रक्षाबंधन 

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इस बार भी बंधे हैं बहनों के धागे मेरी कलाई में 

चमकीले, मोतियों जड़े 

लाल लाल रंग के 

नाड़ियों में दौड़ते द्रव्य से 

इस तरह हजारों सालों में पली-बढ़ी संस्कृति से 

जुड़ गए हैं मेरे तार 

बहनों की रक्षा की सौगंध खाते हुए 

कि मैं ढूंढता हूं एक सुरक्षित जगह उनके लिए 

और पाता हूं कि संस्कृतियों में जिन का बखान है 

वह घर 

स्वर्ग है जमीन पर 

उससे सुरक्षित जगह उनके लिए कोई नहीं 

कि धूप तक नहीं आती तेज 

आंगन में जड़े जाल से 

कि बहुत खराब है मौसम इन दिनों 

बहन बेटियों का घर से निकलना ठीक नहीं 

इसलिए बांधे रहता है घर 

उनकी चाल अपनी परिधियों में 

अपने हिसाब से 

इस तरह मत करो- अच्छी लड़कियां ऐसे नहीं करतीं 

इस तरह मत चलो- अच्छी लड़कियां ऐसे नहीं चलतीं

इस तरह मत पहनो- अच्छी लड़कियां ऐसे नहीं पहनती

इस तरह मत घूमो- अच्छी लड़कियां ऐसे नहीं घूमती 

इस तरह मत बोलो- अच्छी लड़कियां ऐसे नहीं बोलती 

इस तरह मत सोचो- अच्छी लड़कियां ऐसे नहीं सोचती 

कौन हैं आखिर ये अच्छी लड़कियां 

और कैसे बनती हैं ये 

इन सवालों के जवाबों में खिंची चली आती है बातें 

सदियों से सहमी हुई

दबी हुई दाढों में पुरुषों की 

कि ज़रा सा निकलते ही बाहर 

कुतर डालते हैं पौने दांत 

उनके नाजुक बदन को 

अच्छी लड़कियां मानती हैं कहना 

पिता का भाई का पति का 

वे कभी सवाल नहीं करती 

सवाल करना बुरा समझती हैं 

वे कम बोलती हैं 

गुस्सा आने पर भी दिखाती नहीं हैं उसे 

वे आंसुओं को पी जाती हैं 

कि आंसुओं से ही पनपता है उनका जीवन वृक्ष 

और इस तरह सुरक्षित होती जाती हैं 

बहनें 

घर के भीतर घरों में 

असंख्य तहखानों में 

और अच्छी लड़कियां कभी नहीं पूछती कोई सवाल 

कि आखिर किसकी हो रही है सुरक्षा रक्षाबंधनों पर 

उनकी 

या आदमियों के अहं की 

जिसे बचाते बचाते 

न जाने कब से दे रही हैं आहुति अपने वजूद की 

कि उनके चौखट लांघते ही 

काले धब्बे में बदल जाता है घर 

कि आग की लपटें भी नहीं धो पातीं 

आदमियों के नामों पर पुती वाले को कभी 

वास्तव में 

सबसे जरूरी हैं ये नाम 

और इन्हीं नामों की सुरक्षा की गारंटी देती है बहनें

रक्षाबंधनों पर 

अपने ख्वाबों की रंगीन राखों से 

लिखती हैं वे 

नाम पते पिताओं के 

और काढ़ती हैं सांतिए 

असीम शुभकामनाओं के 

उनकी अपनी सुरक्षा 

दरअसल एक मिथक है 

जिसके वजूद से ही जिंदा हैं पुरुषों के अहं 

कौन करता है सुरक्षा बहनों की 

कौन करता है सुरक्षा उनकी स्वतंत्रता की 

कि उन्हें बोलने की आजादी हो 

उन्हें सोचने की आजादी हो 

अपनी जिंदगी अपनी तरह जीने की खुशी हो 

चलो रक्षाबंधन पर इस बार 

इस तरह सोचें 

कि बहनों को सोचने की आजादी मिल जाए 

कि वे उस तरह हों अच्छी लड़कियां 

जैसे वे समझती हैं 

और हम वैसे ही स्वीकार करें उन्हें 

चलो इस बार ऐसे मनाएँ रक्षापर्व 

कि बहने खड़ी हों अपनी ही जमीन पर 

खुद से रूबरू 

खिलखिलाती हुई।

खिलौनेवालियाँ

टर्र-टर्र करते तमंचों 

और पैं-पैं करते बंदरों को उठाए 

