विविधव्यंग्य

ललन चतुर्वेदी के दो व्यंग्य

वैकल्पिक व्यवस्था होने तक

हिन्दी के एक बड़े लेखक प्रभाकर माचवे ने कभी कहा था कि लेखक को स्वयं को बार-बार उद्धृत करना चाहिए. इससे मैं सहमत हूँ. कभी- कभी अपना लिखा हुआ लेख उठाकर पढता हूँ तो उसकी शाश्वतता का बोध होता है. मन खुश हो जाता है. सच  मानिए अपने लेखन में भविष्य का संकेत भी दीखता है. इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि मेरी रचनाओं में जंग नहीं लगने वाला है. वैसे रचनाओं में जंग कभी लगता भी नहीं,हिन्दी में तो बिलकुल नहीं.यहाँ इतने कुशल सर्जन हैं कि कब्र से मुर्दे को उखाड कर सर्जरी करते रहते हैं. रचना दर्द से कराहती रहती है. उसकी बांह में फ्रैक्चर है तो पैर पर प्लास्टर चढ़ा देते है. खैर, मैं भी अनाड़ी नहीं हूँ. सफल कथावाचकों की तरह रामयाण की कथा में महाभारत की गाथा गाने लगता हूँ.

मुद्दे की बात यह है कि बहुत पहले मैंने एक लेख लिखा था- ” पत्नी का कोई विकल्प नहीं है.” शायद वह समय बहुविकल्पी नहीं था. अब तो विकल्पों की भरमार है. अधिकाश परीक्षाओं में वस्तुनिष्ठ सवाल नहीं पूछे जाते. एक ही प्रश्न के चार विकल्प होते हैं. चतुर विद्यार्थी उत्तर नहीं जानने  पर “इनमें से कोई नहीं” को चुनते हैं. जीवन भी एक परीक्षा है. इसमें विकल्पों की भरमार है. बहुत सिरफुटौवल वाली स्थिति नहीं है. संकल्प से अल्पविराम लेकर उप मार्ग पकड़ लेना है. फिर भी,कुछ लोग खूंटे में बंधे रहने में ही आनंद ढूंढ़ते हैं तो वैसे मूढ़मति कि दुर्गति कौन रोक सकता है? हमारे पड़ोस में ऐसे ही एक सज्जन हैं प्यारेलाल.किसी मनहूस घड़ी में उनके पिता ने उनका ऐसा सुन्दर नाम रख दिया होगा. सोच तो अच्छी ही रही होगी कि बेटे को सारे जहाँ का प्यार मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . शायद,उन्हें खुदा का ही प्यार मिले .

बहरहाल, अपने यहाँ लोग पड़ोसियों से प्रेम नहीं करते,उन पर नजर रखते हैं. मैं भी अपनी इस फितरत से बाज नहीं आता. प्यारेलाल जी में मेरी ख़ास रूचि है. उनमें मेरी मेरी रूचि तब और गहरी हो गयी जब वह पावन परिणय सूत्र में बंध गए.फिलहाल,वह अपने वैवाहिक जीवन के सात वसंत देख चुके हैं. इधर आठवें वसंत का शुभागमन हो चुका है. फरवरी प्रेम का महीना भी है. पर आसार कुछ अच्छे नहीं दिख रहे हैं.  वसंत के वैभव के बावजूद उनके चेहरे पर पतझर वाली उदासी पसरी हुई है. पड़ोसी के दुःख के ताप से मैं कैसे अप्रभावित रह सकता हूँ . एक दिन जब मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने टोक दिया-प्यारे भाई, अभी सात वर्ष भी नहीं हुए कि यौवन पर हेमंत का वार होने लगा है . अभी तो लम्बा सफ़र तय करना है. मायूस होकर बोले-सात फेरे निभाने की कसम ली थी लेकिन इस गृह-युद्ध में सांस पर ही सांसत बनी हुई है. समझ में नहीं आता कि क्या करूँ? मैंने कहा- “देखो भाई ,बात करने से ही बात बनती है.” उन्होंने झल्लाते हुए कहा-“यहाँ तो बात का बतंगड़ बन रहा है और आप एक पर एक नेक सलाह दिए जा  रहे हैं. जिस पर बीतता है,वही समझता है.सबलोग मुझे ही दोषी ठहरा रहें हैं.” मैंने उन्हें कहा-“परिवार भी एक सरकार की तरह है. जैसे सरकार में गृह मंत्री का पद महत्वपूर्ण होता है ,वैसे ही परिवार में पत्नी का. तत्काल समाधान के लिए उन्हें वित्त विभाग का अतिरिक्त प्रभार दे दो और शांतचित होकर विदेश विभाग अपने हाथ में ले लो.सारा व्यवधान समाप्त हो जाएगा. देश-विदेश  घुमते रहो. विरह प्रेम का पोषक तत्व है. एक बार प्रयास करके देखने में कोई बुराई नहीं है

