समीक्षा (review)

”सा मा शान्तिरेधि”

“शांति के लिए व्यर्थ अतिरिक्त प्रयास ना करें. अशांति को स्वीकार कर लें तो अपने आप शांत हो जाएंगे”
ओशो

पोस्ट-एपोकैलिक हॉरर फ़िल्म की एक श्रृंखला है “ए क्वाइट प्लेस”. जिसमें ऐसी दुनिया का चित्रण है जहां अतिसंवेदनशील-श्रवण-क्षमता वाले अंधे रक्तपिपासु जीव (एलियंस?) आ गए हैं. इनकी बख्तरबंद त्वचा, असाधारण गति और ताकत जैसे इन्हें अलौकिक बनाती है. ये जरा भी आवाज़ करने वाली हर चीज़ का पीछा करते हैं, जानलेवा पीछा! जान लेने तक!. साल से ज़्यादा समय बाद इनका ग्रह (पृथ्वी) पर कब्ज़ा है और अधिकांश मानव-आबादी को इन्होंने ख़त्म कर दिया है. इसका अंतिम (तीसरा) सीक्वल “ए क्वाइट प्लेस पार्ट III” 2025 में रिलीज़ किया जाना है.

इस फ़िल्म को देखते हुए हर पल लगता है कि गलती से भी कहीं कोई “खटका” भी न हो, कोई सुई भी न गिरे! लेकिन साथ ही “शांति” (नीरवता), जो अब जीवन की प्रत्याशा है, भी कम भयावह नहीं लगती! तब जैसे शोर अपरिहार्य लगता है!.

शोर, हर तरह के, अब जब इस दुनिया के बड़े प्रदूषकों में से एक है तब आख़िर शांति अमूल्य क्यों न हो? लेकिन शांतिपूर्ण जीवन के लिए किसी को, किस तरह की, कितनी शांति चाहिए और किस मूल्य पर?

वस्तुतः शांति महज़ आवाज़ की अनुपस्थिति नहीं, वह कल्पित स्थिति है जिससे सहजता, आराम, संतुष्टि व निश्चिन्तता का वातावरण बनता है. वास्तव में हम आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक शांति चाहते है कि वहां कहीं शरीर, दिमाग़, मन और आत्मा शान्ति की ठौर पा जाए. तभी हर शान्ति मंत्र के बाद तीन बार ओम शांति कहा जाता है…

आंतरिक या भावनात्मक शांति, काफ़ी हद तक, दिमाग़ी रसायनों पर आश्रित हैं बनिस्पत बाहरी शोरगुल के. अतः सबसे पहले दिमाग़ को शांत किया जाए, उसके बाद मन और फ़िर आत्मा. आत्मिक शांति का यह एकमेव रास्ता है. क्योंकि ये ऐसी संपदा तो नहीं जिसे किसी से लिया जा सके या खरीदा जा सकता हो. कितना भी कठिन हो, संभव हो या नहीं, अर्जित तो इसे स्वयं ही करना होगा. अन्यथा मृत्यु इसका शेष रास्ता है!

गौर करें तो पाएंगे कि वास्तव में, बहुधा, दुनियावी शोर, हमारे आंतरिक शोर को नियंत्रित रखता है. बाहरी शोर के मंद होते ही आत्मिक शोर छलकने लगता है जोकि अधिक कष्टप्रद होता है. तभी हमें बाह्य (पसंदीदा) शोर से घिरे रहना भाता है, कीमत चुका कर भी! अब वो चाहे वो संगीत हो, सागर/नदी/झरने के प्राकृतिक सुर हों, कंसर्ट हो, भीड़ या बाज़ार का कोलाहल हो, आतिशबाज़ी हो, युद्ध के नगाड़े हों याकि टिनिटस से बचने के लिए साउंड जनरेटर!

टिनिटस (जिसमें एक या दोनों कानों और अंततः मस्तिष्क में काल्पनिक आवाज़ें, भनभनाहट, सीटी, गुनगुनाहट आदि सुनाई पड़ने लगती हैं. धीमी या तेज़ ये आवाज़ें आती/जाती रह सकती है या हमेशा बनी रह सकती हैं) के प्रभाव को कम करने के लिए टेबलटॉप या वियरेबल साउंड-जनरेटर का इस्तेमाल होता है. इसका लहरों, झरनों, बारिश की आवाज़ का सूदिंग-साउंड, अंदर मचे शोर को अनसुना करने में मदद करता है जो “शांति” को महसूस करने और नींद में मददगार होता है.

बेशक हम सभी सुकून-शांति के तलबगार हैं, लेकिन ये भी सच ये है कि एक सीमा तक ही शांति सहन होती है. इसी दुनिया में मौजूद अति-शांत जगहों को लोग बर्दाश्त नहीं कर पाते. मिनेसोटा में ऑरफील्ड लेबोरेटरीज में एक एनेकोइक (अप्रतिध्वनिक) रूम और रेडमंड (वाशिंगटन) में ऐसा ही एक और रूम (रिकॉर्ड नेगेटिव -20.35 डीबीए का) गवाह हैं.

प्लेनेट-अर्थ के इन सबसे शांत कमरे में आपको अपनी पलकें झपकने की, सिर में रक्त पंप करने या नसों में बहने की आवाज़ साफ़ सुनाई देती है. आपको अपने दिल की धड़कन, अपने फेफड़ों की आवाज़ या पेट की तेज़ आवाज़ सुनाई देगी.

इसके बावजूद सामान्य व्यक्ति यहां 5 मिनट भी नहीं ठहर पाता. यहां का सन्नाटा डराता है. लगातार भ्रमित होने जैसा फ़ील होता है. कहते हैं, कोई भी मनुष्य यहां एक घंटे से अधिक रुक नहीं पाया है. शायद ऐसा इसलिए होता हो कि इन एनेकोइक कक्षों में शरीर स्वयं ध्वनि बन जाता है. और ये जिसने अब तक केवल बाह्य जगत को सुना है, उसके लिए ये सरल तो नहीं!

मान लिया जाना चाहिए कि जिस आत्मिक शांति की तलाश जीवन को होती है, वो सहज, सरल और सस्ती नहीं! अक्सर इसकी कीमत स्वयं जीवन ही होता है…!

– राजीव लखेरा

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