
खलील जिब्रान की ‘पैगम्बर’ अंग्रेजी में लिखी 28 गद्य काव्य दंतकथाओं की पुस्तक है। यह 1923 में प्रकाशित हुई थी। भुवेंद्र त्यागी जी ने इसके 101 साल होने पर यह हिंदी अनुवाद किया है। चूंकि यह अरब-कथा है, इसलिए उन्होंने उर्दू शब्दों को वरीयता दी है ताकि कथा का प्रवाह बना रहे।
खलील जिब्रान की यह सबसे प्रसिद्ध कृति है। ‘पैगम्बर’ का दुनिया की 100 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। यह इतिहास में सबसे अधिक अनुवादित पुस्तकों में से एक है। यह किताब लगातार छपती रहती है और 101 साल में कभी आउट ऑफ प्रिंट नहीं हुई।
इस पुस्तक की कथा यह है कि पैगम्बर अल मुस्तफा 12 साल तक ऑर्फ़लेज़ शहर में रहने के बाद अपने घर जाने के लिए एक जहाज़ पर सवार होने वाले हैं। उन्हें लोगों के एक समूह ने रोका, जिनके साथ वह जीवन और मानव मन जैसे विषयों पर चर्चा करते हैं। पुस्तक को मोहब्बत, शादी, बच्चे, खान-पान, काम, खुशी और दुख, घर, कपड़े, ख़रीद-फ़रोख़्त, ज़ुर्म और सज़, कानून, आज़ादी, दर्द, ख़ुदशनासी, तालीम, दोस्ती, बातचीत, वक्त, अच्छाई और बुराई, इबादत, ख़ुशी, खूबसूरती, मज़हब और मौत जैसे अध्यायों में विभाजित किया गया है। अलमुस्तफ़ा की शिक्षाएँ जरथुस्त्र के दर्शन से निर्णायक रूप से भिन्न हैं और वे यीशु से एक अद्भुत साम्य प्रस्तुत करती हैं। शब्द बिरादरी में उनके द्वारा अनुवादित पुस्तक का एक अध्याय दिया जा रहा है, बाकी पूरी पुस्तक आधार प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है।
अनुवाद
1 जहाज़ का आना
सबसे बेहतर और सबका प्यारा अलमुस्तफ़ा, अपने जहाज़ के लिए ऑर्फ़लेज़ शहर में बारह बरस से इंतज़ार कर रहा था। उसे इंतजा़र था कि जहाज़ आए और उसे उसकी पैदाइश के वानिकस टापू में ले जाए। आख़िर बारहवें बरस फसल कटाई के इललूल (बैसाख) महीने के सातवें दिन उसने शहर की चारदीवारी के बाहर पहाड़ी पर चढ़कर समंदर की तरफ देखा, तो उसे दूर धुंध में से अपना जहाज़ को नमूदार होता नज़र आया।
जहाज़ को देखकर उसके दिल को करार आया। उसके दिल में समंदर की लहरों की तरह ख़ुशी लहराने लगी। उसने अपनी आंखें बंद करके दिल ही दिल में ख़मोशी से इबादत की।
लेकिन पहाड़ी से नीचे उतरते ही एक उदासी उस पर छा गई और उसने अपने दिल में सोचा: मैं चैन से और बिना किसी दुःख के यहां से कैसे जा पाऊंगा? नहीं, रूह पर किसी जख़्म के बिना मैंने इस चारदीवारी के भीतर दुख के बहुत दिन और अकेलेपन की लंबी रातें बिताई हैं। कोई आसानी से अपने दुखों और अकेलेपन से दूर भला कैसे जा सकता है?
मेरी रूह के बहुत सारे कतरे इन गलियों में बिखरे हुए हैं और मेरी शहवतों के बहुत से बच्चे इन पहाड़ियों के बीच नंगे फिरते हैं। मैं बोझ और दर्द के बिना उनसे दूर नहीं हो सकता।
आज मैं अपने बदन से कपड़े नहीं उतार रहा हूं, बल्कि अपने ही हाथों से अपनी ही खाल को चीर रहा हूं।
मैं यहां अपने पीछे अपने ख़यालात को नहीं, बल्कि भूख और प्यास से बनी अपनी मीठी फितरत4 को छोड़कर जा रहा हूं।
फिर भी मैं ज्यादा देर तक यहां नहीं रुक सकता।
सभी चीज़ों को अपनी ओर बुलाने वाला समंदर मुझे बुला रहा है और मुझे यकीनन रवाना होना है।
हालांकि रात के अंधेरे में वक्त जलता है, लेकिन ठहराव इंसान को जमाकर मिट्टी में तब्दील कर देता है और एक सांचे में ढाल देता है।
काश! मैं यहां से सब कुछ साथ ले जा पाता, लेकिन यह कैसे मुमकिन है?
