कविता

1. कविता

रोज की

बंधी-बंधाई दिनचर्या से

निकली ऊब

नहीं है कविता

दिनचर्या

एक बेस्वाद च्यूंइगम है

जिसे बेतरह चबाए जा रहे हैं हम

कविता-

च्यूइंगम को बाहर निकाल फेंकने की

कोशिश है बस

…और

एक सार्थक प्रयास भी

रंगीन स्क्रीनों की चमक से

बेरंग हो चली

एक पीढ़ी की आँखों में

इंद्रधनुषी रंग भरने का

मेरे लिए

कविता

वक़्त बिताने का नहीं

वक़्त बदलने का जरिया है।

2. चिट्ठियां

चींटियों ने

उठा कर

सब सामान

बदल

लिए हैं घर अपने

भीखू ने भी

कर लिया है

इंतज़ाम

अपनी झुग्गी के लिए नये

तिरपाल का

नन्हा चातक भी

प्यास का सताया

अपने पिता की बात का

रख कर मान

उड़

चला है गंगा की ओर

खेतों के पपड़ाए होंठ

फट गए हैं

और

पड़ गई हैं

लकीरें

किसानों के चेहरों पर

कितनी चिट्ठियां भेजी तुमको

अब तो बरस जाओ मेघा।

3. देर रात का फोन

देर रात

बजती

फोन की घण्टी

डरा देती है हमें

बुरी ख़बर वाले टेलीग्राम की माफ़िक

और

हमें जाने क्यों

आ जाते हैं याद

कुनबे के सभी उम्रदराज़ लोग

जो

खड़े हैं

उम्र की अंतिम दहलीज़ पर

कंपकंपाते हाथों से

उठाते हैं फोन

और

रख देते हैं

कहकर ‘रॉन्ग नंबर’

तार निकलता है ख़ाली

भूल जाते हैं

फिर

ज़िन्दगी के दिन गिनते

सभी

उम्रदराज़ लोग

जो

हो आए थे याद

देर रात

फोन की घण्टी बजने से।

4. सच

मैं

पक्ष में भी बोलूँगा

विपक्ष में भी बोलूँगा

और

तुम्हारे समक्ष ही बोलूँगा

पर

क्या तुम सच सुन सकोगे?

जबकि

तुम्हें

मेरे बोलने-भर से भी परेशानी है।

5. लोकतंत्र: एक

मेरी

ऊंगली पे

लगा काली स्याही का

निशान

प्रमाण है

कि

मैंने हथियार थमा दिए हैं फिर

उसे

जो करेगा

इस्तेमाल मेरे ही खिलाफ।

6. लोकतंत्र: दो

सड़कें टूटने से पहले

नहीं करती इंतज़ार

बरसात का

जगह-जगह

ढेर कूड़े के

चाँद को मुँह चिढ़ाते हैं

असुरक्षा का भाव

हर घर में

घर कर गया है

महंगाई, बेरोजगारी में

लगी है

होड़

शिखर पर पहुँचने की

ऐसे में

पाँच साल बाद

आप फिर आये हैं

मेरे दर

झंडा थामे विकास का

जो

आँधी चलने पर भी

लहराता नहीं

मैं

पहले की भांति

हाथ जोड़े खड़ा हूँ

आपका काफ़िला गुज़रने के इंतज़ार में।

7. लोकतंत्र: तीन

चूहे

पकड़ने का

पिंजरा

साफ़ करके

लगा दिया है

उसमें

पनीर का ताज़ा टुकड़ा

देश में ये आम चुनाव के दिन हैं।

8. उनके गिरने से

सपने

टूट ही जाते हैं

पलकों की

महीन परछती पर

अपनी जगह नहीं बना पाते

असल में

कई सपने बहुत बड़े होते हैं

वज़नी भी

वो गिर जाते हैं

और

टूट जाते हैं

उनके गिरने से

जो गड्ढा बनता है

वो कभी नहीं भरता।

9. आत्मकथ्य

मेरे विकलांग होने से

घर और दादी

कभी अकेले नहीं होते

मां समझ गई है

फर्क

सपने और हकीकत का

मेरे विकलांग होने से

पिता के

दांये हाथ की

जिम्मेदारियां और बढ़ गई हैं

मेरे विकलांग होने से

भाई ने पाया है 

एक अनोखा आत्मविश्वास

अकेले ही जूझकर

ज़िंदगी की तमाम मुश्किलों से

मेरे विकलांग होने से

कुछ लोग

वक़्त की तेज़ रफ़्तार से थक-कर

मेरे पास

सुस्ताने आ बैठते हैं

जिन्हें

जमाने ने

मेरी मित्रता का तमगा पहना दिया है

जबकि

मेरे विकलांग होने पर भी

नहीं हो पाता हूँ

मैं विकलांग

मैं

उड़ता हूँ पंछियों के साथ

बहता हूँ

नदी और हवा में

भटकता हूँ

अपने आकाश में बादल बनकर

मैं

अंधेरे का दीपक हूँ

और

दीपक के तले का अंधेरा भी

अगर

तुम सोचते हो

कि

फिर भी विकलांग हूँ मैं

तो

तुम्हारी सोच को ज़रूरत है

मेरी व्हील-चेयर की।

10. वक़्त

सोचता हूँ अक्सर

कि 

मैं वक़्त काटता हूँ 

कि 

वक़्त मुझे…

पता नहीं-

पर 

टुकड़े टुकड़े कम होता जा रहा हूँ मैं।

11. विकल्प

संगीनों को

बनाकर माइक –

गा लूँगा

ख़ंजरों को

करूँगा इस्तेमाल 

पेन की तरह

तलवारों से करूँगा

वाल पेंटिंग

हथगोले

पिट्ठूफोड़ खेलने के काम आएँगे

टैंक से

होली पर 

भिगोया जा सकेगा पूरा गाँव

एक ही साथ

निकाल दूंगा बारूद

मिसाइलों का

खाली खोलों में बनाऊंगा भूलभुलैया

बाकी के

हथियार सारे 

गलाकर

साइकलें बनाऊंगा

और ढेर सारे खिलौने भी

तुम आज भी

निर्भर हो हथियारों पर

जबकि हज़ारों बरस पूर्व हमारे पुरखों के पास

तब थे हथियार

जब कोई विकल्प नहीं था।

परिचय- नाम: प्रदीप सिंह

जन्म: 31 अगस्त, 1988

माता-पिता: श्रीमती अजीत कौर-श्री मनजीत सिंह

शिक्षा: दैहिक सीमाओं के चलते स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके।

सम्मान: दिल्ली पोएट्री फेस्टिवल-3 में युवा श्रेणी में सम्मानित।

‘बुहारे हुए पल’ के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी का ‘सर्वश्रेष्ठ कृति पुरस्कार- 2021’ मिला।

संपर्क: 286 सुंदर नगर नजदीक नई अनाज मंडी हिसार–125001)

ई-मेल: singhpardeep916@gmail.com

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