कोरिया भी स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त था । कालांतर में दोनों ही उपनिवेश के रूप में क्रमशः ब्रिटिश और जापान के अधीन हुए। यह भी सच है कि दोनों देशों ने उपनिवेशवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी और स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में विकसित हुए। स्वाधीनता संग्राम की परिस्थितियों के अनुसार भी दोनों देशों के बीच सह-सम्बंध तलाशा जा सकता है, दोनों देशों की आजादी का सम्बंध द्वितीय विश्वयुद्ध से सीधे जुड़ता है। अद्भुत संयोग है कि दोनों देशों की आजादी का दिन एक ही है यानी दोनों देशों में स्वतंत्रता दिवस एक ही दिन मनाया जाता है -15 अगस्त। स्वातंत्र्योत्तर परिस्थितियों पर गौर करें तो भी इन देशों के बीच गहरा साम्य नजर आता है। दोनों देशों ने आज़ादी के बाद विभाजन की क्रूर त्रासदी, हिंसा और पलायन को झेला है । भारत जहाँ भारत-पाकिस्तान के रूप में विभक्त हुआ, वहीं दूसरी ओर कोरिया, दक्षिण और उत्तर कोरिया के रूप में अलग हुआ।
आजादी के बाद दोनों देशों ने गरीबी, भूख, संसाधनहीनता, आदि विषम परिस्थितियों से लड़ते हुए विकास की नई इबारत लिखी। आज एक ओर दक्षिण कोरिया विश्व में विकसित देशों में प्रतिष्ठित है, वहीं दूसरी ओर भारत विकसित होने की प्रक्रिया में तेजी से बढ़ रहा है।
इन समरूप ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों का दोनों देशों के साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है। आजादी के बाद औद्योगिक विकास की प्रक्रिया में दोनों देशों के सामाजिक ढांचे में व्यापक बदलाव हुए । संयुक्त परिवार का विघटन, व्यक्ति-चरित्र का उदय, मध्यमवर्गीय समाज का संघर्ष, पाश्चात्य सभ्यता के प्रति आकर्षण और उसका अंधानुकरण, लैंगिक और वर्गीय भेदभाव संदर्भित संघर्ष आदि स्वातंत्र्योत्तर भारत और दक्षिण कोरिया के समाज की साझी सच्चाई रही है जिसका प्रभाव वहाँ के साहित्य पर स्पष्ट देखा जा सकता है। इस संदर्भ में डॉ.ली जंग हो की टिप्पणी उल्लेखनीय है-“ जब भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था, लगभग इसी समय कोरिया भी अपनी आजादी के लिए लड़ रहा था। स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद भी दोनों देशों की राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल की परिस्थितियाँ, देश का विभाजन, युद्ध की विभीषिका आदि के अनुभव एक जैसे रहे हैं। दोनों देशों ने बंटवारे की त्रासदी को महसूस किया है। निश्चित ही दोनों देशों की आजादी के बाद के साहित्य पर इन परिस्थितियों का काफी प्रभाव रहा है।“1
आज़ादी के बाद से ही दोनों देशों के बीच सहयोग और सद्भाव का संबंध रहा है। कोरियाई युद्ध के दौरान भारत द्वारा किया गया सहयोग और भारत में आर्थिक सुधार के लिए दक्षिण कोरिया द्वारा किया जा रहा निवेश इस ऐतिहासिक संबंध को मज़बूत बना रहा है। अकादमिक अनुसंधान के क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच गहरा संबंध रहा है, ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में परस्पर सहयोग इस बात का प्रमाण है कि दोनों देशों के बीच का संबंध न केवल आर्थिक और राजनीतिक धरातल पर है बल्कि कहीं न कहीं यह संबंध भावात्मक भी है। साहित्य के क्षेत्र में भी कोरियाई और भारतीय (विशेष रूप से हिन्दी) साहित्य का आदान- प्रदान पुराना है। अनुवाद कार्य, फिल्म, शोध आदि के क्षेत्रों में परस्पर सहयोग इस संबंध को मजबूती प्रदान कर रहा है। हिन्दी और कोरियाई साहित्य के बीच कविता, कहानी, उपन्यास आदि के क्षेत्रों में शोध और अनुवाद कार्यों में लगातार वृद्धि हुई है जिससे दोनों देशों की साहित्यिक संबधों में प्रगाढ़ता आई है। इस दिशा में अनुवाद कार्यों में व्यापक रूप से गति तेज करने की जरूरत है।
इस व्यापक पृष्ठभूमि के आलोक में आजादी के बाद लिखी गई भारतीय हिन्दी कहानी साहित्य और स्वातंत्र्योत्तर कोरियाई कहानियों में युगीन यथार्थ की अभिव्यक्ति के संदर्भ में तुलनात्मक अध्ययन की कोशिश महज़ प्रयास भर है!
