
1. अस्तित्व
जवाँ थीं जब तक
बुढ़ी हड्डियाँ
खिलातीं, जिलातीं
परिवार का प्राण बन
उसे ज्यादा मजबूत बनातीं।
सूखे बीज को
पौधे से वृक्ष बना
खुद बन गयीं
सूखी शाख।
जब तक हरी थीं
पूरी तन्मयता से जुड़ी रहीं
वृक्ष के साथ
किसी चिड़िया का आशियाना
किन्हीं अतिथि-यात्रियों के लिए
छाया बन
झेलती रहीं हर झंझावात
अब टूटकर
पृथक हो गईं वृक्ष से
लेकिन खत्म नहीं हुआ
अस्तित्व
चुन ली जाएँगी
वे टूटी शाखाएँ
किसी की भूख मिटाने
किसी की सर्द काया गरमाने
जीवित है भीतर
धधकती आग उनमें
दधीचि के समान गढ़ेंगी
बूढ़ी हड्डियाँ भी
वज्र से अधिक कठोर लेखनी।
लिखेंगी वह
उन अनलिखे पन्नों को
जिनसे, पुरातनता की ऊँगली
आ जाएगी, नूतनता की हथेली में
बची हैं अनंत संभावनाएँ
अब भी…
2. क्षणिका
कभी ज़मीन और जड़ों में
आपसदारी थी…
अब जड़ें
खुद के लिए ज़मीन तलाश रहीं…
किसी गैर वक्त की कहानियाँ
अपने वक्त में
पहेली सी लगती हैं…
सुलझ गईं
तो सबकी
ठिठक गईं
तो पराई…
3. विदाई
वह देख चुकी थी
विवाह के बाद
विदा होती लड़कियाँ…
उनके सिसकते मासूम चेहरों को
आँचल में छुपाती माँ की ममता…
बेटी को हाथों का सहारा देकर
ड्योढ़ी पार कराते
पापा की गीली आँखें…
रुखसती की पीड़ा समझे बिना ही
माँ-बाप का स्नेह देख
सिसक उठा था उसका बचपन …
आज वह खुद विदाई के मंडप पर खड़ी
हर शक्ल में
माँ-पापा का स्नेह तलाश रही…
पर सायास की सहानुभूति में
नेह की पवित्रता कहाँ?
माँ के बाद
माँ का आँचल दादी ने दिया
पापा के बाद
सारा जिम्मा बखूबी निभाया…
उपहारों से भरा-पूरा मण्डप
जिन्हें पापा की आँखों से तोलकर
दादी ने बहुत जतन से जुटाया…
बहुत कुछ ठीक होने पर भी
उन आँखों में है
मायूस-अधूरापन…
कई टूकड़ों में बँटकर भी
आज उसका शीशा मन
दादी का दर्पण होना चाहता है
जिसमें वे
चेहरे की झुर्रियों में ढँकी
वर्षों की तड़प निहार
एक बार बिलख सकें…
उनकी सूखी आँखों के पीछे
वेग से बहते आँसुओं का सैलाब
वह देख चुकी थी
पर दादी रोएंगी नहीं …
ढरकते अश्रुओं के उफान को
पलकों से बाँध जो दिया है…
कछुए की तरह भीतर हो
असहायता छुपा लेना
कई परतों में टूट चुकी हँसी लिए
अपने से बाहर आ जाना
उन्होंने उसे सिखा दिया है…
दादी का हाथ थामे
चौखट पर सीत्कारती
बिन पापा की परी ने
जैसे खुद को ढकेलकर
ड्योढ़ी लँघा दिया
पर…
उस हठी लड़की की जिद्दी रूह
दहलीज़ के भीतर
नम आँखों के साथ
आज पर्यंत खड़ी है
पापा की राह निहारती
कभी न ख़त्म होने वाली प्रतीक्षा में ……….
4. बदले हुए रंग
रंगों की दुनिया
चटक, सुर्ख़, ज़र्द
अचानक क्यों हो गयी
श्याम- श्वेत
क्या आँखों पर चढ़े
रंगीन चश्मों में
दरारें पड़ गयीं?
या सफेद परतों पर टँकी
काली पुतलियों को
अब रंगीनियाँ रुचती ही नहीं?
शायद वे खोजती हों
अपने ही समान
सादे विचार-गर्भित
प्रतिबद्ध व्यक्तित्व !
आखिर
श्वेत-श्याम तारे
अपनी परिधि से परे
कब तलक
निहारती रहेंगी
सुर्ख़ियाँ ?
5. मौन
बड़बोला नहीं है वह
जिसका दंश किसी को चुभे
और संबंध जख्मी हो जाएँ ।
ना ही चुप्पी का अंधेरा साम्राज्य है
जिसमें कोई गुम होकर खो जाए।
बहुत सारे शोर
ढेर सारी अर्थहीन बहसों के नीचे दबा
वह अपनत्व का नाता।
स्वयं के साथ किया हुआ
सच्चे व पक्के स्नेह का वादा ।
मुश्किल घड़ी में खुद को खुद से
मिलाने का भरोसा।
गुंजायमान बाहरी दुनिया से
भीतर की ओर लौटने का रास्ता ।
कई कड़वी प्याली के बीच
चंद कतरों की मिठास वह ;
तेज चलते शब्दों के कारोबार में
दम तोड़ता।
दो शब्दों के मध्य के अंतराल में
सिसकारी भरता
शब्द हीन पुकार वह;
मौन!
6. भविष्य के सितारे
एक अच्छे अतिथि की तरह
चला गया अतीत
प्रेम का नमक चखे बिना
और दे गया
अपनी अशेष स्मृतियाँ
जिनका दामन थामें
वर्तमान पगडंडियों पर
चल रहे हैं
बिना आँसू, रंग, धूप
और आवाज़ के
गिरते- सँभलते
अपने ही गंध और नशे में सारोबार
उसके संकरे मेड़ों पर
पाँव पर नहीं
अंगूठे के बल खड़े हैं
हाथों से लपक लेने को तैयार
उन सितारों को
जो भविष्य की झोली में
लोरी सुनते
मंद-मंद मुस्काते
सोए हुए हैं
खामोश
और
निर्दोष!
डॉ. चंद्रिका चौधरी
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों एवं साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रतिभागिता।
संप्रति – स्व. राजा वीरेंद्र बहादुर सिंह शासकीय महाविद्यालय सरायपाली जिला -महासमुंद (छत्तीसगढ़) में सहायक प्राध्यापक।
Email – drchandrikachoudhary@gmail.com
सरल,सहज,बोधगम्य अच्छी कविताएं