एक पर्याय : सशक्त भारतीय स्त्री का
“The History of a nation is the biography of its great men” Thomas Carlyle
(किसी भी राष्ट्र का इतिहास उसके महान लोगों की जीवनी होता है।)
संपूर्ण विश्व में समान अधिकारों के संघर्ष के सिलसिले में ‘नारीवाद’ शब्द सामने आया। ‘नारीवाद’ आधुनिक व परवर्ती काल में विकसित नारीपक्षीय वृहद् चिंतन है। नारीवाद या स्त्री विमर्श एकरेखीय आदर्श संकल्पना नहीं है, वह कई आशयों व संकल्पनाओं का वैचारिक समुच्चय है।
‘फ़ेमिनिज़्म’शब्द और उसकी एक ख़ास तरह की वैचारिकी पश्चिम से आई है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह दर्शन यूरोपीय रेनेसाँ के फलस्वरूप निष्पन्न चिंतनों से स्फूर्त जागरणमूलक मुक्तिगामी दर्शनों में से एक है। 1789 की फ़्रांस की राज्य क्रांति के दौरान शुरू हुए स्त्री अधिकारों को लेकर चिंतन की शुरुवात हुई थी जिसमे आगे चिंतन और वैचारिक दृष्टि से कई लहरें शामिल होती गईं। अठाहरवीं सदी के अंतिम दशकों में पाश्चात्य देशों में स्त्री अधिकारों को सूचित करने के लिए ‘फ़ेमिनिज़्म’ शब्द प्रयुक्त किया जाता था। ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोश में इस शब्द को पहली बार 1894 में शामिल किया गया। उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक से ग्रेट ब्रिटेन में तथा बीसवीं सदी के आरंभ में यूनाइटेड स्टेट्स में इस शब्द का प्रयोग हो रहा था। इस ‘वाद’ के पीछे का उद्देश्य स्त्री को पुरुष के समानअधिकारी और सक्षम मानने योग्य की जागरूकता और चेतना का प्रसार कर स्त्री को मनुष्य रूप में स्वीकार करवाने की मुहिम थी। पश्चिम से उठी अठारहवीं शताब्दी की इस आँधी को यदि भारतीय संदर्भ में समझना हो तो उसके लिए ठीक उसी चश्मे से चीज़ों को देखना भूल होगी, जिससे पश्चिम को देखते हैं। स्त्री अध्ययन विशेषज्ञ प्रो. प्रमीला के. पी. लिखती हैं, “भारतीय स्त्री – जागरण का रास्ता स्वतंत्रता संघर्ष ने खोला।… नारीवाद की कोई सटीक व स्पष्ट संहिता या घोषणापत्र भारत में रूपायित-स्वीकृत नहीं हुआ।”२
भारत के संदर्भ में स्त्री ‘वाद’ के अध्ययनकर्ता स्वाधीनता आंदोलन के समय (नवजागरण काल) से ही स्त्री में चेतना का आना, घर परिवार की चौहद्दी से बाहर निकल कर सार्वजनिक जीवन में अपनी दख़ल को उपस्थिति करने की बात करते हैं। यानी उसी तरह जैसे पश्चिम में रेनेसाँ के आने से स्त्रियों की सामाजिक, व्यक्तिगत और राजनीतिक स्थिति में फ़र्क़ आया और उसकी आंदोलन धर्मी सक्रियता बढ़ी। भारत में स्त्री की स्थिति के अध्ययन की यह दृष्टि और शोध विधि पाश्चात्य शैली के अंधानुकरण का नतीजा है, यह न तो वैज्ञानिक है न तार्किक। निश्चय ही इतिहास के किसी काले कालखंड में भारतीय स्त्री की ऊर्जस्वित शक्ति और चेतना को दमित किए जाने के हर संभव प्रयास हुए। विदेशी आक्रांताओं ने देश की स्फूर्तिमय प्रगति और साहस को दमित करने में कोई कसर न छोड़ी, बावजूद वे देश की आत्मा को न कुचल सके। देश की अखंड शक्ति और अदम्य साहस को देखकर ही मानो अल्लामा इक़बाल के कंठ से फूट निकला था;
“यूनान ओ मिश्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम ओ निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर ए ज़माँ हमारा” – तराना -ए-हिन्दी