इस प्यारी नसीहत के बावजूद प्यारेलाल हतोत्साहित नजर आ रहे थे. असल में, उनकी माली हालत भी इन दिनों कुछ बिगड़ गयी है . ऐसे में बजट पर जैसे ही कोई कटौती- प्रस्ताव पेश करते हैं ,सदन में भारी शोर-शराबा होने लगता है . पिता अध्यक्षीय भाषण देकर जब विश्राम कक्ष में एक बार चले गए  तो सदन की मर्यादानुसार फिर अगले सत्र तक आँगन में निश्चित रूप से नहीं आयेंगे. गृहमंत्री तीन बार इस्तीफे की मौखिक पेशकश कर चुकी हैं. वह पार्टी की सदस्यता भी छोड़ना चाहती हैं. लिहाजा सरकार का गिरना तय है . प्रतिपक्ष तो अपने कक्ष में गुप्त मंत्रणा कर रहा है. मैंने प्यारेलाल को सुझाव दिया – “तुम अल्पमत में हो और सरकार चलाना भी चाहते हो. ऐसे में बहुत जरूरी है कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाकर गृह मंत्री से ही परामर्श करो. इतने पर भी बात नहीं बनती है तो तृतीय पक्ष अर्थात ससुराल वाले की मध्यस्थता में वार्तालाप करो.यह कोई भारत-पाक विवाद तो है नहीं कि तीसरे पक्ष की मध्यस्थता तुम्हें स्वीकार नहीं है. तुम्हारे इरादे पाक हैं तो किसी फोरम पर रो-गिड़गिड़ा  कर अपनी बात रख ही सकते हो. पति-पत्नी का सम्बन्ध कोई पंचवर्षीय योजना नहीं है.यह तो जनम-जनम का बंधन है. वैसे भी योजना आयोग की जगह अब नीति आयोग का युग है. योजना असफल हो सकती है लेकिन नीति का गुण तो नेति-नेति.रणनीति बनाओ. यह नया वाला भारत नहीं न्यू इण्डिया है. बाहर की नजर से घर को दुरुस्त करो.”

प्यारे को समझाते हुए जब काफी समय बीत गया,तब मैंने उसे वैवाहिक जीवन के आठवें वसंत के शुभारम्भ पर बधाई देते हुए विदा दी. मैं उसके दीर्घकालिक दाम्पत्य  का दर्शनाभिलाषी हूँ . लेकिन यह समय ऐसा है कि पवित्र रिश्तों के टिकाऊ होने की गारंटी नहीं दी जा सकती . यह तो मेक अप कर ब्रेक अप करने का समय है. रूठने -मनाने वाले दिन कब के लद गए. अब तो टूटने का भी जश्न है. बात बिगड़ जाती है तो जल्दी बनती नहीं. प्यारे अगले सप्ताह ही पुनः उदास चेहरा लिए धमक गए- कोई उपाय नहीं है. वह संबध पर पूर्ण विराम लगाने का इरादा पक्का कर चुकी है. बातचीत के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं. मैंने कहा- जब तक नयी गृह मंत्री का मनोनयन नहीं हो जाता तब तक वह जा नहीं सकती. उन्हें प्रेमपूर्वक समझा दो कि शास्त्र की दृष्टि से ही नहीं अपितु विधि की दृष्टि से भी आप मेरी पत्नी हैं और जब तक वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती,आप कार्यवाहक पत्नी की भूमिका निभाती रहेंगी. यह दूसरी बात है कि आप नीतिगत फैसले नहीं ले सकतीं लेकिन देश हो या परिवार विधि -व्यवस्था बनाये रखना जरूरी है. यह नियम बिना किसी भेदभाव के स्त्री और पुरुष सब पर लागू होता है. 

