कविता

ललन चतुर्वेदी की कविताएं

इरादतन प्रेम

उसके बोलने से मात्र ध्वनि संचरित होती है
उसकी आवाज में कोई रंग नहीं होता
उसके पैरों की आहट अनजानी सी लगती है

उसका देखना सिर्फ देखना है
दृष्टि न तो संबोधित होती है,न आह्वान करती है

रेल के डिब्बे सा चलता रहता है पटरी पर
यह महज इंजन से जुड़ाव का प्रतिफल है

उसकी मुस्कान जैसे कोई वैदिक श्लोक
जिसका बहुत कठिन है भाष्य
बोली,बानी ,भाखा सब कुछ उसकी अव्याख्येय

आजकल बड़े ठसक से कहता है
समझो पहले प्रेम का अर्थ
तब करना किसी से प्रेम
एक सिसकती हुई आवाज है
जो मौन में विलीन हो ग‌ई है
उसे सचमुच प्रेम का अर्थ मालूम नहीं था
अन्यथा वह कहां फंसता इस जाल में

बहुत आसान है समझना विधि की भाषा में
इरादतन प्रेम भी एक संज्ञेय अपराध है।
***** 

कविता आर्तनाद है

पलक झपकने के बीच
जितने लोग सफल और महान‌ घोषित किये जाते हैं
उसी दरम्यान कितने लोग इस दुनिया के भूगोल से विदा हो जाते हैं
जब तक एक अखबारनवीस सुर्खियों की तलाश करता है
तब तक कितने लोग बम की बारिश धरती पर सदा- सदा के लिए सो जाते है
कितने लोग अन्न -पानी की तलाश में दम तोड़ देते हैं

इस दुनिया में हर मिनट एक महाभोज का आयोजन हो रहा है
संगीत की लहरियों में लोग थिरक रहे हैं
एक भी आदमी भूखा नहीं सो पाए – यह कवि की चिन्ता है

एक अंतराल में छुटे हुए लोग किसी को गाली नहीं देते
अपनी किस्मत को कोसते हुए ईश्वर को याद करते हैं

इस वक्त जब अनगिनत चेहरे पर छा‌यी हुई है घनघोर उदासी
अंतरिक्ष में चेहरे चमकाने का एक विज्ञापन तैर रहा है
अब तक बहु राष्ट्रीय कंपनियों को करोड़ों का मिल चुका होगा आर्डर

कवि सोचता है कि उसकी कविता खबर‌ क्यों नहीं बन पाती?
जबकि लोग सोचते हैं कविता बैठे -ठाले के काम है
यकीन मानिए कविता बौद्धिक -विलास नहीं है
कविता अनगिनत छुटे हुए लोगों का आर्तनाद है
कविता उनसे सीधा संवाद है । 

***

ज़रूरत भर प्रेम

तुम इसलिए पानी नहीं देते कि पौधे प्यासे हैं
इसलिए देते हो पानी कि पौधे तुम्हारी ज़रूरत हैं
जिस दिन बंद हो जाए मिलनी इनकी छाया
कुल्हाड़ी उठाने में कोई देर नहीं लगेगी

तुम इसलिए करते हो पुत्र से प्रेम कि
तुम्हारे कान सुनना चाहते हैं पापा
अपनी राह चलने वाली संतति को लोग
घोषित कर देते हैं मृत
बेटी यदि कर ले किसी से प्रेम
वह उसी दिन बन जाती है कुल- कलंक

जिसे चाहिए होता है पत्नी
उसे मिल जाती है सावित्री
जिसे चाहिए होता है पुत्र
उसे मिल जाते हैं राम

जो आप सुनना चाहते हैं
उसे यदि सुनाए कवि
तो मर जाती है कविता

सच बोलोगे तो रूठ जायेंगे संगी- साथी
यहां लोग रखते हैं ज़रूरत से काम
इसीलिए तो सबके अलग-अलग राम
ज़रूरत पूरी हो तो प्रेम परमेश्वर
अन्यथा फ्रेम में कहां अट पाता है प्रेम। 

***

प्रतीक्षालय

एक विराट और भव्य स्टेशन पर
उसे उतार दिया गया है
इस सर्वथा अनजान जगह में
एक अजनबी के स्वागत में गाए जा रहे हैं सोहर

वह दो मांओं के बीच रो रहा है लगातार
लोग चुप कराने का कर रहे हैं जतन
सचमुच कितना खुशकिस्मत है वह
एक मां सौंप रही है उसे दूसरी मां को

इन्हीं कुछ वर्षों में
उसकी जन्मदात्री मां चली गई है
उसके पिता भी जा चुके हैं
सौंप कर अनमोल विरासत

वह दूसरी मां के पास सुरक्षित है
वह इस धरती को छोड़ना नहीं चाहता
उसे मिट्टी से हो गया है प्रेम
पर उसे जाना ही होगा