नारीवाद अथवा ‘फ़ेमिनिज़्म’ स्त्री पुरुष की जिस समानता की बात करता है भारतीय संस्कृति में यह समानता विवाद या माँग का विषय था ही नहीं, उसकी वजह है कि यहाँ स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक रहे हैं। संस्कृत कालीन महान कवि कालिदास हों या भक्तिकाल के हिन्दी कवि तुलसीदास अपने आराध्य शिव / राम की उपासना व कल्पना वे बिना उनकी अर्धांगनी के नहीं कर पाते। उनके लिए शिव और शक्ति/ राम और सीता एक दूसरे से उसी तरह अभिन्न हैं, जैसे समुद्र से उठी लहर या शब्द और उसके अर्थ-
वागार्थिव संपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्त्ये।
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।
(शब्द और अर्थ के समान सर्वदा मिले हुए जगत के माता पिता पार्वती और शिव को प्रणाम करता हूँ । -महाकवि कालिदास: रघुवंश , प्रथम छन्द)
“गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥ “
(जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री सीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं॥)
प्रकृति और पुरुष की सत्ता एक दूसरे से है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं।प्राचीन भारतीय दर्शन स्त्री को शक्ति के रूप में परिकल्पित करता है। वह शक्ति जो समस्त चर अचर में निवास करती है…
“या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥”
जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
“सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥”
हे नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगल मयी हो। कल्याण दायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को) सिद्ध करने वाली हो। शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। हे नारायणी, तुम्हें नमस्कार है।
ध्यातव्य रहे कि सबका कल्याण करने वाली नारायणी समस्त पुरुषार्थों को प्राप्त कराने का हेतु भी है। भारतीय दर्शन का शक्ति के रूप में स्त्री की परिकल्पना अद्भुत है। ऐसी परिकल्पना या अवधारणा शायद ही किसी अन्य देश की संस्कृति में दिखायी दे। साथ ही देखने वाली बात यह भी है कि यह परिकल्पना या कामना मात्र नहीं भारत देश का अतीत इसके उदाहरणों से भी विपुल रूप से समृद्ध रहा है। लोपा, गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, घोष आदि उदाहरण वैदिक और उत्तर वैदिक काल की मेधावी स्त्रियों के ही उदाहरण नहीं अपितु भारतवर्ष में उनकी सशक्त धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात तथा दिल्ली सल्तनत की स्थापना के मध्य के काल को पूर्व मध्यकाल के नाम से जाना जाता है।इस काल में स्त्रियों के अधिकारों एवं स्थिति में अनेक परिवर्तन हुए। विदेशी आक्रमणों की प्रचुरता के कारण सामाजिक व्यवस्था को अत्यंत कठोर बना दिया। यह काल तमाम मोर्चों पर पतन का काल है। स्त्री अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक स्थिति में दमन की शिकार हो रही थी..उसको उसकी अपनी वास्तविक शक्ति से च्युत कर समाज के दोयम दर्जे का प्राणी बनाए और माने जाने की मशक़्क़त जारी थी। विदेशी आक्रमणों के प्रभाव तथा सामंती व्यवस्था में शक्ति स्वरूपा स्त्री की चुनौतियाँ और संघर्ष असीमित थे। उसे एक साथ कई मोर्चों पर कमान सम्हालनी थी।