घूमती रहती हैं बुढ़ियाएँ सारा दिन 

चलती ट्रेनों में इधर-से-उधर 

कि इनके बंदर इन्हीं की तरह हैं 

नहीं छीनते ये कोई सामान किसी से 

झपट्टा मारकर 

और न ही डराते हैं इनके तमंचे 

दूसरे तमंचों की तरह 

गोलियाँ चलाकर

ये तो खिलौने हैं सब, मामूली 

इतने मामूली कि बच्चे भी नहीं खरीदते इन्हें आजकल

इसीलिए कई बार 

तमंचों को बोरियों में समेट 

रख आती हैं ये 

पीछे टॉयलेट्स के 

और निकल पड़ती हैं 

हाथ फैलाए आँखें गिराए 

एक-एक रुपए के लिए मिन्नतें करते हुए

अक्सर हड़काई जाती हैं ये कामचोरी के लिए 

जैसे फैले हों हज़ारों काम हर तरफ इनके लिए

घर पर भी होता है यही 

कोई नहीं देता इन्हें रोटियाँ बिना काम के कभी 

और काम?

काम अब इन्हें कोई देता नहीं

एक घर के पोंछे में ही लग जाता है 

पूरा दिन

ऊपर से चाय-नाश्ता खाना-पीना 

बड़ी मँहगी पड़ती हैं ये 

इसलिए अब प्लेटफॉर्मस ही घर बन गए हैं इनके 

यहीं खातीं सोतीं नाहतीं 

यहीं से चल देती हैं ये 

किसी भी ट्रेन में किसी भी तरफ 

कि सारी दिशाएँ खो गईं हैं इनके लिए

इसीलिए टर्र-टर्र करती रहती हैं ये 

झूठे तमंचों सा 

ताकि सुनाई न दे 

पेट में मची भगदड़ आसानी से।

बंबईवाली

जलवा था बंबईवाली का 

कि पहले से ही हो जाते थे लोग खड़े 

बाल्टियाँ भर-भर के 

कि ज़रा देर हुई और बंबईवाली गई 

और रह गईं नालियाँ उदास 

बंबईवाली की छेडछाड से 

कि उन्हें भी आदत हो गई थी अब 

उस रोज़-रोज़ की कहन-सुनन की

वो अक्सर जल्दी में रहती 

तुरत-फुरत काम करती 

और लौट जाती देखरेख के लिए बच्चों की 

कि उससे चूँ-चपड़ करने की किसी में हिम्मत न थी

एक दिन पंडित लटुरिया राधेश्याम 

जो बात-बात पे फरसा निकाल लाता था 

हत्थे चड़ गया था बंबईवाली के 

कि उसकी एक हुंकार से 

बैठ गया था उसका फरसा मिमियाते हुए

कि झाडू त्रिशूल थी उस रोज़ बंबईवाली के हाथों में 

कि पूरा मौहल्ला जैसे जश्न में था, भीगा हज़ारों गुलालों में

कि बंबईवाली की वो जीत सीता की जीत थी, रावण के आँगन में

और इस जीत की खुशी में 

फिर ऐसी चली झाडू 

कि चलती ही गई रुकी ही नहीं 

और यूँ चलते-चलते एक दिन 

घिस गईं सारी तीलियाँ उसकी 

और रह गई बंबईवाली 

बेजान और टूटी हुई

झुके हुए कोठों और कमर का दर्द लिए 

अब कराहने लगी थी वो 

कि अब कई बार नाम से पुकारते थे लोग उसे 

शांति कहकर 

और इस पर वो हँस देती बस!

कि झुर्रियों की बारीक बुनाई 

उसके छबड़े की बुनाई की तरह ढीली पड़ने लगी थी अब

अब वो बंबई भी कम जाती 

अब उसका आदमी भी कम आता 

अब वो खोई-खोई रहती 

अब उसे गुस्सा भी कम आता 

अब उसके पल्लू के किनारे की गाँठ भी पहले से हल्की रहती 

कि उसके लड़के जवान हो गए थे अब 

अब अक्सर उसे पैसों की तंगी रहती

जब वो माँ से मिलने आती 

मैं वहीं गैलरी में बैठा पढ़ता होता 

मेरे राम-राम करने पे 

वो ढेरों आशीष देती 

और वहीं दहलीज़ पे बैठ 

माँ से जाने क्या-क्या बतिया 

अपने पेट की पीर कहती

पूछने पर माँ कुछ न बताती 

बस इतना कहती कि परेशान है बेचारी 

कि ‘रीमा और विवेक के होने पे यही थी मेरे साथ’ 