साहित्य, समाज का आईना है और साहित्यकार सामाजिक जीव होता है। अतः साहित्यकार और साहित्य अपने सामाजिक परिस्थितियों से तटस्थ नहीं रह सकता। युगीन यथार्थ से जुड़ाव ही जीवंत और कालजयी साहित्य का आधार है। साहित्यकार की प्रतिबद्धता की कोई निश्चित सीमा नहीं होती पर जीवंत साहित्य समाज और युग सापेक्ष होता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।आजादी के बाद की हिन्दी और कोरियाई कहानियों में व्यक्त युग यथार्थ की तुलनात्मक विवेचना से पूर्व हमें दोनों देशों की स्वातंत्र्योत्तर सामजिक,राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों को जान लेना आवश्यक जान पड़ता है।
आजादी के बाद की भारतीय और कोरियाई जीवन– स्थितियाँ:- अंग्रेजी साम्राज्य से भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ परन्तु देश ने इसकी बड़ी कीमत चुकाई। साम्प्रदायिक आधार पर देश दो भागों में बांटा गया- भारत और पाकिस्तान। विभाजन के समय और उसके बाद भयानक हिंसा हुई। दोनों साम्प्रदायों (हिन्दू-मुस्लिम) ने एक -दूसरे पर अत्याचार और अनाचार की सीमाएँ तोड़ दी। तत्कालीन इतिहास में दर्ज घटनाओं से अगर हम चित्रावली बनाएँ तो यह मंजर कुछ इसी प्रकार का रहा होगा- ‘चारों ओर नृशंस हत्याएं, नंगी कर औरतों का वीभत्स जुलूस, बलात्कार, आगजनी, लुटे हुए घर, उजड़े गाँव और शहर, रोते-बिलखते मासूम बच्चों का क्रंदन आदि! मानवता पर आघात का यह वीभत्स रूप किसी महायुद्ध के विनाश से कम न था। विभाजन के इस दंश से उबरने में भारत को कई दशक लग गए। इस घटना के बाद तमाम भारतीय सामाजिक आदर्श, विश्वास और मूल्यों की गरिमा धूमिल हो गई और विघटनकारी प्रवृतियों का उदय हुआ जो आज भी किसी न किसी रूप में यदा -कदा दंगों और हिंसक घटनाओं की शक्ल में अपनी उपस्थिति का एहसास करा जाते हैं। इस त्रासदी पर टिप्पणी करते हुए हंस पत्रिका के ख्यातिलब्ध सम्पादक राजेन्द्र यादव ने यथास्थिति का वर्णन कुछ इस तरह किया है- “ पाकिस्तान में अगर ईंट- चूने के मकान-जमीनों का ध्वंस हुआ तो इधर सारी मर्यादाओं, नैतिक मान्यताओं, अच्छे-बुरे की बड़ी-बड़ी इमारतें गिरने लगीं।“2 विभाजन के बाद लाखों लोगों को अपना घर-बार छोड़कर विस्थापित होना पड़ा। अपने घरों से भागे-भगाए लोगों की तकलीफ़ हम और आप केवल महसूस कर सकते हैं। इस घटना ने न केवल भाई- भाई को अलग कर दिया बल्कि हमेशा के लिए गांठ की तरह अविश्वास का बीज बो दिया। संविधान के लागू होने और पहले आम चुनाव के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वास्तव में भारत का एक देश के रूप में बनना शुरू हुआ। आजाद भारत के सामने खाद्यान्न, उद्योग, रोजगार, गरीबी, भुखमरी, आदि समस्याएं पहाड़ की तरह खड़ी थीं ।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत भारत में भारी उद्योगों की स्थापना हुई और एक नया शहरी मध्यवर्ग पैदा हुआ। भारी उद्योगों की स्थापना के साथ ही नए शहरों का विकास हुआ और पुराने नगरों का विस्तार हुआ, बड़ी संख्या में गाँव से शहरों की ओर पलायन हुआ। गाँव के पड़ोस की जगह शहरी कॉलोनी की अवधारणा विकसित होती गई और 60-70 के दशक तक आते-आते भारतीय समाज के भीतर नए जीवन मूल्यों, नैतिकताओं ने जगह बना ली जहाँ अकेलापन, संयुक्त परिवार का विघटन, अजनबीपन, हताशा, भौतिक सुखों की अतृप्त इच्छाएं बलवती होती गई। एक नए मध्यमवर्गीय समाज का ढांचा निर्मित हुआ जिसके पास संसाधनो की कमी थी परन्तु वह महत्वकांक्षाओं से लबालब भरा था, उसके सपने बड़े थे परन्तु संसाधन सीमित- इस कारण इस वर्ग में बहुत जल्द ही मोहभंग की स्थिति आ पड़ी। समूह की जगह व्यक्ति की चेतना बढ़ती गई । कृषि अभी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी परंतु नव निर्मित शहरी वर्ग ने कृषि कर्म से अपने आप को अलग कर लिया। कृषि कर्म महज़ एक आर्थिक गतिविधि न होकर एक जीवन-संस्कृति थी जिससे यह नया बँटा हुआ और बनता हुआ मध्यवर्ग कटता गया। इस विघटन का गहरा प्रभाव सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, व्यापारिक, राजनीतिक जीवन पर पड़ा।