भारतीय परंपरा और संस्कृति में प्रकृति स्वरूपा.. शक्ति स्वरूपा माने जाने वाली स्त्री; करुणा, त्याग, सहनशक्ति, धैर्य, आदर्श, नैतिकता, विवेक आदि कई गुणों व आदर्शों को मनुष्य रूप में वहन करने वाली अद्भुत शक्तियों का समुच्चय भी रही है। ये सब गुण किसी बीते ज़माने के उदाहरण या रोमानी कल्पना मात्र नहीं बल्कि अठारहवीं शताब्दी में व्यक्तित्व में विरोधों का अद्भुत सामंजस्य लिए साक्षात एक स्त्री में मौजूद थे..यह असाधारण स्त्री थी अहिल्यादेवी होलकर। मध्ययुगीन भारत का एक ऐसा अभूतपूर्व व्यक्तित्व और चरित्र जिसने देश ही नहीं बल्कि विदेशियों को भी अपने प्रभाव से चमत्कृत कर दिया। स्कॉटिश कवयित्री Joanna Baillie हों या सर जॉन मैलकॉम या फिर हिंदुस्तान के पेशवा, निज़ाम, राजपूत आदि ..। पुरुष प्रधान समाज में लोकमाता अहिल्या बाई अपने शासन काल में अपनी कुशल रणनीतियों, आर्थिक नीतियों व प्रबंधन, न्यायप्रियता, सादगी, चारित्रिक दृढ़ता, साहस, करुणा की प्रतिरूप बन गईं थीं।
देवी अहिल्या बाई होलकर का नाम और यश सिर्फ़ इस बात से नहीं कि वे होलकर राजवंश और राज्य के संस्थापक मल्हार राव की बहू थीं, बल्कि उनके कई समकालीन चाहें वे निज़ाम हों या बाहर देश के सर जॉन मैलकॉम (Sir John Malcom) जिन्होंने उनकी प्रतिभा से अभिभूत होकर भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए कहा, “ उनका नाम न्याय करने के संदर्भ में एक उत्कृष्ट प्राधिकारी के रूप में लिया जाता है कि जब भी संदर्भ न्यायिक फैसले की प्रक्रिया (अभ्यास) का दिया जाता है, कभी भी किसी के द्वारा आपत्ति नहीं उठाई गई।”
(“ her name is considered as an excellent authority for the judgement that an objection is never raised whenever the reference of the practice is pleaded.) १
देवी अहिल्या बाई की शक्ति, सामर्थ्य, उनका आत्मिक बल, चारित्रिक दृढ़ता और पवित्रता बड़े बड़े महान राजाओं और सूरवीर योद्धाओं की चमक को फीका कर देती है। उनके राज्य के लोग चाहें उनके मित्र हों या शत्रु एक सुर में उनकी दानवृत्ति, सादगी और आध्यात्मिक – धार्मिक प्रवृत्ति की प्रशंसा करते हैं।
तीस साल : ‘उनके’ शांति के शासन के
For thirty years- her reign of peace –
The land in blessings did encrease;
And she was blessed by every tongue,
By stern and gentle, old and young,
And where her works of love remain,
On mountain pass, on hill or plain
There stops the traveller a while
And eyes it with a mournful smile
With muttering lips, that seem to say,
“This was the work of Ahilya Baee.”
(Joanna Ballie)
अहिल्या बाई की जीवन यात्रा बेहद विषम यात्रा थी। शायद प्रकृति प्रायः उन्हीं लोगों की परीक्षा लेती है, जो आग में तप कर कुंदन की तरह निखरना जानते हैं। ग्रामीण कृषक बालिका अहिल्या बाई से अहिल्या बाई होलकर ..फिर रानी अहिल्या बाई होलकर से देवी अथवा लोकमाता अहिल्या बाई होलकर तक का सफ़र इस कदर झंझावतों से भरा था कि मज़बूत से मजबूत व्यक्ति टूट कर बिखर सकता था या आत्मकेंद्रित होकर वीतरागी हो सकता था। लेकिन अहिल्या बाई अपने व्यक्तिगत सुख दुख से ऊपर उठ कर अपने राज्य, धर्म और आवाम के लिए पूरी तरह समर्पित हो गईं । क्या किसी सामान्य मनुष्य के लिए व्यक्तिगत दारुण दुःखों से ऊपर उठ कर लगातार दुर्गम कर्तव्य पथ पर सम भाव से चलते चले जाना आसान है? शायद नहीं।
हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान कवि और लेखक अज्ञेय की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं ..
