टुकड़े-कपड़े
आज सुमन पटियाला-कुर्ती सिलने के लिए कपड़े को ज़मीन पर बिछाकर रखी है ताकि सही नाप में काट सके । एकाएक उसकी आँखें दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी पर टंग गई । इस समय पड़ोस के दादा जी हर रोज चाय पीने आते हैं, अब तक नहीं आए ! कैंची वहीं छोड़ कर वह उन्हें बुलाने चल दी । उनकी दोनों बहूओं में उन्हें रखने को लेकर, अक्सर खींच-तान हो जाती ।
“बाबू जी ! आप छोटी की बारी में तो कपड़े इस तरह गंदे नहीं करते । कहीं भी बैठ जाते हैं ज़मीन पर । सारी धोती में मिट्टी लगी है । मुझे ही परेशान करने की कसम खाई है क्या आपने ?”
बड़ी चाची की तीखी आवाज़, दरवाजे के भीतर दाख़िल होते ही सुमन के कानों में पड़ी । वह आहिस्ता-आहिस्ता चलती हुई, स्टूल पर बैठे दादाजी के नज़दीक जाकर खड़ी हो गई । एक ही आँगन पर दूसरे छोर में रहने वाली छोटी चाची चीखीं-
“जीज्ज्जी ! यह मत भूलो, इनकी जीभ का स्वाद भी तो मेरे यहाँ रहने से ही जागता है । तुम तो रुखी-सूखी कुछ भी खिला देती हो ।”
“अच्छा…यह सब ज़रूर इन्होंने ही कहा होगा ! मौज करें ये और लड़ें हम-तुम ।”
बड़ी चाची को घूरते देख दादा जी ने अपनी नज़रें नीची कर लीं । न जाने कितने समुद्रों का खारा पानी उनकी आँखों में तैर गया मगर बह पाने की हिम्मत उनमें नहीं थी ।
सुमन ने धीरे से उनका हाथ पकड़ा और अपने साथ घर ले आई । चाय का घूँट सुड़कते हुए दादा जी की आँखें ज़मीन पर कटने के लिए बिछे कपड़ों पर लगी रहीं । साबुत कपड़ों पर उसे कैंची चलाते देख, शायद उन्होंने अपने भीतर किसी साबुत का टुकड़ा होना महसूस किया ।
“इन साबुत कपड़ों के टुकड़े ना करो बेटी ! इन्हें साबुत ही रहने दो ।”
उन्होंने लड़खड़ाती ज़बान से कहा ।
“दादा जी ! कई बार जब टूटी चीज़ें जुड़ती हैं तो पहले से अधिक सुंदर बन जाती हैं ।”
कपड़ों पर कैंची चलाते हुए सुमन हँसने लगी ।
“पर हर टूटी चीज़ नहीं जुड़ती सुमन !”
उनकी झुकी दृष्टि उठी और सुमन के मासूम चेहरे को दुलरा गईं ।
उन्होंने बासठ वर्षों में जितना कुछ साबुत बचाया था क्या वे समूचे बचे हैं ? उनका मन पथराने लगा ।
अगली सुबह सुमन उन्हीं टुकड़े कपड़ों से बनी पटियाला-कुर्ती में बहुत सुंदर लग रही थी । दादा जी चाय की चुस्की लेते हुए मुस्करा रहे थे कि उनकी दोनों नन्हीं पोतियाँ आईं । बड़ी चाची की बेटी गले में झूल गई और छोटी चाची की बेटी उनकी गोद में आ बैठी । अब वे बासठ के नहीं बारह के थे ।
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2. मौन चीखें
स्कूल के जिस कमरे में वह बैठी है, उसमें दो खिड़कियाँ हैं । दाईं ओर खुलने वाली खिड़की से गुलमोहर, सागौन और नीम की हरियाली दिखती है, कभी लाल और कभी सफेद फूलों के साथ ।
ठंड की मुरझाई धूप में, खिड़की के बाहर खड़े गुलमोहर की हरियाली आज कुछ धुँधली-सी दिख रही है । उसकी कुछेक डालियों पर लहकते लाल फूलों का रंग, गुनगुनी धूप की वजह से ज़्यादा सुर्ख़ हो गया है, जैसे उसकी ललाई को उतनी ही धूप की दरकार थी ।
गौरैया की आवाजाही उन पेड़ों से खिड़की तक और फिर खिड़की से पेड़ों तक लगी रहती है । खिड़की वाली दीवार के भीतरी भाग में एक बड़ा आईना टँगा है । उसकी बगल में कैलेंडर और उसकी बगल में पानी का फिल्टर । खिड़की से कुछ ऊपर लोहे की रॉड से गूँथे, छोटे-से चौकोर रोशनदान पर गौरैया ने अपना घोंसला बना रखा है, जिसके कुछ तिनके नीचे की ओर झूल रहे हैं । जीवन के सारे लक्षण उस दीवार और खिड़की पर मौजूद हैं ।