प्यारेलाल जी के गार्हस्थ्य जीवन के आधार पर मैं अपनी पूर्व रचना को खारिज करता हूँ. यह घोषणा करता हूँ कि अब मैं रचना और रिश्ते के कालजयी या शाश्वत होने का कभी दावा नहीं करूँगा. या बहुविकल्पी दुनिया में किसी के लिए सर नहीं धुनूंगा. समझबूझ कर सही विकल्प चुनूँगा. 

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रिटायरर्मेंट के बाद

रिटायरर्मेंट के बाद महसूस कर रहा हूँ कि लोग रिटायरर्मेंट  से क्यों डरते थे. नौकरी पाने की  खुशी महबूबा पाने की खुशी से कम नहीं होती. रिटायरर्मेंट का गम भी महबूबा के जाने के गम से कम नहीं होता.यकीन मानिए रिटायरर्मेंट अमीरी की कब्र पर पनपी जहरीली गरीबी के तरह होता है. शायद ही कोई सहकर्मी कभी फ़ोन करे. मिलने-जुलने की तो बात ही छोड़िए . साहब थे तो लोगों को मिलने के लिए समय लेना पड़ता था . अब उन्हीं में से किसी एक को बुलाइए तो कह देता है कि मेरे पास समय नहीं है. जो लोग सूर्योदय के पहले ही बिना नागा गुड मॉर्निग का सन्देश भेजते थे वह अब सांध्य वेला में भूल-बिसार चुके हैं. कभी मन होता है कि एक बार अपने पुराने दफ्तर का दीदार कर लूं तो पैर भारी होने लगता है. प्रेमी जब बूढा हो जाता है तो मूक दर्शक हो जाता है. बगल से पुरानी  प्रेमिका गुजर जाती है,और उसका मन गुजरे हुए जमाने में भटकने लगता है.

आज ही रिटायर्ड मित्र प्यारेलालजी  ने एक सन्देश प्रेषित किया. रिटायर्ड वरिष्ठ नागरिकों का दर्द समझ सकते हैं. कहिये कि मोबाइल उनका बहुत बड़ा सहारा बन गया है. जिओ कहता है कि जिओ बाबा !  रिटायर्ड लोगों ने अपना ग्रुप बना लिया है. उनकी प्रशासनिक शक्ति क्षीण हो गयी है. ऐसे में अधिकांशतः उनके मोबाइल के स्क्रीन पर भक्ति-सन्देश तैरते रहते हैं. इस बीच कभी साल में आने वाले पर्व-त्यौहार की तरह महंगाई भत्ता,वेतन आयोग की चर्चा दिल बहलाने के लिए कर ली जाती है.

समस्या यह भी है कि बुजुर्गियत की दहलीज पर खड़ी पत्नी को मोबाइल से ही बैर है. जैसे ही मोबाइल हाथ में लो सामने एक किलो मटर रख देती है. अब छिलते रहो. बेरोजगारी में पड़ोसी ताना देता था कि पढ़- लिख कर घास छील रहा है. बुढापा में पत्नी कभी मटर छिलवा रही है तो कभी सब्जी कटवा रही है. उलटे ताने भी कसती है कि आप रिटायर हो गए और मैं कब रिटायर हूँगी? अब उन्हें भी आकस्मिक, अर्जित और त्यौहार अवकाश चाहिए. भारत दर्शन की सुविधा का भी उपभोग करना चाहती हैं. उनको आवेदन देने या निवेदन करने की भी आवश्यकता नहीं है. उनका मौखिक आदेश ही काफी है. उन्हें पूर्वानुमति लेने की भी जरूरत नहीं है. पत्नी का कोई विकल्प होता भी नहीं. रिटायर्ड लोगों के लिए शायद ही इससे कोई बड़ी समस्या हो.

इस संचार-तत्पर युग में एक क्रान्ति तो जरूर हुई है कि मोबाइल से महिलाएं सशक्त हुई हैं. उन्हें अपना अधिकार समझ में आने लगा है. आजकल सोशल मीडिया पर सारे विमर्श तूफानी रफ़्तार में चल रहे हैं. खैर,इन पर कभी बाद में बात होगी. फिलहाल प्यारेलाल जी का द्रावक सन्देश का सार गीता सार से कम नहीं लगा. लिखा था – “समय कैसे किसी का अवमूल्यन करता है,यह अखबार से सीखिए. सुबह जो कीमती होता है, वही शाम को रद्दी बन जाता है”. यह सन्देश तो हिला देने वाला था. सुबह-सबेरे भेजे गए इस सन्देश के साथ गुड मॉर्निग का कोई तालमेल नहीं था. यह कहिये कि नीचे परम पिता से स्वस्थ,खुश और सुरक्षित रखने की प्रार्थना की गयी थी.

