1. असुर समय
जैसे पृथ्वी के भीतर
पृथ्वी नहीं लावा है
चीजों के भीतर
हलचल ऊर्जा की
कि जैसे किसी भी दिशा में क्यों ना चलें
यमराज के भैंसे पे सवार मिलते हैं
दिन का पीछा करती हुई रात को देखकर भी
समझ नहीं पाते हैं कि हम
हमेशा कितने अंधेरे में होते हैं
पूजा करते हैं जिन देवताओं की
असुरों के हिस्से के
अमृत के कर्जदार मिलते हैं
देश हमारा है बेशक मगर
उतना ही उनका निकलता है
जिन्हें हम अपना दुश्मन कहते हैं
देवभूमि के भीतर ही मिलता है
जिसे हम असुरों, नागों का देश कहते हैं
हमारे देखते ही देखते वह
अपनी अंधेरी गुफाओं से
निकल आता है बाहर
फिर से
समुद्र मंथन करने के लिए
खुद पीने के लिए अमृत
और विष को भी
अपने ही कंठ में धारण करने के लिए
डर गए हैं इतिहास के पुराने नायक
प्रिय देवों के
ईश्वर के
अल्लाह और क्राइस्ट के
कि देवता के भीतर के असुर का
और असुर में छिपे देवता का वक्त
लौट रहा है
लौट रहा है वक्त
उस ईश्वर का भी जो
देवता और असुर में विभाजित नहीं है।
2. अज्ञेय! तुम्हारे प्रतीकों के देवता लौट रहे हैं
बहुत फिक्र थी तुम्हें, महाकवि अज्ञेय!
कि देवता प्रतीकों के
कर गये हैं कूच
और इसलिए कविताएं
परायी लगने लगी हैं
दिखाई देता है गद्य
ईश्वर की तरह
सर्वव्यापक
गद्य की खुरदरी दुनिया
पगला रही है
ऐसे में चुप रहना पसंद कर्ता है
एक समझदार शब्द
बोलना बंद होता है
तो सुनने की बारी आती है
सुनाई देता है कि भीतर कहीं
कोई हृदय
अभी तक धड़क रहा है
अपनी धड़कन को पाते ही
वह एक शब्द
लय में लौटता है
लौटता है
एक देवता
फिर से अपने घर में
एक प्रतीक में
उतरने लगती है
एक कविता
3. जिसकी कोई प्रतिमा नहीं होती
(न तस्य प्रतिमा अस्ति: यजुर्वेद 32/3)
अल्लाह
बुद्ध के बुत गिरा कर
मस्जिद में जाकर बैठ गया है
मस्जिद की दीवार
बुत नहीं है
पर एक बुत का काम करती है
ईश्वर
लौट आता है
एक बुत में
मस्जिद के ध्वंस के बाद
जिसकी कोई प्रतिमा नहीं होती
उसके होते हैं
प्रतीक हज़ार
ताकि
उन्हें तोड़ा जा सके
फिर से गढ़ने के लिये
4. स्वर्ग से निष्कासन की भारतीय शैली
तीन देवियों का
स्वर्ग पर राज चलता है
एक देवी
लोगों को हंस बना कर
सौंदर्य का व्यवसाय करती है
दूसरी
उल्लू बना कर उन्हें
रात की जासूसी कराती है
तीसरी उन्हें
बनाती हैं शेर कि
भय का साम्राज्य
कर सके स्थापित
देवियों का वाहन बन कर
हंस
दूसरों के हिस्से के
मोती चुगते हैं
उल्लू
जहां देखते हैं फलदार पेड़
वहीं अपनी कोटर बनाते हैं
शेर
पालतू पशुओं को खाने के लिये
लोगों के बाड़ों में घुस जाते हैं
देवियों का वाहन बनने से
इन्कार करने वालों के लिये
सारे देवलोकों के
द्वार बंद हो जाते हैं
कुछ ज़्यादा ही अक्लमंद होने का
फल भुगतने के लिये उन्हें
पृथ्वी लोक में
जन्म लेने के लिये
नीचे धकेल दिया जाता है।
-डॉ विनोद शाही
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परिचय
डॉ विनोद शाही
आलोचना व विमर्श : साहित्य के नए प्रतिमान, भारतीय सभ्यता का आत्म-संघर्ष, भारतीय भाषा दर्शन, मार्क्सवाद और भारतीय यथार्थवाद, प्राच्यवाद और प्राच्य भारत, हिंदी साहित्य का इतिहास, हिंदी आलोचना की सैद्धांतिकी, कथा की सैद्धांतिकी, संस्कृति और राजनीति, रामकथा, आलोचना की जमीन, जयशंकर प्रसाद, बुल्लेशाह, समय के बीज आख्यान, वारिसशाह पतंजलि योग दर्शन, कालजयी उपन्यास, नव इतिहास दर्शन, नव काल विभाजन, नव लोक संस्कृति विमर्श, भाषा दर्शन और हिंदी, डी डी कोसंबी।
संपादन: जगदीश चंद्र रचनावली ( चार खंड ), तमस, गांधी और हिंद स्वराज, भगत सिंह : इन्कलाबी चिंतन, प्रतिनिधि कहानियां: एस आर हरनोट, भालचंद्र जोशी और राजकुमार राकेश।
उपन्यास: ईश्वर के बीज और निर्बीज
कहानी संग्रह: इतिहास चोर, अचानक अजनबी, ब्लैक आउट, श्रवणकुमार की खोपड़ी
नाटक: पंचम वेद, झूठ पुराण, जुआघर
काव्य: नये आदमी का जन्म , कवि के मन से (संपादन प्रताप सहगल)
सम्मान व पुरस्कार: रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान, शिरोमणि साहित्यकार सम्मान,वनमाली कथा आलोचना सम्मान , राजस्थान राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का समय माजरा आलोचना सम्मान, ‘पंचम वेद’ के लिये अवितोको नाटक लेखन प्रेरणा पुरस्कार, आकाशवाणी पुरस्कार तथा आकाशवाणी पुरस्कार , जुआघर (एक हत्या की हत्या) और ‘झूठ पुराण’ के लिये साहित्य कला परिषद पुरस्कार
drvinodshahi@gmail.com