बाईं ओर खुलने वाली खिड़की से स्कूल का गेट, खुला मैदान, गुपचुप का ठेला और स्कूल की वह पुरानी जर्जरित इमारत दिखती है, जिसके पास कांक्रीट, पत्थर और टूटी ईटों के ढेर हैं । गुपचुप ठेले के इर्द-गिर्द रखी कुर्सियों को ठेला वाला एक के ऊपर एक डाल रहा है । कुर्सियों पर कुर्सियाँ तभी बैठती हैं जब आदमी खड़ा हो, चल रहा हो या आसपास हो ही नहीं ।
कुछ देर बाद छुट्टी की घंटी बजेगी और सारे बच्चे रोज़ की तरह, स्कूल के इस एकरस बहाव से मुक्त होने के लिए, डेल्टा बनाती नदी की तरह गेट के बाहर अलग-अलग दिशाओं की ओर निकल पड़ेंगे । सांसारिक कोलाहल के बीच बहती नदी, समंदर में उठती लहरों के शोर में समा कर मौन हो जाती है । मगर बच्चे, छः घंटे तक के लगातार नियंत्रित मौन के बंध को तोड़ कर, दुनियावी हलचल में शामिल हो जाएँगे ।
उस बाईं खिड़की वाली दीवार के भीतरी भाग में सभी शिक्षकों का विवरण तस्वीर सहित टँगा है । सभी की कुर्सियाँ भी उसी दीवार से सटकर लगी हुई हैं । एकांत की चाह में केवल उसने अपनी कुर्सी उनसे जरा दूर, दोनों दीवारों के बीच में लगा रखी है । उसकी बाईं ओर की तीन कुर्सियाँ अब हमेशा खाली रहती हैं । हालांकि उन तीनों का मुस्कराता चेहरा, आज भी दीवार पर टँगा हुआ है, मगर खाली कुर्सियों का मौन चीख-चीख कर उनके नहीं होने को बयाँ करता रहता है ।
कोरोना की धूप ने दाईं खिड़की की हरियाली को जितना जीवंत किया है, बाईं खिड़की के जीवन पर उतनी ही लू बरपाया है ।
उन खाली कुर्सियों को देखती उसकी आँखें, न जाने कितने ही वक़्त तक निश्चल रूकी रहतीं ! उसे लगता, मानो वे कुर्सियाँ उन मरने वालों की जीवित क़ब्र हैं, जिनमें उनकी टूट चुकी साँसों की हवा अभी भी शेष है । उस हवा और उन ख़यालों से बचने के लिए वह कई-कई दिनों तक उस कमरे में नहीं आती । सारा वक़्त बच्चों की कक्षाओं में गुज़ार देती, मगर उस दूसरी खिड़की की हरियाली, गुनगुनी धूप की महक और जीवन के अवशेष उसके पाँवों की दिशा बदल देते और वह खींचती हुई-सी मृत्यु और जीवन के बीच की उस कुर्सी पर आ बैठती ।
कभी-कभी उसे लगता कि अगर वे कुर्सियाँ दाईं दीवार से सटकर लगी होतीं तो शायद उस पर बैठने वालों की साँसें अब भी चलती रहतीं ।
छुट्टी की घंटी बजने लगी है । उसने बाईं खिड़की की ओर देखा । ठेला वाला जा चुका था । कुछेक बच्चों की साइकिल गेट के पास दिखाई दे रही है । कुछ ही देर में, वहाँ पर बच्चों का रेला उमड़ पड़ेगा ।
आज शनिवार है । पूरे सप्ताह की एकरसता इस शाम तक पहुँचकर इसकी चहारदीवारी के भीतर ठिठक जाती है, जिसका बहाव सोमवार की सुबह से फिर शुरू हो जाएगा । उसने अपना बैग पकड़ा, टेबल से स्कूटी की चाबी उठाई और इतवार के बेहद राहत भरे, अलसाए हुए दिन के रास्ते की ओर बढ़ गई ।
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3. बँटवारा
पिछली रात हृदयाघात से मृत पत्नी के शव के सिरहाने बैठे बुजुर्ग ने व्याकुल होकर, बड़े पुत्र दिनेश से कहा-
“ज़रा फोन तो लगाओ सुरेश को, अभी तक आया क्यों नहीं ?”