सच पूछिए तो इस उम्र में प्रार्थना से बहुत बल मिलता है. बिस्तर पर बैठे मन यदि कुढ़ता है और अचानक मुंह से कोई न कोई आवाज निकलती ही रहती है. ऐसे में शांति -व्यवस्था बनाये रखने  के लिए  कहना पड़ता है कि प्रार्थना कर रहा था. रिटायरमेंट  कम खाने,गम खाने और कम से कम बोलने की सीख देता है. दफ्तर जाने की लिए पहनने वाले ड्रेस वगैरह के प्रति भी  रुचि घट जाती है. भूषण भार सा प्रतीत होने लगता है. फिर भी, पत्नी तो पत्नी ही होती है. वह चाहती हैं कि उनका पति हीरो की तरह ही दिखे. सो कभी-कभी पार्टी वगैरह में जाने के लिए सूट पहना देती है, टाई  बाँध देती हैं. शायद इस बहाने वह एक बार पुराने दिनों को जी लेना चाहतीं हैं. चाहिए भी. खुशियों पर सबका अधिकार होना चाहिए. लेकिन जब सूट- टाई में आईने के सामने खड़ा होता हूँ तो अफसर वाली फीलिंग नहीं आती है. पतझर में गुलाब,गुलाब नहीं रह जाता. खुशबू की तलाश में मन थोड़ा निराश हो जाता है. पार्टी में भी परहेज करना पड़ता है. मेजबान की भी नजर रहती है कि सुगर वाले साहब रसगुल्ले पर कहीं टूट नहीं पड़े. यहाँ थोडा अफसराना मूड हो जाता है-गुरु गंभीर. वैसे जब जवान अफसर था तो बोलता कम ही था. उस समय तो इशारा ही काफी था. रिटायरमेंट के बाद यह सीख मिली कि बोलने का समय बीत चुका का है. यह देखने का समय है. कोई कमेन्ट नहीं,रिएक्शन नहीं. अब फ़ाइल पर नेसेसरी एक्शन नहीं लिखना है. यह फाइल को बंद कर  अलमीरा में डाल देने का समय है. स्वामी हैण्ड बुक और न्यूज़ की जगह सुन्दर काण्ड का पाठ कर रहा हूँ. अब प्रभु की चाकरी भली लगती है. यह तो पुरुषों का पुराना दुखड़ा है. थोडा मैडम लोगों की बात रख कर संतुलन लाना जरूरी है. जानते ही हैं हैं उनका मन-मिजाज थोडा नाजुक होता है. उनकी बात नहीं कहो तो बहुत जल्द नाराज हो जातीं हैं. बहुत मैनेज करना पड़ता है भाई !  यही तो जीवन है.

खैर,रिटायरमेंट के पूर्व अपने सहकर्मी महिला मित्रों से जब मिलने पहुंचा तो वे भी अपनी-अपनी रामकहानी लेकर बैठ गयीं. उनके सदाबहार चेहरे पर उदासी की तिरछी रेखाएं खिंच गयीं .वे भी पुरुषों की तरह रिटायरर्मेंट से भयग्रस्त थीं. वे कह रहीं थी कि आफिस आने से थोडा मूड चेंज होता था. अब चौबीसों घंटे वही पुराना चेहरा देखते रहिये,फरमाइश सुनते रहिये,पूरी करती रहिये. परिवर्तन में सुख है,सौंदर्य है. इस बात को कौन समझेगा?  प्रकृति परिवर्तनधर्मी होती ही है. अब जो कहते हैं या कहतीं हैं कि रिटायरमेंट के बाद आजादी का सुख है,वे दिल बहलाते हैं. जो सुख आफिस में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है. मन तो जहाज का पंछी  है. उसे अन्यत्र कहाँ सुख मिलता है. मित्र प्यारेलाल जी का अभिमत है कि सेवानिवृत्ति की उम्र कम से कम दस साल बढ़ा देनी चाहिए. सेवक/ सेविकाओं को जब तक वे सेवा प्रदान करने के योग्य हैं,सेवा से वंचित नहीं करना चाहिए. दफ्तर के वासंती मौसम में खिले फूलों को बालकनी के गमले में लगाना कहाँ तक उचित है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है. 

ललन चतुर्वेदी 

lalancsb@gmail.com  

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