“जहाँ सुख है
वहीं हम चटक कर
टूट जाते हैं बारंबार
जहां दुख है
वहाँ पर एक सुलगन
पिघला कर हमें
फिर जोड़ देती है।”
X X X X X X
“दुख सबको माँजता है
और –
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने,
किंतु
जिनको माँजता है
उन्हें वह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।”
अहिल्याबाई को ‘देवी’ की उपाधि में समेटना मनुष्य रूप में उनके संघर्ष और जीवन के कठिनतम क्षणों में योद्धा बनकर विजयी होकर सामने आने की उनकी क्षमताओं को कमतर आंकना है। बड़ी बात ये है कि मनुष्य रूप में तमाम झंझवतों के बाद भी वे अपने देवत्व पर अटल रहीं। अपने उपन्यास अहिल्याबाई में वृंदावन लाल वर्मा सही ही लिखते हैं, “ अहिल्या बाई देवी से बढ़कर मानव थीं। कौन सा देवता इतने कष्ट सहकर भी अपने देवत्व पर अटल रह सका होगा? किस देवता ने अपने आंसुओं से इतनी किरणें फैलायी होंगी?”४
प्रायः स्त्रियाँ कोमल ह्रदय होती हैं लेकिन उन्हें कमज़ोर मानना पितृसत्तात्मक व्यवस्था और उसी व्यवस्था द्वारा प्रदत्त मानसिक अनुकूलन का परिणाम है। अहिल्या बाई ने इस पारंपरिक रूढ़ मानसिकता को ध्वस्त कर दिया..उनके पति, पुत्र, श्वसुर, सासें, पौत्र, बेटी दामाद सारे आत्मीय जन एक एक कर दुनिया से विदा ले गए…एक तरफ़ अपने लोगों को एक-एक कर खोने की असहनीय पीड़ा, तड़प और अकेलापन; वहीं दूसरी तरफ़ होलकर रियासत की ज़िम्मेदारी, जनता के सुख दुःख में भागीदारी और उनके हितों की रक्षा के लिए पूर्ण समर्पण, अपने राज्य की सीमाओं की देश के भीतरी और बाह्य आक्रांताओं से सुरक्षा के लिए साहसिक कटिबद्धता। उनका व्यक्तिगत जीवन, उनकी इच्छाएँ और कामनाएँ कभी उनके कर्तव्य पथ के आड़े नहीं आए। व्यक्तित्व के बहुमुखी आयामों वाली न्याय की प्रतिमूर्ति अहिल्या बाई; स्त्री सशक्तिकरण का प्रखर उदाहरण हैं। उनके श्वसुर मल्हारराव होलकर अपनी पुत्रवधू में छिपी संभावनाओं के सर्वाधिक प्रखर पारखी थे। भविष्यदृष्टा, अनुभवी, पितातुल्य मल्हाराव, भटकाव और अस्थिरता के शिकार अपने पुत्र को सही मार्ग पर लाए जाने के लिए ही सिर्फ़ अहिल्या देवी से उम्मीद नहीं लगाए थे वरन् उन्हें इस बात का भी कहीं न कहीं आभास था कि उनके राज्य को अहिल्या बाई कहीं बेहतर तरह से सम्हाल सकती हैं।
बालिका अहिल्या बाई की अपने पुत्र के साथ शिक्षा दीक्षा के प्रबंध के अलावा समय के साथ बड़ी होती अहिल्या को अपने तोपखाने में साथ लिवा ले जाना, उसकी सम्हाल की ज़िम्मेदारी, गोले बारूद अस्त्र शास्त्र की जानकारी मल्हार राव कराते जा रहे थे इसके अलावा जब वे राज्य से बाहर किसी काम या वसूली के लिए गए होते तब भी वे बाई के भरोसे राज्य के काम काज और फ़ैसले छोड़ जाते। एक कुशल व दृढ़ राजनेत्री, प्रशासिका व नीर-क्षीर विवेकी निर्णायक क्षमता से युक्त अहिल्या देवी में प्रतिभा जन्मजात थी..जो उचित वातावरण, अनुकूल देखभाल व पोषण मिलने पर ना सिर्फ़ अंकुरित हो उठी बल्कि पुष्पित-पल्लवित हो आज तक अपनी सुगंध से सम्पूर्ण भारतवर्ष के वातावरण को मनोहर बनाए हुए है।