1980 तक आते-आते भारतीय समाज पूर्णतया दो खास भागों में बंट गया। एक वह वर्ग था जो अब भी ग्रामीण संस्कृति से जुड़ा था, परंपरागत जीवन मूल्यों को मानता था, धर्मभीरु था और भौतिक सुख सुविधाओं से वंचित था तो दूसरी ओर एक शहरी मध्यमवर्गीय समाज बन गया था जिसकी जड़ें तो प्राचीन ग्रामीण संस्कृति से जुड़ी थीं परंतु वह उससे स्वयं को बिल्कुल कटा हुआ समझ रहा था, उसे नए भौतिक सुख की चाह थी जिसे केवल नवीन अर्थतंत्र से ही प्राप्त किया जा सकता था। इस अर्थतंत्र में नैतिकता, मानवता, परम्परागत जीवन-मूल्यों के लिए कोई खास जगह बची नहीं थी।
1990 में उदारीकरण के बाद भारतीय सामाजिक व्यवस्था का कायाकल्प हो गया जहां संयुक्त परिवार व्यवस्था लगभग खत्म हो गई। इस वैश्वीकरण की आंधी में भारतीय समाज का परम्परागत ढांचे का रहा-सहा आवरण भी उड़ गया। व्यक्ति अब उपभोक्ता के रूप में बदल गया और बाजार अपने अनुसार मानवीय आवश्यकताओं की निर्मिति करने लगी। मशीनीकृत बाजार-व्यवस्था में विज्ञापन ने सामाजिक-मूल्य के रूप में अपने आप को स्थापित कर लिया। पाश्चात्य सभ्यता और पाश्चात्य जीवन-मूल्यों के प्रति भारतीय समाज अंधी दौड़ में शामिल हो गया और आज हालत यह है कि भाषा, भावना, खान-पान से लेकर जीवन-शैली तक में पाश्चात्य जीवन पद्धति भारतीय समाज में हवा और पानी की तरह घुल गया है। आजादी के 75 वर्षों के बाद भारत ने हर क्षेत्र में विकास के नये और वैश्विक आयाम हासिल किए हैं परंतु अब भी गरीबी, बेरोजगारी, तकनीकी विकास, जनसँख्या विस्फोट आदि समस्याओं से जूझ रहा है। कहा जा सकता है कि आजादी के बाद भारतीय जीवन-यथार्थ में कई तरह के बदलाव होते रहे हैं जिसकी सबसे सटीक अभिव्यक्ति हिन्दी कहानियों में मिलती है ।
द्वितीय महायुद्ध के समय जब जापान ने आत्मसमर्पण किया तब 15 अगस्त 1945 ई. में याल्टा संधि के अनुसार 38 डिग्री उत्तरी अक्षांश रेखा द्वारा इस देश को दो भागों में विभाजित कर दिया गया। उत्तरी भाग पर रूस का और दक्षिणी भाग पर संयुक्त राज्य अमरीका का अधिकार हुआ। इसके बाद अगस्त 1948 ई. में कोरिया गणतंत्र की स्थापना हुई। अमेरिका के प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप के कारण उत्तर कोरिया को पीछे हटना पड़ा और वह जीती हुई बाजी हार गया। उत्तर कोरिया का साथ रूसी तथा चीनी सेना ने दिया। वर्ष 1953 में यह युद्ध खत्म हुआ और दो स्वतंत्र राष्ट्र बन गए।
यहाँ भी विभाजन हुआ और उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के रूप में दो नए देश बने। यहाँ विभाजन का कारण धर्म न होकर विचारधारा या कहें कि दो भिन्न-भिन्न अर्थव्यवस्था के पोषक तत्व बंटवारे का आधार बना। उत्तर कोरिया ने जहां रूसी साम्यवाद को अपनाया वहीं दक्षिण कोरिया अमेरिका नीत पूंजीवादी व्यवस्था की ओर मुड़ गया। आजादी के बाद जिस तरह भारत को जिस तरह पाकिस्तान और चीन से युद्ध करना पड़ा उसी तरह दक्षिण कोरिया को उत्तर कोरिया से युद्ध करना पड़ा जिसमें लाखों लोग मारे गए। 1953 से शुरू हुए इस युद्ध को शीत युद्ध की तरह देखा जाता रहा है परंतु इसके अंतर्गत भारी हिंसा हुई, तुलनात्मक रूप से यह शीत-काल में लड़ा गया सबसे क्रूर त्रासदीपूर्ण युद्ध था जिसकी गूंज 1960 तक साफ़ देखा गया।