यह धरती किसी की नहीं है
कोई दूसरा आ रहा है
जिसे सौंपना होगा उसे अपना प्रभार

अंपायर बतला रहा है खेल‌ का नियम –
मात्र तीन ओवर का खेल है जिंदगी
सौभाग्यशाली आखिरी ओवर तक रहते हैं नाबाद

ठहरने की एक सीमा होती है
उसकी ट्रेन आ गई है
उसे निकलना ही होगा
वह बोल नहीं सकता फिर मिलेंगे
वह जड़वत हो गया है
प्रतीक्षालय मुसाफिरों से खचाखच भरी हुई है। 

****

पूर्ण वाक्य की खोज में

ओ अक्षर !
हां, मैं तुम्हें पुकार रहा हूं
तुम बन जाओ शब्द

ओ शब्द!
तुम ग्रहण करो वाक्य की शक्ल
भर जाए तुम में अर्थ
जैसे भर जाता है आम में रस

ओ वाक्य!
तुम ग्रहण करो कविता का शिल्प
जिसे गुनगुना सके कोई मनमीत
तुम्हारे मार्फत सुना सके कोई अपनी कथा
भुला सके पल भर के लिए व्यथा

ओ वाक्य !
तुम बन जाओ कोई सूक्त
जो कर सके किसी अंगुलिमाल को मुक्त
ओ वाक्य!
भर लो तुम स्वयं में वह ओज
थर्रा सके जिससे कोई अत्याचारी

ओ वाक्य!
बन जाओ तुम सुरसरि धार
हो जाए जिससे जगती का कल्याण

ओ वाक्य!
तुम बन जाओ कुछ इस प्रकार
कि रख ले म्यान में कोई खींची हुई तलवार

ओ वाक्य!
पूर्णता की तलाश में मैं भटक रहा हूं
कथ्य अधूरा है,पग-पग पर अटक रहा हूं

मैं सुलग रहा हूं
एक अव्यक्त पीड़ा में
एक पूर्ण वाक्य की खोज- यही साध्य है मेरा
एक शिशुवत मुस्कान आराध्य है मेरा।
** 

प्रश्न

प्रश्न में अनेक अंतर्निहित प्रश्न थे

अनेक अनुच्चरित ध्वनियां
सुनाई दे रही थी साफ – साफ

इरादे भी बिल्कुल स्पष्ट थे
अस्वीकृतियां कर रहीं थीं शोर
अपेक्षानुरूप उत्तर की प्रतीक्षा थी

प्रश्न यदि केवल प्रश्न होता तो
बहुत सरल होता उत्तर

उत्तर का एक ही विकल्प था
मौन!
** 

अव्यवस्थित समय

चीजें इफरात में हैं
यहां-वहां, जहां – तहां बिखरी हुईं
दिक्कत यह है कि आंखें उन्हें ढूंढ नहीं पाती
हाथ वहां तक पहुंच नहीं पाते

चीजें सही जगह पर नहीं हैं
या हम भूल ग‌ए हैं उन्हें सुव्यवस्थित करने का तरीका
या हम उनसे हैं अनभिज्ञ – अपरिचित

चीजों को ढूंढने के क्रम में
उठने लगते हैं अनेक सवाल
जैसे आज सुबह से ही मैं ढूंढ रहा हूं एक लिफाफा
फाइलों में न जाने वह कहां छुप गया है
मुझे आज ही डिस्पैच करना है अपनी प्रेयसी को खत

भला ह्वाट्सएप और ई मेल के जमाने में
कौन लिखता है चिट्ठी ?
कोई पागल ,प्रेमी या कवि ही तो करता है इस तरह के काम

मैं जो लिखूंगा , उसे सार्वजनिक नहीं कर सकता
केवल इतना कह सकता हूं कि उसे बहुत अच्छा लगता है मेरा दस्तखत
वह जब कभी मिलती है
यह कहना नहीं भूलती कि तुम लिखते हो बकलम खास

दुःख यही है कि आजकल कोई भी चीज सही जगह पर नहीं है
कल तक जो आदमी रोज इस जगह पर बैठता था
आज सुबह वहां कोई दूसरा आदमी है
परसों निश्चित तीसरा मिलेगा
यहां तक कि चौराहे पर बैठने वाला मोची
महीनों से नहीं दिखाई दे रहा है
क्या लोग अब जूते की मरम्मत नहीं कराते
रफ्फूगर की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं

लोग वही हैं शक्ल -सूरत बदल ग‌ए हैं

कुछ समय पहले जो लिख रहा था कविता
आज वह शेयर बाजार के भाव परख रहा है
कल एक आदमी चौराहे पर दुष्यंत का शेर‌ पढता हुआ मिला
आज जुलूस में गाजे – बाजे के साथ चुनाव का पर्चा भरने जा रहा है

क्या पहुंच पाएगा मेरा पत्र
कैसे एतबार करूं कि मेरी प्रेयसी
अब भी होगी अपनी पुरानी जगह पर

“पता नहीं मिला ” की अभियुक्ति के साथ
कहीं लौट तो नहीं आएगा मेरा लिफाफा
इस अव्यवस्थित समय में।
**** 
सब तयशुदा है

