माँ तुम नहीं हो
पर मुझमें ही कहीं हो।
मैं गाती गीत
स्वर तुम्हारा होता
आँखे मेरी, आँसू तुम्हारे
चाल मेरी, ढंग तुम्हारा
मेरे दुखों में
दर्द तुम्हारे होते।
लोग कहते :
तुम बिल्कुल अपनी माँ जैसी हो
मैं स्वयं को शीशे के हवाले कर
चुपचाप ताकती रहती
जब तक की शीशा
मौन समर्थन में
सिर न झुका देता।
प्रमुदित मन को घेरे
माँ का संवेदन
ठीक वैसा
अमावस्या की कालरात्रि में
पूर्णचंद्र के खिलने जैसा।
माँ की तलाश…
कभी खत्म नहीं होती।
बहनों का मुझमें
मेरा बहनों में माँ तलाशना…
दैत-अद्वैत अहसास-सा ।
तुम्हारा वह मूक किंतु ठोस स्नेह
रस-स्वाद भरा
हमारा एक दूजे में ही पा जाना।
बेटे के ‘माँ’ संबोधन में
अपनी ‘माँ’ पुकार मिला लेना
खुद के सहज, स्नेह संप्रेषण में
माँ का वात्सल्य भी पा लेना।
मेरी इन तलाशों के उस पार माँ है
प्रेम की परिपूर्णता का आधार माँ है
बाहर न होकर भी
मेरे अंतरमन में समाई
मैं, माँ की ही परछाई !
निःशब्द
शब्दों की उबड़-खाबड़ दुनिया में
व्यक्त होने के ठीक पहले
और बाद में
भीतर और बाहर
शब्द
केवल एक दर्ज।
दर्द की कराह से अधिक खौफ़नाक
बिना कराह का दर्द।
भीगी आँखों से अधिक डरावने
सूनी आँखों के फैलाव।
लफ़्ज़ों की हाज़िरी के बिना
अनछुए मन का स्पर्श…
अनबोले होठों की कंपकंपी।
बेअसर शब्दों के बर्ताव से
ज्यादा असरदार
चुप के भीतर की आवाज़
सुनती मैं
निःशब्द!
किताबें
सिरहाने रखी हुईं
किताबें ये कई नदियाँ, समंदर
पर्वत-पठार और
जमीन-आसमान की
अनगिनत परतों को संजोए
खट्टे-मीठे ख्वाबों के पन्ने गढ़ती हैं।
चटखती कलियों के संग सूर्ख़ हो
फूटतीं कोपलों में
हरहराते बसंत की तरह रंग भरती हैं।
मेहनत का उजास लिए
बंजर खेत पर खड़े किसान
पसीने से तर-ब-तर
आँगन बुहारती औरत
कक्षा की आखिरी बैच पर बैठे
बच्चे के साथ
अतीत और भविष्य पुकारती हैं।
अंधेरों के खिलाफ मोर्चा संभाले
उजालों की आहट लिए
इन कोरी- हथेलियों में
भरी-पूरी जिंदगी लिखने
कभी-कभी कलम बन जाती हैं।
चौखट पर सवेरे की पहली धूप लिए
मेरे भीतर कई घर बनातीं
संग मेरे रात-दिन
सोतीं-जागतीं
ये किताबें
सिरहाने रखी हुईं।
राम की प्रतीक्षा
राह चलते
वह एक पत्थर से टकरा गया
ठोकर लगी तो
पत्थर से कराह निकली –
मैं तुम्हारी राह का पत्थर
शताब्दियों से भूखा-प्यासा
थका-हारा, दबा-कूचला
जमाने के कदमों तले पड़ा
राम का रास्ता जोहता हूँ।
जिन्होंने अहिल्या को
पत्थर से इंसान बनाया
सोचता हूँ
मुझे भी किसी गौतम ने
श्राप दिया होगा।
संसार का सारा आतप सहने
मजबूर किया होगा।
मेरे भीतर भी कोई भावुक रमणी
अपनी पीड़ाएँ समेटे
सिसक रही होगी।
मैं दुनिया की हर ज्यादती सहता रहा
मुझे परखने
उसकी ज्यादतियाँ बढ़ती रहीं
वर्षा, अंधड़, धाम की मार सहते
अब मन की कोमलता भी
पथरा गयी है।
किसी ने कहा था :
“प्रजातंत्र में राम मिलेंगे ”
हर पाँचवे वर्ष
मैं प्रतीक्षा करता रहा
किंतु प्रतिफल में सदैव
ताप ही मिलता रहा।
मेरे जैसे कितने पत्थर
अपने भीतर
सिसकती अहिल्या को लिए
गली-गली पड़े हुए हैं
चिर प्रतीक्षित, पथराए हुए..!
चंद्रिका चौधरी
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों एवं साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रतिभागिता।
संप्रति – स्व. राजा वीरेंद्र बहादुर सिंह शासकीय महाविद्यालय सरायपाली जिला -महासमुंद (छत्तीसगढ़) में सहायक प्राध्यापक। Email – drchandrikachoudhary@gmail.com