दक्षिण कोरिया ने 1960 के बाद अपनी विकास यात्रा की नई नीति बनाई और बड़े पैमाने पर उद्योगों की स्थापना हुई। स्वाभाविक रूप से कोरिया गणराज्य ने अपने लिए पूंजीवादी व्यवस्था को राष्ट्र-उन्नति का आधार बनाया। इस व्यवस्था में बड़ी-बड़ी कम्पनियों को विशेष सहायता और संरक्षण प्राप्त था। 1961 के बाद दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था पर चेबल नामक विशाल व्यापारिक समूह का प्रभुत्व हो गया।इनमें से पचास सबसे बड़े चैबोलों में से लगभग आधे की शुरुआत 1950 के दशक के दौरान हुई थी।3
दक्षिण कोरिया का आर्थिक परिवर्तन भी इस समय देश में हो रहे सामाजिक परिवर्तन से संभव हुआ। .कोरियाई युद्ध के दौरान और उसके बाद, ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हुआ, जबकि युद्ध के दौरान संपत्ति के विनाश ने सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया में योगदान दिया। यह औपनिवेशिक काल की उथल-पुथल और 1945 में देश के विभाजन के बाद हुआ, जिसके परिणामस्वरूप पुराने सामाजिक वर्ग और सामाजिक बाधाएँ टूट गईं। एक अधिक तरल और अस्थिर समाज उभर रहा था, एक ऐसा समाज जो बदलाव के लिए तैयार था। दक्षिण कोरिया में एक नागरिक था जो बेचैन था और नए अवसरों के लिए खुला था, जिसमें आशावाद की भावना थी । दक्षिण कोरिया में दो मूलभूत परिवर्तनों ने देश के अंतिम आर्थिक विकास में भारी योगदान दिया। एक था भूमि सुधार, जो दक्षिण कोरिया के आर्थिक और सामाजिक आधुनिकीकरण में एक महत्वपूर्ण तत्व था। 1945 में कोरिया मुख्य रूप से ग्रामीण किसान समाज था, जिस पर अभी भी पुराने यांगबन भूमिधारक कुलीन वर्ग के वंशजों का प्रभुत्व था; अधिकांश किसानों के पास बहुत कम या कोई ज़मीन नहीं थी। भूमि सुधार एक भावनात्मक मुद्दा था।
जमींदार वर्ग के रूढ़िवादी सदस्यों के प्रभुत्व वाली सरकार भूमि सुधार करने में अनिच्छुक थी। .लेकिन उत्तर कोरिया के प्रभाव से – जिसने 1946 में भूमि का व्यापक पुनर्वितरण किया – दक्षिण के बेचैन किसानों और अमेरिकी दबाव से चिंतित होकर, नेशनल असेंबली ने 1949 में एक भूमि सुधार अधिनियम पारित किया। फिर भी, यह केवल कोरियाई युद्ध के दौरान ही हुआ था यह कार्यान्वित किया गया।
इसने दक्षिण कोरियाई समाज और जीवन को तेजी से बदल दिया। पारंपरिक किसान छोटे उद्यमशील किसान बन गए।रूढ़िवादी जमींदार, इसने ग्रामीण इलाकों में स्थिरता लाई और पुराने जमींदार वर्ग की अधिकांश पूंजी और उद्यमशील ऊर्जा को वाणिज्य, उद्योग और शिक्षा की ओर पुनर्निर्देशित किया। दक्षिण कोरियाई समाज में परिवर्तन के लिए जो दूसरी घटना जिम्मेदार है वह – घरेलू व्यापार निगमों की स्थापना। ‘चैबोल’ दक्षिण कोरिया में व्यापार समूह का एक रूप है। आमतौर पर एक परिवार-नियंत्रित निगम, चैबल 1960 के दशक में प्रमुखता से उभरा और दक्षिण कोरिया को एक वैश्विक आर्थिक खिलाड़ी बनने में मदद की। हुंडई, एलजी और सैमसंग जैसे अंतर्राष्ट्रीय उद्योग चेबल बिजनेस समूह के उदाहरण हैं। चेबल को राजनीतिक और आर्थिक रूप से सरकार से भारी समर्थन मिला।1960 और 1970 के दशक में, राष्ट्रपति पार्क चुं गी ने सैमसंग और अन्य को वित्तीय सहायता और विदेशी प्रतिस्पर्धियों से सुरक्षा के माध्यम से बढ़ने में मदद की ।
1961 से पहले के दशक में दक्षिण कोरियाई समाज में मूलभूत परिवर्तन शिक्षा क्षेत्र में का असाधारण रूप से हुआ। 1960 तक, लड़कों और लड़कियों के लिए प्राथमिक स्कूली शिक्षा लगभग सार्वभौमिक थी, और स्कूल छोड़ने की दर न्यूनतम थी। विश्वसनीय आँकड़ों के साथ दक्षिण कोरिया में किसी भी गरीब देश की तुलना में ड्रॉपआउट दर सबसे कम थी।4