“पापा ! समय निकला जा रहा है, सूर्यास्त के बाद अंत्येष्टि नहीं हो सकेगी । ले चलते हैं ।” दिनेश ने रुआँसा होकर कहा ।
“तुम आख़िर फोन क्यों नहीं करते ? सारे रिश्तेदार आ चुके हैं ।” उनका स्वर भर्रा गया ।
“विदेश से आना उतना आसान थोड़े ही है । कल ही तो उसे ख़बर मिली है ।” दिनेश उनके पास आकर बैठ गया ।
“क्यों ? उसकी ‘माँ’ बहुत बीमार थी यह तो वह जानता था ना ?”
“हाँ जानता था ।”
“और पिछली बार तुम दोनों भाइयों के बीच जब सम्पत्ति का बँटवारा हुआ तब तो वह नौ घण्टे में आ गया था…!” बुजुर्ग की नम आँखें आश्चर्य से भर गईं ।
“ हाँ मगर इस बार वह नहीं आएगा ।”
“आख़िर तुम मुझे बताते क्यों नहीं… कि क्यों नहीं आएगा ?”
“मेरी उससे बात हुई है, वह नहीं आएगा ।”
“क्या बात हुई है ?” उनकी आँखें बरसने लगीं ।
“उसने कहा है…!”
“क्या कहा है ?”
“उसने कहा है…माँ की अंत्येष्टि में तुम चले जाओ, पिताजी की अंत्येष्टि में मैं चला जाऊँगा ।” उसने सिर नीचा कर लिया।
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4. कश..!
“यह किस नम्बर का है ?” बगल में बैठे नौजवान ने इशारे से पूछा ।
“तीसरा ।” सुलगा हुआ सिगरेट होंठों पर रखते हुए अधेड़ बोला ।
“लगातार तीन ले लेते हैं ?” उसने आश्चर्य से पूछा ।
“शाम होने तक तीन पैकेट खत्म कर दूँगा बरखुरदार ! तुम सिर्फ तीन की बात करते हो ।” उसने वाहियात हँसी हँस कर एक कश लगाया।
“इतना सिगरेट जलायेंगे तो उँगलियाँ घिस जायेंगी ।” वह मुस्कुराया।
“घिसते तो सिगरेट हैं…वह भी होंठों से, उँगलियाँ सुलगा भर देती हैं ।” मुँह गोल कर छल्ला उड़ाते हुए उसने कहा।
“कौन किसे घिस रहा है, यह तो समय बताएगा।”
“अभी देख लो समय ।” कहते हुए अधेड़ ने बचा सिगरेट नीचे फेंक, दाहिने पैर से कुचल दिया और फिर एक सिगरेट सुलगा कर अपनी तर्जनी और मध्यमा के बीच रख लिया ।
“देखो मेरी उँगलियों ने इसे कैसे दबोचा है ?” एक लम्बा कश भरकर उसने कहा ।
“देख ही रहा हूँ, किसने किसे दबोचा है ?” कहते हुए युवक उठकर चला गया।
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चंद्रिका चौधरी
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों एवं साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रतिभागिता। संप्रति – स्व. राजा वीरेंद्र बहादुर सिंह शासकीय महाविद्यालय सरायपाली जिला -महासमुंद (छत्तीसगढ़) में सहायक प्राध्यापक।
Email – drchandrikachoudhary@gmail.com