आखिर कोई आवाज़ खुद को उड़ान देने वाली जुबान और होठों को तो साथ नहीं ले जा सकती। उसे तो अकेले ही सफर तय करना होता है।
बाज भी अपना घोसला छोड़कर अकेले ही सूरज का चक्कर लगाता है।
अलमुस्तफ़ा पहाड़ी की तलहटी पर पहुंचकर फिर समंदर की ओर मुड़ा, तो उसने अपने जहाज़ को बंदरगाह की ओर आते देखा। जहाज़ पर उसके हमवतन जहाज़ी सवार थे।
उसकी रूह से उनके लिए आवाज़ उठी। उसने कहा:
मेरे मादरेमुल्क के लायक बेटो, लहरों के सवारो,
तुम कितनी बार मेरे सपनों में आए हो। और अब मेरे जागने पर
तुम सामने आए हो, लग रहा मुझे यह गहरी नींद के सपने जैसा।
मैं जाने के लिए तैयार हूं और मस्तूलें तानकर मेरा कौतूहल कर रहा है अब हवा का इंतज़ार ।
मैं इस ठहरी हुई हवा में केवल एक और प्यार भरी सांस लूंगा और पीछे मुड़कर
बस प्यार से देखूंगा,
और फिर मैं तुम्हारे बीच इस तरह खड़ा हो जाऊंगा जैसे जहाज़ियों के बीच एक जहाज़ी
और विशाल समंदर, तुम तो हो सोई हुई मां जैसे,
जो दरिया और नहर को आज़ाद करता है सुकून देकर,
यह नहर महज एक बार और घूमेगी, जंगल की राह में महज एक बार और फुसफुसाएगी,
और फिर मैं तुम्हारे पास आऊंगा, एक ला-महदूद5 समंदर में एक ला-महदूद बूंद की तरह।
अलमुस्तफ़ा ने वहां से गुजरते हुए दूर देखा, उसने मर्दों और औरतों को अपने खेतों और बगीचों से निकलकर शहर के फाटकों की तरफ तेजी से जाते हुए।
उसने उन्हें अपना नाम पुकारते और एक खेत से दूसरे खेत तक एक-दूसरे को उसके जहाज़ के आने के बारे में बताते हुए सुना।
तब उसने खुद से कहा:
क्या रुख़सती का दिन ही मिलन का दिन भी होगा?
और क्या यह कहा जाएगा कि मेरी शाम असल में मेरी सुबह है?
जिसने अपना हल बीच जुताई में ही छोड़ दिया हो या
जिसने बंद कर दिया हो अपने रस-कुंड का पहिया उसे भला मैं दूंगा क्या?
क्या मेरे दिल जैसा दरख़्त फलों से लदा है, जिन्हें बटोरकर मैं उन सबके नज़र कर सकूं?
क्या मेरी शहवतें नहर की तरह बह रही हैं, जिससे मैं उनके प्याले भर दूं?
क्या मैं बीन हूं कि किसी दमदार का हाथ मुझे छू सके, या क्या मैं बांसुरी हूं जिसमें से उसकी सांस गुजर सके?
मैंने सदा ख़ामोशियों को चाहा है और इन ख़ामोशियों में आखिर मैंने कौन सा खजाना पाया है जिसे मैं यकीन के साथ बांट सकूं?
अगर यह मेरा फसल काटने का दिन है, तो मैंने किस बिसरे मौसम में किन खेतों में बीज बोये हैं?