सातवें दशक के बाद दक्षिण कोरियाई समाज ने ज्ञान,विज्ञान और प्रौद्योगिकी को व्यापार से जोड़कर आधुनिक विकास की महायात्रा शुरू की और आज दुनिया के विकसित देशों में एक और एशियाई महाशक्ति के एक प्रमुख घटक के रूप में स्थापित है। एक ओर जहां इस देश ने विश्व-व्यापार में अपना धाक जमाया है तो दूसरी ओर कला-संगीत आदि क्षेत्रों में भी अपनी विशेष पहचान पाई है। विकास के तमाम चकाचौंध के साथ ही यह देश कई तरह के सामाजिक संकटों से भी गुजर रहा है। पाश्चात्य अमेरिकी जीवन पद्दति के अंधानुकरण के कारण व्यक्तिवादी सोच और स्वच्छंद भौतिकतावाद का प्रसार हुआ है जहां ‘योलो’ जीवन शैली के कारण निम्न वृद्धि दर जैसी स्थिति पैदा हो गई है । दूसरी तरफ अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ी है, प्रवसन और पलायन की समस्या भी बढ़ी है।
आजादी के बाद कोरियाई समाज के जीवन-यथार्थ में आए बदलाव को कोरियाई साहित्य ने सूक्ष्मता से रेखांकित किया है जो कविताओं, उपन्यासों और विशेषकर कहानियों में यहाँ के सुधी रचनाकारों ने दर्ज किया है।
हिन्दी और कोरियाई कहानियों में व्यक्त जीवन-यथार्थ
आजादी के बाद भारत और दक्षिण कोरिया की सामाजिक स्थिति में कई स्तरों पर एकसमान जीवन-स्थितियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। स्वतंत्रता के बाद विभाजन, युद्ध, मोहभंग, वाणिज्यिक उठान, पाश्चात्य अनुकरण आदि के स्तर पर दोनों देशों ने लगभग एक सी यात्रा की है इसलिए कमोवेश जीवन-यथार्थ में भी समरूपता का होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि दोनों देशों के स्वातंत्र्योत्तर साहित्यिक क्षितिज में भी भावगत समानता परिलक्षित होती है। ‘कहानी’ साहित्य के क्षेत्र में यह समरूपता ज्यादा मुखर है जिसकी एक संक्षिप्त पड़ताल इस प्रस्तुति का उदेश्य है।
आजादी के बाद दोनों देशों ने विभाजन और उससे उपजे तनाव, हिंसा व प्रवसन को झेला है जिसकी अभिव्यक्ति हिन्दी और कोरियाई कहानियों में मिलती हैं। हिन्दी में विभाजन की त्रासदी को व्यक्त करते हुए कमलेश्वर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, विष्णु प्रभाकर, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ,अमृत लाल नागर, महीप सिंह आदि ने कई कहानियां लिखी हैं जिनमें ‘कितने पाकिस्तान’, ‘भटके हुए लोग’,’अमृतसर आ गया’, ‘मलबे का मालिक’, ‘परमात्मा का कुता’, ‘सिक्का बदल गया’, ‘मेरा वतन’, ‘दिल्ली की बात’, ‘आदमी जाना-अनजाना’, ‘पानी और पुल’, आदि प्रमुख हैं। इन कहानियों में विभाजन और उसके बाद के जीवन-यथार्थ में आए परिवर्तन और त्रासदी को मार्मिकता के साथ चित्रित किया गया है। एक उद्धरण के साथ मैं यहाँ हिन्दी कहानियों में व्यक्त इस त्रासदी को रेखांकित करना चाहता हूं, यह अवतरण मोहन राकेश की कहानी मलबे का मालिक से ली गयी है जहां एक पिता अपने बेटे के हत्यारे से ही उसकी हत्या की वज़ह पूछ बैठता है- “ तू बता रक्खे यह सब हुआ कैसे? …तुम लोग उसके पास थे, सबमें भाई की-सी मुहब्बत थी, अगर वह चाहता तो तुममें से किसी के घर में नहीं छिप सकता था?”5
कोरियाई कहानीकार किम इ सक,जंग हान सुक, अन सू गिल, सोन छुंग सब, जन गांग योंग, जून यो सब ई बम सन, आदि ने अपनी कहानियों में विभाजन की क्रूर त्रासदी और पीड़ा को रेखांकित किया है। विभाजन के बाद उतर कोरिया से प्रवसन कर आए एक परिवार की व्यथा व्यक्त करते हुए ई बम सन ने अपनी कहानी ‘ओ बल थन’ में लिखा है- “ एकाउंट ऑफिस का कर्मचारी यल हो शाम के 6 बजने के पश्चात भी घर नहीं जा सकता है क्योंकि उसके पास वापस जाने के लिए पैसे नहीं हैं। दोपहर को खाना भी नहीं खा सका। उसका घर भी शरणार्थी कैंप से सटा हुआ था। उसकी खूबसूरत और पढ़ी-लिखी पत्नी गर्भावस्था में भी दूसरों के लिए कपड़े की सिलाई कर रही है………..उसकी बहन अमेरिकी सेना के कैंप के आसपास वेश्या बन गई है।………..”6