सो माँ का रिश्ता भी 

पीर का रिश्ता था 

और इसीलिए बहुत गहरा 

कुएँ की जड़ों की तरह ज़मीन में समाया हुआ

अब जबकि जान ली है कुछ हक़ीक़त मैंने 

ग़ालिब की तरह हमारी जन्नतों की 

साफ सुनाई देने लगी है मुझे आवाज़ 

बंबईवाली की 

उसके पेट की पीर 

एक-एक सिसकी उसकी 

कि चेखव के कोचवान की तरह 

बोले ही जा रही है वो मेरे कानों में 

और ले रहा है हिलोरे समंदर 

मेरी बंद आँखों में…

दर्द

अम्मा कहती है 

तू सारा दिन खटती है 

सबका खयाल रखती है 

सब की गिनती में 

खुद को क्यों भूला देती है

सुन, कुछ पल अपने लिए भी रख 

खुद से प्यार कर 

प्यार से देखभाल कर 

औरतों की टीस कोई नहीं सुनता 

खुद नहीं सुनेगी तो दर्द में बह जाएगी 

अम्मा ने दर्द की बात

जीवन में पहली बार की

सब समझते रहे

अम्मा कभी नहीं थकती 

सबके दर्द में अम्मा अपना दर्द क्या कहती

मुझे भी कहाँ खबर लगी 

कि सांसों के संग अम्मा क्या-क्या पी रही थी।

तमन्ना

हमारा मौहल्ला लगभग एक ही था

गली में एक टेड थी बस

जिसमें छुप जाता था उसका दरवाजा 

मगर छत से

सीधी हो जाती थी टेड़

और खुल जाता था रास्ता

गाँव में

लड़के लड़कियाँ दूर ही रहते थे उन दिनों

मगर मानती नहीं थीं उसकी आँखें कोई आदेश

और झुटलाती रहती थी उसकी हँसी सारी बंदिशें

उससे कभी कोई बात की

याद नहीं

फिर भी न जाने कितनी बातें याद हैं उसकी

स्मृति की खाँच में धंसी है उसकी आवाज़

उसकी शादी याद है

और बहुत पहले 

उसके भाई की बताई

ससुराल में उसकी मौत की खबर भी

अब भी

जब तब

किसी चिड़िया सी

पेड़ के झुरमुट से

फुर्र हो जाती है उसकी हँसी

कितनी पागल थी वो लड़की

जीने की उसे कितनी तमन्ना थी।

11.आजीवन कारावास

आँसू तक छोड़ जाते हैं साथ

इन लड़कियों का

कभी-कभी लौटते हैं वे

सूख गए घावों को छेड़ने के लिए

धोखा जब स्थाई भाव हो जिंदगी का

तब आँसुओं से कैसी शिकायत कैसा शिकवा

लोग कसमें उठाते हैं

और जब थक जाते हैं

कसमों को रख कर चले जाते हैं

ये रास्ते वे हैं

जो आगे चल रुकते नहीं हैं

बीमार हो मर जाते हैं

नए रास्ते यहाँ कभी पनपते ही नहीं

रेत में उड़ गए हों जैसे पैरों के निशां सभी

प्यार में धकेली जाती है लड़कियाँ

सियाह सीढ़ियों से

पूरी जिंदगी फिर, करती हैं वे इंतज़ार

साफ़ हवा में साँस के लिए

ऐसा नहीं कि वे नहीं होती ग़लत कई बार

मगर बेचती नहीं हैं वे किसी को इस तरह भरे बाज़ार

प्यार की निशानियाँ

सालती हैं सारी जिंदगी

बच्चे होते तो हैं

मगर ऐसे जैसे खिसक गए हों

एक गर्भ से दूसरे गर्भ में शरीर

उनके बच्चे कभी पैदा होते ही नहीं

कोई नहीं देखता इन्हें पार्कों मैदानों स्कूलों में कभी

न जाने देखे थे कितने ख़्वाब

एक दुनिया बसाने के

मगर बरौनियों के स्पर्श से ही खुल गई उनकी सीवन

प्यार मोहब्बत शादी की हक़ीक़त दिखाते हुए

शादियों के मकां जब ढहते हैं

हड्डियाँ पीस देते हैं

तब कफ़न में लिपटी घूमती हैं वे

ज़िंदा खोल सी