राजा मल्हार राव होलकर के भीतर का अनुभवी शासक, नियामक और संरक्षक देवी अहिल्या के रक्त में प्रवाहित होने वाले उनके इन गुणों को भली भाँति देख समझ और परख रहा था। उनके पुत्र खंडेराव होलकर के युद्ध में वीरगति प्राप्त होने पर उन्होंने देवी अहिल्या को अपने पति की चिता के साथ सती होने से रोक लिया। सती प्रथा की परंपरा के दुर्धर्ष काल में अपनी पुत्र वधू को सती होने से रोक पाना एक पिता और राजा मल्हाराराव के लिए आसान न था। पुत्र की अकाल मृत्यु से एक तरफ़ वे विह्वल हो रहे थे वहीं दूसरी ओर उन्हें अहिल्याबाई के प्रति वत्सलता और राज्य के हित की चिंता भी उद्वेलित कर रही थी। वो इस बात से भी भली भाँति वाक़िफ़ थे कि देवी अहिल्या बाई ही एकमात्र राज्य के शासन की बागडोर सम्हालने में सक्षम हैं।
सिंहासनारूढ़ होने से पहले लगभग १३ साल तक अहिल्या देवी का प्रशिक्षण चलता रहा; भविष्य की कोख में क्या छिपा है..जाने बग़ैर। राज्य से बाहर जाने पर मल्हारराव राज्य संचालन हेतु आवश्यक दिशा निर्देश और सलाह उन्हें पत्रों के माध्यम से देते रहते थे…अहिल्या देवी को अपने आशीर्वचनों के साथ लिखे पत्रों में से एक उदाहरण दृष्टव्य है-
“ Blessings…know that we are all doing well. Let us know of your doing well. I have already written to you that you should proceed to Gwalior without halt. Do so and reach Gwalior…..having gone there, see that one thousand or at least five hundred balls of big guns, and as many as possible, of small guns, purchase a hundred select vessels big enough to hold seer of powder each, for arrows. Be not negligent on this side of the work.” ( 31st January 1765 A.D.)3
अहिल्याबाई होलकर के जीवन वृत्त को पढ़ते हुए मन बहुधा विस्मय से भर उठता है …एक ऐसी स्त्री जिसका जन्म किसी राजपरिवार या कुलीन परिवार में न हुआ था। जिसने राजसी परवरिश और परिवेश को नज़दीक से कभी न देखा था…वह होलकर रियासत की पुत्र वधू बन सबसे योग्य व आदर्श शासक बन इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो जाती है..। प्रायः माना जाता है कि सत्ता अपने साथ अवश्यसंभावी मद लेकर आती है। महाकवि तुलसी कहते भी हैं,
“नहि कोउ अस जनमेहुँ जग माहीं
प्रभुता पाहि जाहि मद नाहीं ।” (रामचरित मानस)
कवि तुलसी का समाज के बारे में यह निश्चित अनुमान देवी अहिल्या ग़लत साबित कर देती हैं।वो अपने को जनता का भाग्य विधाता या नियामक नहीं मानती, बल्कि वे अपने को जनता का सेवक मानती हैं। वे मानती हैं कि उनका राज शिव की इच्छा से चलता है। और वे निमित्त मात्र हैं। होलकर रियासत की महारानी होने के बावजूद किसी भी तरह के दंभ, विलासिता, स्वार्थ, प्रमाद आदि किसी भी प्रकार के शासकोचित दुर्गुणों से दूर दूर तक प्रभावित नहीं थीं। उनका अपनी आवाम, सलाहकारों, दरबारियों, सेवकों के साथ संबंध माता तुल्य थे। दरबार में उनका सिंहासन कभी अन्य की अपेक्षा ऊँचा नहीं रखा गया।
सत्य, समता और सम्मान उनकी कार्य शैली का आधारभूत हिस्सा थे ।यही वजह है कि उन्हें लोग उनके जीवन काल में ही उन्हें देवी और मातुश्री कहते थे। राज्य में शांति बहाली तथा बाह्य व भीतरी संकटों व तनाव को कम करने के लिए अहिल्याबाई ने जिन कुशल रणनीतियों का प्रयोग किया वे अपने आप में दृष्टांत हैं। इनमे सबमें सर्वाधिक रोचक संदर्भ है रघोवादादा के साथ बिना युद्ध उन्हें शांति व समझौते के लिए राज़ी कर पाना। पति और पुत्र की मृत्यु के बाद उनके राज्य को हथियाने की गंगाधरराव की कपटपूर्ण साज़िश को नाकाम साबित कर देना, इसके लिए स्त्रियों की सेना के साथ मोर्चे पर उतरने की उनकी रणनीति उनकी बुद्धि की तीव्रता व गहन विवेकी होने का सूचक है जो बिना जान माल की हानि के राज्य पर आए बड़े संकट को टाल सकी। लोकमता अहिल्या स्त्री होने के नाते स्त्रियों की पीड़ा को भलीभाँति समझती थीं। तमाम प्राचीन जड़ मान्यताओं और नियमों को धता बताकर वे अपने शासन काल में विधवा स्त्रियों की संपत्ति ज़ब्त करने, दत्तकविधान नियम को जबरन लागू कराए जाने की प्रथा को ख़त्म करती हैं।