विभाजन की क्रूर त्रासदी के बाद भारतीय और कोरियाई परिवेश में युद्ध और युद्ध से उपजे मोहभंग को भी दोनों देशों के कहानीकारों ने अभिव्यक्ति दी है। 60 के दशक में बदलती हुई परिस्थितियों के कारण इस दौर की हिन्दी कहानियों में घुटन, संत्रास और मोहभंग की अभिव्यक्ति हुई। आजादी के आंदोलन के दौरान देखे गए सपने टूटने लगे, भुखमरी, बेरोजगारी,गरीबी के साथ साथ राजनीतिक नीतियों ने इस मोहभंग को बढ़ावा दिया । राजेंद्र यादव, मार्कंडेय, निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी, रेणु, अज्ञेय, अमरकांत, उषा प्रियंवदा, धर्मवीर भारती, रमेश बक्षी आदि की कहानियों में इस पीड़ा को गहराई से देखा जा सकता है। निर्मल वर्मा की एक कहानी सितंबर का एक क्षण के इस उद्धरण से उपरोक्त भावभूमि को देखा जा सकता है- “ एक क्षण व्यक्ति को अपने ढंग से जीवन को नहीं मिल पाता, वह तृप्ति के एक क्षण जीने के लिए छटपटाता रहता है और जिन्दगी के साथ सार्थकता मान लेता है।”7 निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ ‘लंदन की एक रात,’ कमलेश्वर की ‘खोयी हुई दिशाएं’, ‘राजा निरबंसिया’,राजेन्द्र यादव की ‘टूटन’,मन्नू भंडारी की ‘मैं हार गई’ आदि कहानियों में इस युगीन यथार्थ को सघनता से महसूस किया जा सकता है।
इन्हीं जीवन परिस्थितियों को कोरियाई कहानीकारों ने अपने परिस्थितियों में अपने तरीके से व्यक्त किया है जहां अकेलापन, विक्षोभ और सब कुछ खो देने का अनजाना भय व्याप्त है। किम इ सक की एक कहानी ‘डो अन’ के उद्धरण से मोहभंग की यथार्थ स्थिति से अवगत हुआ जा सकता है- “ हमारे जीवन में दुख और परेशानी के सिवा और क्या है! अपने गांव और जमीन को छोड़ने का दुःख, परिवार के बिछुड़ जाने का दुःख, भूख-प्यास और सर्दी से मरने का दुःख, मारपीट के समय घायल लेटे मित्र के कष्ट को देखने का दुःख। इस प्रकार सोचते- सोचते हमारे दिल में दुःख ही बैठ गया। लगता है अब यह भरा हुआ दुःख और भी बढ़ता जा रहा है।”8
आजादी के बाद साठोत्तरी हिन्दी और कोरियाई कहानियों में संयुक्त परिवार का विघटन, परंपरागत मान्यताओं और नैतिक मूल्यों का क्षरण, पीढ़ियों का संघर्ष, आधुनिक और भौतिक सुखों से संचालित जीवन का अकेलापन और अजनबीपन, बदलते स्त्री-पुरुष संबंध, सेक्स संबन्धों के प्रति बदलते नजरिए, व्यक्ति-अस्तित्व और समकालीन राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और भागीदारी स्तर की विभेदक व्यवस्था का व्यापक वर्णन मिलताहै है। हिन्दी कहानियों में नवीन संबंधो के आलोक में उपरोक्त स्थिति रुग्णता के स्तर पर मौजूद है जिसे मन्नू भंडारी की ‘यही सच है’ कहानी के उद्धरण से समझा जा सकता है- “युवावस्था में लड़कियां काम की अतृप्ति से मानसिक क्षय की शिकार हो रहीं हैं। अनिच्छित सम्बंध पति- पत्नी के जीवन को खाली बनाते जा रहे हैं । विचार और प्रकृति के अधिक वैज्ञानिकता के कारण पति-पत्नी अपरिचित की तरह जीवन बिताने को बाध्य हो रहे हैं।”9 कोरियाई परिवेश में जीवन का अकेलापन मशीनीकृत अर्थव्यवस्था से उपजी है जिसकी ओर कई कहानीकारों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है। उदाहरण के तौर पर सोन छुंग सब की कहानी का यह संवाद उल्लेखनीय है- “
‘मून साहब! आप ऐसा सोचते हैं कि आपके मरने से समस्या का समाधान हो जाएगा!’
