एकालाप
1.
स्मृति में होती है बारिश
और भीग जाती है देह
कोई सपना आँखों से बह निकलता
प्रतीक्षा के घने जंगलों में
पुकारे जाने के लिए ज़रूरी था
किसी आवाज़ का साथ होना
कोई न सुने तो अकेलापन
और घहरा उठता है !
2.
कानों में गूंजती हैं अभी भी की गई प्रार्थनाएँ
जुड़ी हथेलियों के बीच
जो लौट लौट आती
मूल्य चुकाने से चुक जाता दुख
तो अनुक्षण बना रहता सुख
भाषा में रचे गए विलोम
जीवन में अक्सर पर्यायवाची की तरह मिले
कोई शब्द अर्थ से परे मिला
तो खोजा किए रात दिन सात आसमान
पर जा चुके को पकड़ा नहीं जा सकता
खोल कर मुट्ठी बिखेरा जा सकता है हवाओं में !
3.
दीर्घ अंधेरा झरता है निरंतर
उचटी पड़ी नींद से आकुल
सिमटी देह पर
तो पीड़ा से भरी आँखें
कराह उठती हैं
रात के तीसरे पहर में
चौकीदार जब बजाता है
जागते रहो की सीटी
तो उन्नीदी पलकें खुलती हैं धीरे से
ढूँढती हैं बंद कमरे में
रात का अन्धेरा आकाश
कोई तारा बगल में आकर
छिप जाये श्वेत केशों में
ऐसी किसी इच्छा की चाह में
उँगलियाँ बालों में पहुँचती हैं अनायास
ढूँढती वहाँ अटका तारा कोई
जीवन के लम्बे अन्तराल के बाद
गति इस सरकारी अस्पताल के
बीमार बिस्तर पर आकर ठहर गई है
न रात बीतती है
न अँधेरा छँटता है
सफ़ेद फूलों की इच्छा लिए
शिथिल आँखें पाती हैं विश्राम
और उधर भीग जाते हैं बारिश में
असंख्य फूल चाँदनी के एक साथ !
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2
कोई पुकार कहीं नहीं जाती
मैंने वह पीपल नहीं देखा
जिस पर बाँधा गया तुम्हारा घंट
सदियों पुरानी प्यास को ज़रूर देखा
एक बिंदु जिस से रिस रहा पानी निरंतर
भीगो रहा भीतर दिन रात
सारे दिन सूखे हुए से डूब जाएँगे एक दिन
जमी हुई बर्फ़ पिघल कर बह निकलेगी
पता है तुम रास्ता बना लोगी अपने लिए वहाँ भी
ठूंठ हो चुके जीवन को कैसे चीरते हैं आरी से
तुमने बार बार कट कर दिखाया था यह करिश्मा
कोई जादू नहीं था यह कि भर जाएँ आँखें आश्चर्य से
लोग बाग देखें तुम्हारा समर्पण और कहें ,आह !
कैसे बिताया इतना लम्बा यह जीवन अकेला
आसपास कितनी भीड़ थी एक मेला लगा रहता
लेकिन पानी देने कोई नहीं आया माँ
तुम्हें पता था कि कोई पुकार कहीं नहीं जाती
सो तुमने सारे शब्द बांध कर फेंक दिए पहले ही
कोई आध्यात्मिकता काम नहीं आती
कर्मकांड पीछे रह गए लोगों की पाप मुक्ति का
भ्रम है ,जिस वे दुनिया को दिखाने के लिए करते रहते
वर्ना तो दुख हमेशा अकेला ही रहा चाहता है निशब्द
पहाड़ जैसे जीवन में तुम समझती तो बख़ूबी ही थी !
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3
लौट आओ माँ
अंधेरा घिर आया है
तुम अभी तक नहीं लौटी
लौट आए हैं काम पर निकले लोग
गाएँ अपनी नादों से जा लगीं
शाम की नलों में लौट आया है
सुबह का गया पानी
रसोई व्यस्त है शाम के कारोबार में
तुम कहाँ रह गई हो माँ ?
किन वर्षा वनों में भटक गई
कि भूल गई लौटना
तुम्हारी खाट पर बिछी सफ़ेद चादर
व्याकुल हो रही
कोई हाथ नहीं जो उसे ठीक करे बार बार
तुम्हारी उँगलियों की याद आ रही
लौट आओ कि पहली बरसात में
भर गया है तुम्हारा आंगन
सीढ़ियाँ भीगी हुई हैं उदास
इस गीले अंधेरे में तुलसी
देख रही तुम्हारी राह कि तुम लौटो
तो दिया बाती करो गुनगुनाओ
“निमिया की डार मईया गावेली झुलुनवा हो
की झूली झूली ना “!
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परिचय
सीमा सिंह
जन्मस्थान -लखनऊ (उत्तर प्रदेश )
शिक्षा -एम ए (हिन्दी ) , पीएच डी
अध्यापन -असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (अस्थायी) नेशनल पी जी कॉलेज लखनऊ
प्रकाशन —
बहुमत , वागर्थ, पाखी ,उदभावना , दोआबा , कविता बिहान , समावर्तन, पोषम पा , समालोचन , अनुनाद, नया पथ ,समकालीन जनमत , संडे नवजीवन, जनसंदेश टाइम्स आदि कई पत्रिकाओं तथा ई पत्रिकाओं और ब्लॉग में कविता का प्रकाशन ,
“कितनी कम जगहें हैं “ कविता संग्रह सेतु प्रकाशन से प्रकाशित