अगर मेरे लालटेन उठाने का यही वक्त है, तो मेरी लौ उसमें जल नहीं जाएगी।
खालीपन और अंधेरे में उठाऊंगा मैं अपनी लालटेन और रात का रखवाला उसे तेल से भरकर जला भी देगा।
ये बातें उसने अल्फ़ाज़ में बयान कीं, लेकिन उसके दिल में बहुत कुछ अनकहा रहा।
क्योंकि वह खुद अपना गहरा राज़ जाहिर न कर सका।
जब वह शहर में दाखिल हुआ, तो सब लोग उससे मिलने आए और वे बरबस एक आवाज में उसे पुकार रहे थे।
तब शहर के बड़े-बूढ़ों ने आगे आकर कहा:
अभी हमसे दूर मत जाओ।
हमारे शाम के धुंधलके में तुम दोपहर के सूरज से चमके, तुम्हारी जवानी ने हमारी आंखों में भर दिए सपने।
तुम हमारे लिए न तो कोई अजनबी हो, न ही मेहमान, बल्कि हमारे अपने बेटे हो और हमें बहुत अजीज हो।
हमारी प्यासी आंखों को अपने दीदार के लिए तरसाओ मत।
इमामों और पुजारनों ने उससे कहा:
समंदर की लहरें तुम्हें अब हमसे जुदा न कर पाएं, हमारे साथ बिताए तुम्हारे बरस हमेशा यादों में रह जाएं।
तुम हमारे बीच रूह की रौनक बनकर आए और तुम्हारी छांव से हमारे चेहरे रौशन हो गए।
हमने तुम्हें बहुत मोहब्बत दी। लेकिन बेजुबान थी हमारी मोहब्बत और वह परदे में ही रही।
अब हमारी मोहब्बत ऊंची आवाज़ में पुकार-पुकार कर तुम्हारे सामने नमूदार होगी। और अक्सर होता ये है कि बिछुड़ने की घड़ी आने तक मोहब्बत को अपनी गहराई का एहसास नहीं होता।
बाकी लोग भी आकर उससे गुज़ारिश करने लगे लेकिन उसने उन्हें जवाब नहीं दिया। उसने अपना सिर झुका लिया और पास खड़े लोगों ने उसके आंसुओं को उसकी छाती पर गिरते देखा।
फिर वह लोगों के साथ बड़े चौराहे की तरफ बढ़ा।
इबादतगाह से एक औरत निकली, जिसका नाम अलमित्रा था। वह एक नजूमी थी।
अलमुस्तफ़ा ने उसे बहुत शुक्रगुजारी से देखा, क्योंकि उसी ने उसके इस शहर में आने के अगले ही दिन उसे पहचान लिया था और उस पर भरोसा किया था।
अलमित्रा ने उसे सलाम करके कहा:
खुदा के पैगम्बर, इंतेहाई तलाश में तुम काफी वक्त से अपने जहाज़ के फासलों का हिसाब लगा रहे हो।
अब जबकि तुम्हारा जहाज़ आ गया है, तो तुम्हें जाना होगा।
अपनी यादों और आशियाने की धरती के लिए तुम उतावले हो, आखिर वह तुम्हारी ख़्वाहिशों की धरती है। अब न तो हमारी मोहब्बत तुम्हें बांध सकती है, न ही हमारी ज़रूरत तुम्हें रोक सकती है।
फिर भी हमारी ख़्वाहिश है कि हमसे रुख़सत होने से पहले तुम हमें कुछ बताओ और अपना कुछ इल्म हमें दो।
उस इल्म को हम अपने बच्चों को देंगे और वे अपने बच्चों को देंगे और इस तरह यह इल्म कभी जाया नहीं होगा।
अपने अकेलेपन में तुमने हमारे दिन देखे हैं और रात में जागकर तुमने हमें नींद में रोते-धोते और हंसते सुना है।
इसलिए अब हमें हमारे ही बारे में बताओ और यह भी कहो कि तुमने पैदाइश से मौत के बीच की ज़िंदगी में क्या देखा।
अलमुस्तफ़ा ने जवाब दिया:
ऑर्फ़ेलीज़ के बाशिंदो, तुम्हारी रूह में जो कुछ भी हिलोरें ले रहा है, उसके सिवा भला मैं क्या कह सकता हूं?
भुवेंद्र त्यागी
पत्रकार, लेखक और अनुवादक भुवेन्द्र त्यागी के विविध विषयों पर 3,000 से अधिक लेख, फीचर, रिपोर्ताज, साक्षात्कार और समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाशवाणी, विविध भारती और बीबीसी से 250 से अधिक वार्ताएं, कार्यक्रम और साक्षात्कार प्रसारित। अब तक 37 पुस्तकें प्रकाशित, जिनमें से 25 पुस्तकें अनुवादित हैं।
‘दैनिक भास्कर’, मुंबई में कार्यकारी संपादक।
संपर्क: bhuvtyagi@gmail.com