अहिल्याबाई मध्ययुग के घोर अंधकार के समय तमाम तरह की रूढ़ियों से युक्त वातावरण के कारण अपने समय की रूढ़ियों से पूरी तरह अछूती भले ना हों किंतु बावज़ूद वे इन सबको किसी तेज प्रकाश पुंज की तरह भेद कर आगे निकल सकीं.. “उन्होंने छुटपन में जितना पढ़ा, बड़ी होने पर जितना देखा और सुना, जिस वातावरण से वह घिरीं हुईं थीं, जिन पूर्वाग्रहों से वे बंधी हुई थीं, उनके ऊपर बहुधा इतना उठती रहीं! यही एक बड़े विस्मय की बात है।”५
लोकमाता अहिल्या धर्म-कर्म में आस्था रखने वाली स्त्री थीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके द्वारा ख़ासगी से खर्च कि गई राशि का एक बड़ा हिस्सा धार्मिक और सामाजिक कार्यों में खर्च किया जाना उनकी अपार श्रद्धा और करुणा का परिणाम था। अखंड भारत की चारों दिशाओं की सीमाओं में देश की प्रतिष्ठा और पहचान के प्रतीक, आतताइयों द्वारा ध्वस्त, मंदिरों का जीर्णोंद्धार एक भारतीय स्त्री का मुंहतोड़ जवाब था। उनके द्वारा कराया गया मंदिरों का पुनरुत्थान सिर्फ़ धार्मिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नहीं बल्कि ये वो विजय पताकाएँ थीं जिन्हें उन्होंने देश के हर मुहाने पर गाड़ दीं थीं। ये सिर्फ़ हिंदुओं या हिंदू धर्म की अस्मिता के रक्षार्थ ही नहीं अपितु भारतीय अस्मिता के रक्षार्थ, उसके गौरवशाली इतिहास को अक्षुण्ण रखने हेतु उठाया गया बेहद मानीखेज़ कदम था। सर जॉन मैलकॉम उनके द्वारा इस हेतु व्यय बड़ी राशि के संदर्भ में अपनी जिज्ञासा उनके राज्य के एक ब्राह्मण के सामने रखते हैं कि इतना व्यय वे अपने रक्षा कोषों, सैन्य बल आदि पर कर सकतीं थीं, फिर इस पर ही क्यों! उनकी इस जिज्ञासा के शमन हेतु ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि रानी अहिल्याबाई भली भाँति जानती थीं कि मंदिरों के जीर्णोंद्धार, पुनर्निर्माण पर किया गया काम लम्बे काल उपरांत भी ध्यान रखा जाएगा। श्री सरदेसाई अपनी पुस्तक में इन मंदिरों को ‘हिंदू धर्म की बाहरी चौकियाँ’ Out posts of Hindu religion’ कहते हैं। “ कुछ इतिहासकार लेखक मानते हैं कि Religion has been the greatest motive power for the hindus. (हिंदुओं के लिए धर्म की भावना सबसे प्रेरक शक्ति रही है।) ; अहिल्याबाई ने उसी का उपयोग किया।” ६
ब्राह्मण का कथन सत्य था, उनकी नीतियाँ कालजयी साबित हुईं।मध्य प्रदेश थ्रो द एजेस में अहिल्या बाई होलकर के संदर्भ में लिखा है :
“यह कहना सही ही है कि वक्त के साथ मराठा साम्राज्य के महान योद्धाओं और शासकों के नाम भले ही धूमिल पड़ने लगे हों लेकिन देवी अहिल्या बाई द्वारा स्थापित धार्मिक साम्राज्य अभी भी आस्तित्व में है।”१
यही दूरदर्शिता उनकी आर्थिक नीतियों में दिखाई देती है। इंदौर से हटाकर नर्मदा घाट के किनारे बसे महेश्वर को राजधानी बनाने, बुनकरों को अपनी राजधानी में लाकर बसा कर राज्य को आर्थिक सुदृढ़ता प्रदान कराने उनमे भी विशेष रूप से स्त्री को आर्थिक रूप से मज़बूत करने की उनकी नीतियाँ अहिल्याबाई की शक्ति और सामर्थ्य का अभूतपूर्व परिचय है।