‘सही बात है।अगर मर जाएं तो जीवन की सभी समस्याओं का निवारण हो जाता है।’
‘ऐसी बात नहीं है, ऐसा नहीं होगा। आप मर भी जाएं तो भी यह संसार नहीं बदलेगा। आपके न होने से इस संसार की बीमारी खत्म नहीं हो जाएगी।’ ” 10
यथार्थवादी आलोचना का मानना है कि वैश्विक स्तर पर आधुनिक मानव मनोवैज्ञानिक धरातल पर निराशा, हताशा, कुंठा, अवसाद और व्यक्तिवादी भोग लिप्सा में घिरा है जिसका सीधा असर कहानी साहित्य पर पड़ा है। डॉ परमानन्द श्रीवास्तव की टिप्पणी इस धारणा को कम से कम हिन्दी कहानी के बारे में सटीक जान पड़ती है कि “ आधुनिक कहानी का यथार्थबोध एक तो इन कहानियों में है जिनमें व्यक्ति मन का कुरूप यथार्थ, यौन-अतृप्ति और यौन-कुंठा की अभिव्यक्त है।दूसरी ओर सर्वथा भिन्न धरातल उन कहानियों में है जिनमें आत्म-अवलोकन की शुभ संवेदना का चित्र है।”11
समकालीन आधुनिक समाज में वैश्वीकरण के बाद कमोवेश हरेक देश में सामाजिक व्यवस्था को निर्धारित करने वाला कारक अर्थव्यवस्था है। आधुनिक युग में जिसके पास ‘अर्थ’ की ताकत है उसके पास ही सत्ता और समाज को नियन्त्रित करने की क्षमता है समकालीन हिन्दी कहानियों ने भ्रष्टाचार, असमानता और अन्याय के खिलाफ सशक्त लेखनी चलाई है। व्यंग्यात्मक और रिपोर्ट शैली में हिन्दी कहानीकारों ने समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को उद्घाटित किया है। नागार्जुन, श्रीलाल शुक्ल, उदय प्रकाश,आदि कथाकारों ने इस व्यवस्था की कलई खोल कर रख दी है। उदाहरणार्थ उदय प्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ इस दृष्टि से एक पढ़ने योग्य रचना है। इसी तरह कोरियाई कथाकार यू जू हन द्वारा रचित ‘जंग सी इलगा’ नामक कहानी भी कोरियाई संसद में व्याप्त भ्रष्टाचार को रेखांकित करती है।
1990 के बाद भारत और कोरियाई समाज तीव्र गति से पाश्चात्य सभ्यता, संगीत, खान-पान, आदि सभी के स्तर पर अंधानुकरण में शामिल हो जाता है। तकनीकी विकास और भौतिकतावाद ने मनुष्य को मशीन में तब्दील कर दिया है जिसका नया ढांचा आजकल आर्टिफिशल इंटेलिजंस (ए.आई) के साथ हम सबके सामने खड़ा है। भारतीय और कोरियाई कहानियों में इस पाश्चात्य सभ्यता और मशीनीकरण के खिलाफ़ प्रतिरोध की एक आवाज जरूर मिलती है । एकल परिवार व्यवस्था और नवीनतम तकनीक का आपस में सीधा संबंध है जिसे कोरियाई रचनाकार और चिंतक ओ येन सू ने उचित ही पहचाना है।वे लिखते हैं- “ प्रकृति से जुड़े हुए मनुष्य का जीवन ही सही जीवन है।इससे अलग विज्ञान और मशीनों के विकास ने मानव-संस्कृति पर चोट की तथा उसे पंगु बना दिया।उसका बहुत नुकसान हुआ है।” 12
इसी प्रकार पाश्चात्य जीवन शैली से संक्रमित होती हुई व्यक्ति-स्वातंत्र्य (सेल्फ इंडिपेंडेंसी) की चेतना में नैतिक मूल्यों का भारी क्षरण हुआ है जिसकी ओर संकेत करते हुए राजेन्द्र यादव ने अपनी कहानी में खानदानी बहू के प्रतीक से व्यक्त करते हुए लिखा है कि “ जिजीविषा की अदम्य कामना से वह खानदानी घर की बहू बनकर अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग करती है।पुरानी पीढ़ी की प्रभुसत्ता को बहू सहन नहीं कर पाती।”13
इक्कीसवीं शताब्दी का यह दूसरा दशक सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य को सेल्फ और सेल्फ ओरिएंटेशन की एक नई ऊंचाई पर ले जा रहा है जहां अब उसे परिवार, सम्बंध, मानसिक सुख-शांति सेक्स, आदि से अधिक पैसा और आधुनिक सुख -सुविधाओं के पीछे भागता-हांफता देखा जा सकता है। लगातार प्रजनन दर में गिरावट और विवाह जैसी संस्थाओं के प्रति उदासीनता आसानी से परिलक्षित की जा सकती है। इस आसन्न सामाजिक यथार्थ को केंद्र बनाकर हिन्दी और कोरियाई कथाकारों में अब तक कोई खास लेखन नजर नहीं आ रहा, उम्मीद है कि आगे इन विषयों पर भी दोनों देशों के कहानीकारों की लेखनी चलेगी !