अब कहीं कोई अनिश्चिता नहीं है
भेदा जा चुका है संशय का गहन अन्धकार
सब कुछ हो रहा है नियोजित तरीके से
मन पूरी तरह प्रबंध – कौशल से लैस है

सारी दिनचर्या दर्ज है नोटबुक में
सूत भर किसी के फिसलने का सवाल नहीं है
सफलताएं, उपलब्धियां और प्रसिद्धियां
मानो उसके इन्तजार में बैठी हैं
इनके हाथों में सजीं हैं पहले से ही जयमाल
केवल प्रकट होने भर की देर है

दोनों हथेलियों के बीच केवल छः इंच की दूरी है
आते ही करतल ध्वनि से गूंज उठेगा सभागार

यह कोई नई बात नहीं है
ऐसे भव्य दृश्य इतिहास में दर्ज होते रहे हैं सदियों से
फर्क यही आया है कि
अब हर सफल मनुष्य करने लगा है इसका अनुसरण

किसे करना है नमस्कार,किसे करना है दरकिनार
किसे लाना है सुर्खियों में ,किसे धकेलना है हाशिए पर
यह सब पहले से ही तयशुदा है
यह सातवां आश्चर्य नहीं है तो क्या है कि कोई भीड़ से जुदा है।
*** 

दुःख अभिव्यक्त होना चाहता है

बड़े आदमी के अभेद्य कवच होते हैं
वे जल्दी निकल नहीं पाते अपने खोल से
भूल से यदि किसी को पता चल जाए उनका दुःख
वे दुःख से नहीं , दुःख के सार्वजनिक हो जाने से हो हलकान हो जाते हैं
तुरंत सोशल मीडिया पर डाल देते हैं एक वाक्य की अपील –
उनसे किसी माध्यम से संपर्क नहीं किया जाए
वे जताना नहीं भूलते कि लोगों के प्यार के लिए वे बहुत अहसानमंद हैं
तथापि उनकी निजता का खयाल रखा जाए

छोटे आदमी के दुःख का कोई मोल नहीं है
सार्वजानिकता उसे कौड़ी के भाव में नीलाम कर देती‌ है

निरीह आदमी दुःख में कभी नहीं छिपता
बारिश में भीगते पेड़ कहां जायेंगे
वह अथाह दुःख में भी लोगों से बातें करना चाहता है
नहीं बन्द करता है अपना मोबाइल
बार- बार देखता रहता है स्क्रीन

भले ही कोई नहीं करे उसकी समस्याओं का समाधान
लेकिन आदमी से उसका भरोसा उठता नहीं है
वह झुकता तो है,मगर जल्दी टूटता नहीं है।
** 
भ्रष्ट

सड़क के गड्ढे पूरे सफर में परेशान करते हैं
केवल गति ही मंद नहीं होती,मति भी मंद हो जाती है
आखिर कौन सा रास्ता चुनूं कि मंज़िल पर पहुंचना हो जाए आसान

दुश्मन उनके सामने बौने साबित होते हैं
वे करते हैं कभी- कभार परेशान
पर ये युनिफार्म वाले का पूरा शातिर गिरोह
बगैर कैंची के काट डालते हैं जेब
उनके इशारे पर नाचने लगता है मुवक्किल पहनकर पांवों में पाज़ेब

ये गेहुंअन सांप से भी कहीं अधिक होते हैं विषैले
भरते नहीं कभी ,इतने बड़े होते हैं इनके थैले
क्षण भर में मृत्यु समाप्त कर देती है समस्त दुख
पर ये जीवन भर तड़पाते हैं ,फिर भी नहीं शरमाते हैं

ये पढ़े – लिखे लोग जब देकर कंपेटिशन बनते हैं अधिकारी या क्लर्क
बना देते हैं किसी गरीब, ईमानदार आदमी का जीवन नरक
कुर्सी पर बैठते ही घूस लेने की प्रतियोगिता में एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं
सड़े हुए आम की तरह पूरी टोकरी को सड़ाते हैं


इससे भले तो वे दुश्मन होते हैं जिनके इरादे स्पष्ट होते हैं
दूसरों की नींद हराम कर ये भ्रष्ट अफसरान चैन की नींद सोते हैं
इनमें जो अपवाद हैं,वे तो इनके लिए बेकार हैं
उनको दरकिनार करने के लिए ये रहते बेकरार हैं
समाज के कोंढ देश को दीमक की तरह चाट रहे हैं
नौकर हैं फिर भी मालिक को डांट रहे हैं।
****

परिचय

ललन चतुर्वेदी (मूल नाम-ललन कुमार चौबे)

एम.ए.(हिन्दी), बी एड., नेट जेआरएफ उत्तीर्ण

प्रकाशित कृतियाँ : प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य संकलन), ईश्वर की डायरी तथा यह देवताओं का सोने का समय है (कविता संग्रह)  एवं साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं तथा प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएं एवं व्यंग्य प्रकाशित।

ईमेल: lalancsb@gmail.com

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