जिन पर टाँक जाते हैं लोग

ओछे अश्लील इशारों की फेहरिस्त

कि हर अंदाज के रेट होते हैं

और हर रेट की कीमत चुकानी पड़ती है उन्हें

दलालों और आंटियों के बेरहम जबड़े

निवालों सा पीसते हैं उन्हें

पतझड़ हमेशा हरा रहता है यहाँ

नए-नए पेड़ों से गिरते हैं वसंत के गीत

कराहते हुए

तहखानों की उधड़ी दीवारें

उनके बदन हैं

जहाँ महसूस नहीं होती अब कोई बात

कि मंडियाँ हैं सब तरफ

और बिक रही हैैं वे

बोलियों में नत्थी सामानों की तरह

ऐसा सामान

जिसे घर नहीं ले जाता कोई खरीदार

छोड़ जाता है वहीं

उरेही पहचानों की भूल भुलैया में सिसकने के लिए

और वह काम जिसमें जलती हैं वे

चिता की लकड़ी सी

किसी को बता भी नहीं सकती हैं उसे

गुस्सा आता है

बहुत आता है मगर किससे कहें

कि किस पर आता है और क्यों

जिसने पैदा किया उसी ने बेच दिया

अंदर ही अंदर उबलती रहती हैं साँसें

और निचोड़ते रहते हैं बाहर

सैकड़ों हाथ

पुर्ज़ा-पुर्ज़ा करने के लिए

दुनिया की सबसे प्राचीन और विशाल जेलें हैं ये

यहाँ पंखों की उड़ान तो क्या

ख़्वाबों की उड़ानें भी तोड़ देती हैं दम

यहाँ बिन पहरे भी नहीं भाग सकता है कोई

कि हर क़ैदी भोगता है यहाँ

आजीवन कारावास

मौत के बाद भी यहाँ मुक्ति नहीं मिलती

कभी अज़ानें तो कभी मंदिर की घंटियाँ

झांकती हैं रोशनदानों से

सदियों पुराने आख्यान रटते हैं घिसे पिटे राग

इंसानी क्रूरताओं के नामकरण के लिए

जिनके उच्चारण ढकेल देते हैं औरतों को

नशों की नसों में

कि होश में ये हैवानियत झेलना संभव ही नहीं

जहाँ से आते हैं गेहूँ चावल चना और दाल

लड़कियाँ आती हैं उन्हीं दूर-दूर के गांवों से

बोरियों में भर

शहर की मंडियों के लिए

कि कोई कानून कोई पुलिस 

कुछ नहीं है उनके लिए

कानून इतना अंधा भी नहीं

कि उतार दे वह

धर्म और नैतिकता के चश्मे

बेबस औरतों की चीखें सुनने के लिए।

स्वाद

माँ के हाथ का खाना

हमें स्वादिष्ट लगता है

और मां को अपनी मां के हाथ का

माँ जब भी कुछ खास बनाती है

नानी की याद

जैसे कढाई में उतर आती है 

छुन छुन करते मसाले

उससे बतियाते हैं 

बचपन की कोई महक

उसे बाहों में घेर लेती है

महक का झौंका कभी-कभी इतना गाढ़ा होता है

कि माँ उसी में खो जाती है

सिर्फ स्वाद बचता है

माँ या उनकी माँ या उनकी भी माँ 

न जाने कितने हाथों का स्वाद।

सम्प्रति: प्रोफेसर,

अंग्रेजी विभाग, इंदिरा गांधी शारीरिक शिक्षा एवं खेल विज्ञान संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय।

सम्पर्क: ए 3/133, जनकपुरी, नई दिल्ली- 110058

ई-मेल: sanjeevkaushal23@gmail.com

2 thoughts on “रक्षाबंधन 

  1. संजीव जी की कविताएँ अलग आस्वाद की हैं। ‘फूल तारों के डाकिए हैं’ संग्रह कुछ दिनों पहले पढ़ा। ‘आजकल’ के लेख में मैंने चर्चा की है। हालाँकि एक ही वाक्य में उल्लेख कर पाया। मुझे अच्छे लगे संजीव जी के बोल!

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