निष्कर्ष :- इस संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि आजादी के बाद लिखी गई हिन्दी और कोरियाई कहानियों में युगीन जीवन में हो रहे बदलावों को न केवल गहराई से अभिव्यक्ति मिली है बल्कि इन कहानियों ने अपने-अपने सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में समाज को नियन्त्रित और निर्देशित करने का भी महत्वपूर्ण काम किया है। इन रचनाकारों ने अपनी कहानियों में परिवर्तन के विभिन्न आयामों को उद्घाटित किया है जहां विभाजन की त्रासदी से पीड़ित समाज से लेकर विज्ञान- जनित स्वछंद भौतिक सुखों की अतृप्त आकांक्षा में डूबा समाज अभिव्यक्त हुआ है। बड़े पैमाने पर दोनों भाषाओं की कहानियों का परस्पर अनुवाद कार्य में सक्रिय भागीदारी के साथ इस दिशा में शोध के नए क्षेत्रों की संभावना तलाशी जा सकती है।
–डॉ.ज्ञान प्रकाश
सन्दर्भ सूची:-–
- स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी और कोरियाई कहानी; डॉ. ली जंग हो, अभिरुचि प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1997, भूमिका से।
- राजेन्द्र यादव;एक दुनिया समानांतर, अक्षर प्रकाशन, दिल्ली, 1966,पृष्ठ सं- 42
- Laura C.Nelson, measured excess, Status, Gender and Consumer Nationalism in South Korea; New York, Columbia University press 2000,page 11
- Same as above p-144
- मोहन राकेश; मोहन राकेश की संपूर्ण कहानियाँ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1958 ,पृष्ठ सं-225
- उद्धृत :स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी और कोरियाई कहानी; डॉ. ली जंग हो, अभिरुचि प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1997, पृष्ठ संख्या-69
- निर्मल वर्मा;परिन्दे, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1960, पृष्ठ सं- 02
- उद्धृत, स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी और कोरियाई कहानी; डॉ. ली जंग हो, अभिरुचि प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1997, पृष्ठ 57
- मन्नू भंडारी;यही सच है, अक्षर प्रकाशन, दिल्ली, 1966, पृष्ठ संख्या-61
- उद्धृत :स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी और कोरियाई कहानी; डॉ. ली जंग हो, अभिरुचि प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1997, पृष्ठ संख्या-60
- परमानन्द श्रीवास्तव;हिन्दी कहानी की रचना प्रक्रिया;राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-214
- उद्धृत :स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी और कोरियाई कहानी; डॉ. ली जंग हो, अभिरुचि प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1997, पृष्ठ संख्या-71
- राजेन्द्र यादव; विविध प्रसंग, भाग-2 संकलनकर्ता-अमृत राय, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 40.
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परिचय
डॉ.ज्ञान प्रकाश
विजिटिंग प्रोफेसर
हंगुक यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज,
सियोल, दक्षिण कोरिया
(अस्सिटेंट प्रोफेसर, डॉ राम मनोहर लोहिया स्मारक महाविद्यालय, बी.आर ए.बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर)


