
इकतीस दिसंबर की रात थी। आज मल्टी में भव्य आयोजन था। इसी लिए खाने की तलाश में वह—गोलू—रात दस बजे ही आकर बैठ गया था, क्योंकि अमूमन पार्टी ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे समाप्त हो जाती और फेंका हुआ जूठा, किन्तु स्वादिष्ट भोजन मिल जाता। पेट भी अच्छे से भर जाता। लेकिन उसे पता नहीं था कि आज तो पार्टी बारह के बाद शुरू होने वाली थी।
उसने बाहर से ही एक-दो चक्कर हॉल के लगाए, थोड़ा उचककर खिड़की से भी झाँका। सामने टेबल पर बड़ा-सा तीन मंज़िला केक रखा हुआ था, बहुत खूबसूरत सजावट के साथ। लोग भी एकदम सजे-धजे थे, जैसे कपड़ों की दुकानों पर प्लास्टिक के पुतले। खाने के डोंगे तहज़ीब से नीचे जल रही लौ की गर्माहट के साथ शांति से खोले जाने का इंतज़ार कर रहे थे। किसी को खाने की तत्परता नहीं थी—पर वह भूखा था, अंतड़ियाँ कुलबुला रही थीं।
तभी चौकीदार की नज़र उस पर पड़ी। उसने हाथ पकड़ा। नन्हा गोलू एक हाथ से पैंट सँभाले उसके पीछे-पीछे घिसटता हुआ गेट से बाहर खदेड़ दिया गया।
उसने अनुनय-विनय की, कहा कि वह सुबह झाड़ू भी लगा देगा। पर झाड़ूवाला तो आता ही था, इसलिए चौकीदार भद्दी सी गाली देता हुआ वापस अंदर चला गया।
ठंड बहुत थी। इसलिए बचने को वह पानी की टंकी के नीचे सीढ़ियों से पीठ टिकाकर बैठ गया। ठंड मज्जा तक ठिठुरा देने वाली थी, पर भूख का वजन शायद ठंड से अधिक था। वह अपने आप को बहलाने के लिए अपनी माँ के बारे में सोचने लगा। पहले भी जब कभी इंतज़ार करना होता, वह “माँ की याद” के खिलौने से खेलकर समय काट लेता।
उसने कभी अपनी माँ को नहीं देखा था। चाल वालों से सुना था कि छठवें बच्चे को जन्मते समय वह मर गई थी।
उसे माँ का चेहरा स्पष्ट याद नहीं, पर अपने मन में माँ की एक छवि बना रखी थी। पता नहीं क्यों, उसे लगता कि उसकी माँ को पंख उगे थे। जब कभी सपने में माँ आती, तो पंखों वाली ही आती—खूब प्यार करती। तब न भूख लगती, न ठंडी।
सीढ़ियों के नीचे वह बैठा रहा। उसे ठंड लग रही थी।
चौकीदार के कुत्ते के साथ उसने अपना बोरा बाँटना चाहा। पहले तो वह बड़ा भाव खाता था, देखते ही दाँत निकालकर गुर्राता, पर इस बार कूँ-कूँ करके खुद ही पास आ गया, मानो ठंड से बचने का आग्रह कर रहा हो।
गोलू ने बोरा ओढ़ने का प्रयास किया, पर कुत्ता उघड़ गया। उसे अपराधबोध हुआ, तो उसने बोरा फिर से ढंग से कुत्ते को उढ़ाकर खुद उकड़ूँ बैठकर आपस में हाथ रगड़ते हुए गर्म रहने की कोशिश की।
बीच में एक बार फिर हॉल के चक्कर की सोची, पर इस बार चौकीदार मुस्तैद दिखा। वापिस आकर फिर से खुद को गर्म रखने का विफल प्रयास किया।
समय काटना बहुत मुश्किल लग रहा था। एक बार मन में आया कि वह वापस खोली में चला जाए—जहाँ कम से कम चार दीवारें तो थीं। पर अगले ही क्षण उसे याद आया—शराब में डूबा हुआ वह पिता, जिसे उसकी उपस्थिति से कोई लेना-देना नहीं था, और मंझला भाई, जिसकी आँखों में एक अजीब-सी भूख झलकती थी—वह भूख जो रोटी की नहीं थी।
मंझला भाई अक्सर रात में उसके पास आकर लेट जाता और जब वह डरकर सहम जाता, तो उसे डाँटकर चुप करा देता। वह जानता था कि घर—जो हर किसी के लिए एक सुरक्षित जगह होता है—उसके लिए डरावनी अँधेरी गुफा जैसा था।
मंझले भाई की आँखों में कभी भाई जैसा स्नेह नहीं झलकता था—केवल अधिकार, बिना ज़िम्मेदारी के। वह न तो उसे खाना देता, न कपड़े, न प्यार… केवल एक देह का अस्तित्व चाहता था, जिसे वह जैसे चाहे वैसे रौंद सके।
शराबी पिता के खयाल से उसने घर लौटने का विचार त्याग दिया। बाहर की ठंड, भूख और अकेलापन फिर भी घर के उस डरावने सन्नाटे से बेहतर लगा।
अब वह फिर उकड़ूँ बैठकर घुटनों में सिर रखे, खुद को गर्म रखने की कोशिश करने लगा। दिनभर इधर-उधर की खाक छानता थका हुआ भी था। अब नींद उस पर तारी हो रही थी। भूख और ठंड अपने होने का ठोस सबूत दे रही थीं। अब श्रवण और घ्राण-इंद्रियाँ भी सक्रिय हो चली थीं—कानों में डोंगे खोले जाने की आवाज़, नासिका में मसालेदार खाने की महक आने लगी। पर अभी तो दौर शुरू हुआ था—कम से कम आधा-पौन घंटा और लगेगा।