अहिल्या बाई के जीवन वृत्त से गुजरते हुए किसी स्त्री का इतना स्थिर दृढ़प्रज्ञ रूप भीतर तक आंदोलित और रोमांचित कर जाता है।आज से सिर्फ़ तीन शताब्दी पीछे… आप कल्पना कीजिए कि ग्रामीण आर्थिक रूप से जर्जर कृषक परिवार की आठ नौ साल की एक छोटी बच्ची में पेशवा बाजीराव के बेहद ख़ास सरदार मल्हार राव ने ऐसा क्या देखा कि उसे अपनी पुत्रवधू बनाने का निश्चय कर लिया होगा…
“इंदौर के महाराज मल्हार राव होलकर पूना जाते समय मार्ग में पाथडरी गाँव के उसी शिवालय, जिसमें अहिल्या नित्य पूजन करने आती थी…देवदूतों की प्रभात फेरी के समान अहिल्या पूजा करने आई। मंदिर के चारों ओर बड़ी चहल-पहल थी। हाथी, घोड़े, रथ और आदमियों की भीड़ ही भीड़ थी। किंतु अहिल्या बिना किसी ओर देखे – सत्पुरुषों के विचार की भाँति – अपने लक्ष्य मूर्ति-मंदिर की ओर, उपराम भाव से चलती गई। लोग मौन होते और मार्ग छोड़ते गए। कन्या ने नित्य की भाँति एकाग्र मन से यथावत् पूजन किया और उसी अलिप्त भाव से वापस चली गई।..” (उदारता और महानता की प्रतिमूर्ति – महारानी अहिल्याबाई , पृष्ठ ४) भारतवर्ष में एक लोकोक्ति प्रचलित है, “पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं”। अहिल्याबाई में छिपी संभावनाओं को मल्हार राव ने उसी समय समझ लिया, यह अतिशयोक्ति नहीं।
हिन्दी साहित्य के मूर्द्धन्य कवि जयशंकर प्रसाद अपने महाकाव्य कामायनी में कहते हैं,
“ नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास -रजत-नग पगतल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।”
प्रसाद की स्त्री को समानता की भूमि पर लाकर श्रद्धा का अतीव पात्र बनाने की कामना लोकमाता अहिल्या के भारतीय मानकों और संदर्भ में सटीक होते हुए भी कमतर है, क्योंकि वे मात्र श्रद्धा का पात्र नहीं बल्कि अभूतपूर्व शक्ति, सामर्थ्य और विवेक का प्रतीक हैं। सर जॉन मैलकॉम, जो अहिल्याबाई के समकालीन थे, लिखते हैं , “ It is an extraordinary picture,a female without vanity, a bigot without intolerance, a mind imbued with the deepest superstition yet receiving no impression except what promoted the happiness of those under it’s impression, a being exercising in the most active and able manner despotic power not merely with sincere humility But under the severest moral restraint that a strict conscience could impose on human action; and all this combined with the greatest indulgence for the weakness and faults of others.”
संदर्भ
१ Madhya Pradesh Through the ages, editors S.R. Bakshi , O.P. Ralhan ,volume 3 , Madhya bharat : society and economy . Published by Sarup & Sons, Ansari Road, Daryaganj new delhi.
२ स्त्री अध्ययन की बुनियाद : प्रमीला के.पी., पृष्ठ १९ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
3- Life And Life’s – Work of Shree Devi Ahilya Bai Holkar( 1725-1795 A.D.)Edited by V.V.Thakur
४- अहिल्याबाई – वृंदावनलाल वर्मा , पृष्ठ ९, प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण
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५- वही
६- वही