उसने देखा—उँगलियाँ काम करना बंद कर रही हैं और अकड़ रही हैं। अकड़न धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही है। खाना थोड़ी देर से फेंका जाएगा। तब तक वह घुटनों में मुँह छुपाकर माँ की आभासी गोद में चला गया।
आज भूख, ठंड और नींद—तीनों खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करने पर आमादा थीं। इस संघर्ष में नींद विजयी हुई।
तभी उसे अहसास हुआ कि कोई नाज़ुक हाथों से उसके बालों को सहला रहा है। ढुलककर सूख चुके आँसुओं से भरे गालों पर चुंबन की गर्माहट महसूस हुई। उसने आँखें खोलीं—यह तो माँ थी, जो हमेशा सपने में आती थी।
माँ ने उसे एक सुंदर वस्त्र पहनाया और गोद में उठा लिया। उसने पीठ पर हाथ फिराकर पंख टटोलने की कोशिश की—पंख तो नहीं थे, पर उसे लग रहा था जैसे वह हवा में उड़ रहा हो।
अब उँगलियों में गरमाहट महसूस हो रही थी। पूरा शरीर गरम फर वाले कपड़ों की नरमी और गरमी से भर गया था। जैसे ही माँ उसे गोद में लेकर हॉल में पहुँची, उसने देखा—आसपास की औरतें भी उनके पास आ गईं और बारी-बारी उसे प्यार-दुलार करने लगीं।
अब न भूख रही, न ठंड और न नींद।
उसने दोनों हथेलियों में माँ का चेहरा भर लिया और कहा— “माँ, अब मुझे यहाँ मत छोड़ना…।”
माँ ने उसे सीने से लगाकर, दोनों हाथों से भींचकर कहा— “कभी नहीं…।”
सुबह मल्टी बिल्डिंग के चौकीदार ने नगर पालिका निगम को फोन करके बताया—
“पानी की टंकी के पास एक लावारिस लाश पड़ी है… आकर ले जाएँ…।”
परिचय :
पूजा अग्निहोत्री
जन्म – 4 सितंबर
जन्मस्थान – छतरपुर (मध्यप्रदेश)
शिक्षा – इंटरमीडिएट (विज्ञान संकाय), स्नातक (कला संकाय), परास्नातक (अंग्रेजी साहित्य), पीजीडीसीए।
संप्रति – स्वतंत्र लेखन, पटकथा लेखन, ।
अभिरुचि – पाककला, पोषाक सज्जा।
प्रकाशित – लघुकथा कलश, किस्सा कोताह, विश्वगाथा, स्रवन्ति (दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचारिणी महासभा), दृष्टि, क्षितिज, क्राइम ऑफ नेशन, पलाश, धर्मयुग, नवल, शुभतारिका, अभिनव इमरोज, विशुद्ध स्वर, इत्यादि हिन्दी पत्रिकाओं में सतत रचनाओं का प्रकाशन ।
# दैनिक हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका इत्यादि समाचार-पत्रों में रचनाएँ प्रकाशित ।
# विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा, आलोचना, व साहित्यिक-सामाजिक आलेख प्रकाशित।
# लघुकथा डॉट कॉम, पुरवाई, साहित्य कुञ्ज, इरा, युग प्रवर्तक इत्यादि वेब पत्रिकाओं में कहानी, कविता, लघुकथा, नज़्म और समीक्षाओं का लगातार प्रकाशन
# तेलुगु, उड़िया, कन्नड़, नेपाली, इत्यादि भाषाओँ में रचनाएँ अनुदित
साझा संकलन – काव्य पुंज, दास्तान-ए-किन्नर।
यूट्यूब चैनल (किडलॉजिक्स, बैडटाइम स्टोरी) के लिये पटकथा लेख।
पुरस्कार:
- साहित्य संवेद साहित्यिक संस्था द्वारा आयोजित फणीश्वर रेणु स्मृति क्विज में द्वितीय स्थान
- विश्व गाथा साहित्यिक पत्रिका द्वारा फागुन विषय पर साहित्य पहेली में भाग लेने पर उत्तम रचनाकार के लिए पुरस्कृत
- नया लेखन, नया दस्तख़त द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा “गर्व” पुरस्कृत
- माँ धनपति देवी स्मृति में कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित अखिल भारतीय ‘अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता-2022’ में कहानी “नई माँ” को प्रोत्साहन पुरस्कार।
पता : पूजा अग्निहोत्री W/O श्री प्रदीप अग्निहोत्री
रूम नंबर- 1236
उर्जानगर ‘C’ ब्लॉक, बिजुरी
अनूपपुर (म. प्र.), – 484440
मोबाइल – 7987219458
ईमेल – agnihotrypooja71@gmail.com
प्रत्येक रविवार को शब्द बिरादरी के पोस्ट की प्रतीक्षा रहती है।आज प्रस्तुत कहानी मार्मिक है। संक्षिप्तता इस कहानी को जीवंत बनाती है। कथाकार को बहुत बधाई।
शब्द बिरादरी को सतत शुभकामनाएं!
ललन चतुर्वेदी
मार्मिक और दिमाग को झुकझोर देने वाली कहानी।